इलाहाबाद- उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा की एक कर्मचारी की बर्खास्तगी के आदेश को रद्द करते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन पर उनके खिलाफ चलाए गए अनुशासनात्मक कार्यवाही को "पूर्वाग्रह और दुर्भावना से प्रेरित" बताया है। कोर्ट ने कहा कि यह कार्रवाई तब शुरू हुई जब पेटीशनर ने तत्कालीन कार्यवाहक रजिस्ट्रार एस.एन. तिवारी के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई थी।
जस्टिस मंजू रानी चौहान की खंडपीठ ने शुक्रवार को इस मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार द्वारा 14 दिसंबर, 2024 को पारित बर्खास्तगी के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने विश्वविद्यालय को निर्देश दिया कि वह पेटिशनर को उपकुलपति के स्टाफ ऑफिसर के पद पर तुरंत बहाल करे। यह पेटीशनर की चौथी बर्खास्तगी थी, जिसे कोर्ट ने गलत ठहराया।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, "यह स्पष्ट मामला पेटीशनर के अनावश्यक उत्पीड़न का है, क्योंकि उनके खिलाफ सभी कार्यवाही केवल तभी शुरू हुई जब उन्होंने रजिस्ट्रार के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई।" फैसले में आगे कहा गया, "यह घटनाक्रम इस बात को दर्शाता है कि विश्वविद्यालय प्राधिकारी, और विशेष रूप से रजिस्ट्रार, ने पेटीशनर को निशाना बनाने और परेशान करने के स्पष्ट डिजाइन के साथ कार्य किया, जिससे एक पूर्वनिर्धारित और प्रतिशोधी दृष्टिकोण का पता चलता है न कि निष्पक्ष या कानूनी अधिकार के प्रयोग का।"
मामले का सार यह है कि शिक्षिका को वर्ष 2010 में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में उपकुलपति के निजी सचिव के पद पर अनुबंध पर नियुक्त किया गया था और बाद में 2018 में उनकी सेवाएं स्थायी कर दी गईं तथा उन्हें स्टाफ ऑफिसर के पद पर पदोन्नत किया गया। कोर्ट के समक्ष पेश पक्षों के अनुसार 6 अगस्त, 2020 को पेटीशनर ने तत्कालीन कार्यवाहक रजिस्ट्रार एस.एन. तिवारी के खिलाफ दुर्व्यवहार और यौन उत्पीड़न की शिकायत की। इसके ठीक बाद 18 अगस्त, 2020 को विश्वविद्यालय ने एक विधिक नोटिस का हवाला देते हुए उन्हें निलंबित कर दिया, जो किसी विष्णु प्रताप सिंह द्वारा उनकी नियुक्ति में अनियमितताओं को लेकर कथित तौर पर भेजा गया था।
हालांकि, बाद में विष्णु प्रताप सिंह ने एक शपथपत्र देकर कोर्ट में स्वीकार किया कि उन्होंने न तो किसी वकील को ऐसा कोई नोटिस भेजने का निर्देश दिया था और न ही उन्हें ऐसे किसी नोटिस के बारे में जानकारी है। कोर्ट ने इस बात पर जोर देते हुए कहा, "ये परिस्थितियाँ इस संदेह के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती हैं कि विश्वविद्यालय प्राधिकारी, और विशेष रूप से रजिस्ट्रार, ने पेटीशनर को निशाना बनाने और परेशान करने के स्पष्ट डिजाइन के साथ कार्य किया।"
पेटीशनर पर आरोप था कि उन्होंने एक जाली Ph.D. डिग्री जमा कराई और अपने नाम के आगे 'डॉ.' उपाधि का प्रयोग किया। हालांकि, कोर्ट ने पाया कि न तो निजी सचिव के पद पर नियुक्ति के लिए और न ही स्टाफ ऑफिसर के पद पर पदोन्नति के लिए Ph.D. डिग्री एक आवश्यक योग्यता थी। कोर्ट ने कहा कि पेटीशनर ने केवल यह बताया था कि वह Ph.D. कर रही हैं, यह दावा कभी नहीं किया कि उनके पास डिग्री है।
कोर्ट ने कहा, "इन परिस्थितियों में पेटीशनर के लिए कोई Ph.D. डिग्री जमा करने या उस पर भरोसा करने का न तो अवसर था और न ही आवश्यकता थी।" फैसले में आगे कहा गया, "पेटीशनर द्वारा Ph.D. प्रमाणपत्र जमा करके किसी अनुचित लाभ को सुरक्षित करने का आरोप पूरी तरह से गलत और निराधार है।"
कोर्ट ने कहा कि रिकॉर्ड से पता चलता है कि पेटीशनर की निलंबन की तारीख 18.08.2020 से तीन दौर की कार्यवाही हुई, जो अंततः 14.12.2024 को बर्खास्तगी में समाप्त हुई। यह पेटीशनर के खिलाफ पारित चौथा पदमुक्ति आदेश है और वर्तमान रिट याचिका उनके द्वारा दायर की गई चौथी याचिका है।
कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि पिछली बार जब उसने 29 नवंबर, 2023 को इसी मामले में फैसला सुनाया था, तो उसने विश्वविद्यालय को केवल एक असहमति नोटिस जारी करने का निर्देश दिया था, न कि एक नई जांच समिति गठित करने का। लेकिन विश्वविद्यालय ने एक बाहरी तीन-सदस्यीय जांच समिति का गठन किया, जिसे कोर्ट ने "अदालत के आदेश की अवहेलना" बताया। कोर्ट ने कहा कि यह कदम विश्वविद्यालय की दंडात्मक मानसिकता को दर्शाता है।
अपने फैसले के पक्ष में कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला दिया, जिनमें कहा गया है कि यदि कार्रवाई पूर्वाग्रह या दुर्भावना से प्रेरित है, तो उसे कानून की नजर में बरकरार नहीं रखा जा सकता। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में कार्रवाई कानूनी विचार-विमर्श से प्रेरित नहीं थी, बल्कि व्यक्तिगत दुश्मनी और प्रतिशोध का सीधा परिणाम थी।
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