नई दिल्ली- दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक युवती के सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले में मुख्य आरोपी मोहम्मद शकीर की जमानत याचिका खारिज कर दी। जस्टिस डॉ. स्वर्णकांता शर्मा ने इस मामले को "मानवता के प्रति क्रूरता की एक परेशान कर देने वाली घटना" बताते हुए कहा कि आरोपी ने न केवल पीड़िता का यौन शोषण किया बल्कि उसके चेहरे को विकृत कर दिया और उस पर इतनी ज्यादा हिंसा की कि उसकी मौत हो गई।
यह घटना 1 मई 2023 की रात जीबी पंत अस्पताल, दिल्ली के परिसर में घटी, जहाँ पीड़िता एक 'आया' के रूप में कार्यरत थी। कोर्ट ने इस बात पर गहरी चिंता जताई कि यह जघन्य अपराध एक सक्रिय अस्पताल के अंदर, एसी प्लांट रूम में अंजाम दिया गया, जो कि जीवन बचाने वाली एक संस्था है।
कोर्ट ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा, "दुर्भाग्य से, यह मामला इस बात को उजागर करता है कि अस्पतालों में कार्यरत महिला कर्मचारी भी स्वयं अस्पताल की इमारत के अंदर ही यौन हिंसा की शिकार होने से अछूती नहीं हैं। जैसा कि वर्तमान मामले में पीड़िता, जो एक 'आया' के रूप में कार्यरत थी, अस्पताल के एसी प्लांट रूम में उस क्रूरता का शिकार हुई, जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई।"
अपने फैसले में कोर्ट ने केस की गंभीरता और आरोपों की प्रकृति पर विस्तार से प्रकाश डाला। जस्टिस शर्मा ने अपने निर्णय में कहा, "वर्तमान मामला इस अदालत के सामने मानव क्रूरता का एक परेशान कर देने वाला विवरण लेकर आता है, जहाँ एक युवती एक क्रूर शारीरिक और यौन हमले की शिकार बनी। हमले ने उसे गंभीर रूप से घायल, उसका चेहरा विकृत कर दिया, उसके शरीर पर हिंसा के स्पष्ट निशान छोड़ दिए - और उसकी आत्मा को एक अमानवीय अपराध के बोझ तले कुचल दिया।"
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि पीड़िता ने अपने अंतिम समय में पुलिस अधिकारियों को आरोपी का नाम और उसके मोबाइल नंबर के कुछ अंक बताए थे, जिसकी पुष्टि जांच में हुई। आरोपी की गिरफ्तारी के बाद, पीड़िता का मोबाइल फोन भी बरामद किया गया, जिसे आरोपी ने एक अन्य व्यक्ति को दे दिया था। इसके अलावा, सीसीटीवी फुटेज और सीडीआर विश्लेषण ने आरोपी को घटनास्थल पर स्थापित किया।
इस मामले की गंभीरता को देखते हुए, कोर्ट ने इस आदेश की एक प्रति दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव और कानून विभाग के सचिव को भेजने का निर्देश दिया है ताकि अस्पताल परिसरों में सुरक्षा संबंधी उपायों पर ध्यान दिया जा सके।
आरोपी के वकील ने यह तर्क दिया था कि चूंकि पीड़िता और आरोपी एक-दूसरे को जानते थे और उसी दिन बातचीत भी हुई थी, इसलिए यह मामला जबरन हमले का नहीं हो सकता। इस तर्क को कोर्ट ने सिरे से खारिज कर दिया।
कोर्ट ने स्पष्ट किया, "यहाँ तक कि यदि, तर्क के लिए, ऐसे तर्क को स्वीकार भी कर लिया जाए... कानून स्पष्ट है कि दो व्यक्तियों के बीच पिछले/पुराने परिचय या अंतरंगता, किसी भी तरह से प्रत्येक विशिष्ट यौन कृत्य के लिए स्वतंत्र और सचेत सहमति की आवश्यकता को खत्म नहीं करती है। पुराना रिश्ता या परिचय एक सामान्य या निरंतर सहमति का मतलब नहीं समझा जा सकता है, न ही यह किसी भी बाद की हिंसा की कार्यवाही को सही ठहरा सकता है।"
कोर्ट ने कहा कि पीड़िता के शरीर पर मिले कई चोटों के निशान प्रतिरोध और संघर्ष को दर्शाते हैं, जो साबित करते हैं कि उसने अपने साथ किए गए अमानवीय कृत्यों के लिए सहमति नहीं दी थी।
आरोपी पक्ष की ओर से यह भी तर्क दिया गया कि चूंकि आरोपी पहले ही दो साल से अधिक समय से जेल में है और trial में देरी हो रही है, इसलिए उसे जमानत मिलनी चाहिए क्योंकि "जमानत नियम है और जेल अपवाद"।
इस पर कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि यह सिद्धांत हर मामले में बिना सोचे-समझे लागू नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य मामलों में, जहाँ चिकित्सकीय और फोरेंसिक सबूत अपराध की क्रूरता का प्राइमा फेसी (prima facie) खुलासा करते हैं, वहाँ "जमानत नियम है" का तर्क अपना बल खो देता है।
कोर्ट ने कहा, "इसलिए, इस न्यायालय का विचार है कि 'जमानत नियम है' का सिद्धांत हर मामले में जमानत देने के लिए एक अनियंत्रित लाइसेंस के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता है... ऐसे मामलों में, 'जमानत नियम है' का दावा न्याय, सामाजिक व्यवस्था, निवारण और समाज में महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने के उच्च विचारों के लिए आवश्यक रूप से हार मान लेगा।"
अदालत ने यह भी नोट किया कि मुकदमा अभी एक बहुत ही crucial stage में है और अभी बहुत से महत्वपूर्ण गवाहों का बयान दर्ज होना बाकी है, ऐसे में आरोपी को जमानत देने का कोई आधार नहीं है। आरोपी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार), 302 (हत्या) और 397 (डकैती) के तहत मुकदमा चल रहा है।
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