ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट पर फिर घमासान, जयराम रमेश ने सरकार पर साधा निशाना, कहा - 'आदिवासियों का अस्तित्व खतरे में'

पूर्व पर्यावरण मंत्री ने पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन को बताया अधूरा और त्रुटिपूर्ण, वैज्ञानिकों पर रिपोर्ट बदलने के लिए दबाव डालने का भी लगाया गंभीर आरोप।
Ruckus over Great Nicobar Project, Jairam Ramesh raises serious questions | Great Nicobar Project
ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट पर बवाल, जयराम रमेश ने उठाए गंभीर सवाल | Great Nicobar ProjectGraphic- The Mooknayak
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नई दिल्ली: ग्रेट निकोबार द्वीप पर प्रस्तावित Great Nicobar project को लेकर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने मंगलवार, 16 सितंबर, को इस परियोजना पर गंभीर चिंताएं व्यक्त की हैं। उन्होंने दावा किया है कि यह प्रोजेक्ट न केवल आदिवासी समुदायों को उनकी जड़ों से उजाड़ देगा, बल्कि उनके अस्तित्व और कल्याण के लिए भी एक बड़ा खतरा पैदा करेगा, जो मौजूदा सभी नियमों, नीतियों और कानूनों के सरासर खिलाफ है।

जयराम रमेश ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'X' पर कहा कि इस परियोजना पर सार्वजनिक बहस लगातार जारी है। उन्होंने याद दिलाया कि कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 8 सितंबर को एक अखबार में इस मुद्दे पर लेख लिखा था, जिसका जवाब चार दिन बाद केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने दिया। हालांकि, रमेश का आरोप है कि मंत्री का जवाब उन मुख्य चिंताओं को दूर करने में विफल रहा जो लगातार उठाई जा रही हैं।

पर्यावरण मूल्यांकन पर उठाए गंभीर सवाल

पूर्व पर्यावरण मंत्री ने तर्क दिया कि परियोजना के लिए किया गया पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (Environmental Impact Assessment) बेहद जल्दबाजी में, अधूरा और त्रुटिपूर्ण था। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि परियोजना को मंजूरी मिलने के बाद अतिरिक्त प्रभाव अध्ययन करवाने का आदेश देना ही अपने आप में इसकी सीमाओं को उजागर करता है। जयराम रमेश ने इस बात पर भी हैरानी जताई कि मूल्यांकन का काम इसके लिए संदर्भ शर्तें (Terms of Reference) जारी होने से पहले ही शुरू कर दिया गया था।

आदिवासी समुदायों और पर्यावरण की बलि?

जयराम रमेश ने स्पष्ट रूप से कहा, "इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह परियोजना ग्रेट निकोबार के आदिवासी समुदायों को बाधित और विस्थापित करेगी। यह उनके अस्तित्व और भलाई के लिए एक गंभीर खतरा है।"

उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि शोम्पेन और निकोबारी जनजातियों पर अपना पूरा जीवन अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों की वीडियो रिपोर्ट को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है।

उन्होंने सरकार के उस तर्क को भी खारिज कर दिया जिसमें कहा गया है कि आदिवासी क्षेत्रों को डिनोटिफाई करने के बदले नए क्षेत्रों को आरक्षित कर भरपाई की जाएगी। रमेश के अनुसार, "यह विचार स्वदेशी लोगों की जरूरतों के साथ-साथ ग्रेट निकोबार की जैव-भौतिकीय विविधता को समझने में कमी को दर्शाता है।"

पर्यावरण की क्षति पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि हरियाणा में पेड़ लगाना, जो वैसे भी किया जाना चाहिए, ग्रेट निकोबार द्वीप के बहु-प्रजाति और जैव विविधता से भरपूर जंगलों की कटाई की भरपाई कभी नहीं कर सकता। उन्होंने इसे एक "फर्जी बराबरी" करार दिया।

क्या वैज्ञानिकों पर था दबाव?

जयराम रमेश ने एक सनसनीखेज दावा भी किया। उन्होंने कहा, "सार्वजनिक संस्थानों के वैज्ञानिकों ने खुद बताया है कि उन्हें परियोजना के पक्ष में रिपोर्ट देने के लिए कहा गया था। कुछ को तो परियोजना को क्लीन चिट देने के दबाव के कारण इस्तीफा तक देना पड़ा।"

यह पहली बार नहीं है जब रमेश ने इस मुद्दे को उठाया हो। इससे पहले रविवार, 14 सितंबर, 2025 को भी उन्होंने इस परियोजना को एक "पारिस्थितिक आपदा" बताया था और कहा था कि मोदी सरकार अदालतों में पर्यावरण मंजूरी को चुनौती दिए जाने के बावजूद इसे जबरदस्ती आगे बढ़ा रही है।

सरकार का पक्ष

इससे पहले, सोनिया गांधी ने इस परियोजना को एक "सोची-समझी विपत्ति" बताते हुए आरोप लगाया था कि सरकार ने सभी कानूनी और विचार-विमर्श प्रक्रियाओं का मजाक बना दिया है। इन आरोपों का जवाब देते हुए पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने दावा किया था कि परियोजना के लिए सभी आवश्यक मंजूरियां प्राप्त कर ली गई हैं और यह देश के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

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