SC लिस्ट से तीन जातियां हटाने का प्रस्ताव: जाति को 'कैंसर' बताने वाले बोले —नाम बदलने से रोग का इलाज नहीं होगा

अनुसूचित जाति सूची से 'चुरा', 'भंगी' और 'मोची' नाम हटाने के प्रस्ताव पर प्रबुद्ध जनों ने कहा समाज में तिरस्कृत जाति नामों और शब्दावली से पिंड छुड़ाना ज़रूरी लेकिन केवल नाम की बजाय 'जाति घृणा' हटाने पर फोकस करना चाहिए. एससी सूची में शामिल समुदायों के जातीय नामों को हटाने से उनके अनुभव, इतिहास और संवैधानिक सुरक्षा का खतरा बढ़ जाएगा।
चुरा और भंगी सफाई से जुड़े पारंपरिक कामों के लिए जाने जाते हैं जबकि मोची जूतों की मरम्मत और अन्य कामों से जुड़ा हुआ पेशा है.
चुरा और भंगी सफाई से जुड़े पारंपरिक कामों के लिए जाने जाते हैं जबकि मोची जूतों की मरम्मत और अन्य कामों से जुड़ा हुआ पेशा है.
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नई दिल्ली - हरियाणा सरकार ने हाल ही में अनुसूचित जाति सूची से "चुरा," "भंगी," और "मोची" जैसे नामों को हटाने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है। सरकार का कहना है कि ये नाम न केवल आपत्तिजनक हैं बल्कि समाज में जातिगत अपमान और गाली के रूप में भी इस्तेमाल किए जाते हैं। ये तीनों नाम पारंपरिक व्यवसायों से जुड़े हैं, जो समाज में लंबे समय तक जातिगत पहचान के रूप में उपयोग किए गए.

हरियाणा सरकार ने कहा है कि ये नाम अब समाज में अपमानजनक और नकारात्मक तरीके से देखे जाते हैं। यह बदलाव पिछले कई वर्षों से मांग में था। अनुसूचित जाति सूची में चुरा और भंगी क्रम संख्या दो पर, जबकि मोची नौवें स्थान पर दर्ज हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति की सूची में किसी भी बदलाव के लिए केंद्र सरकार को अधिनियम में संशोधन करना होता है.

हालांकि, इस कदम को लेकर बहुजन समाज में मतभेद हैं।

द मूकनायक ने इस विषय पर विभिन्न समाजिक कार्यकर्ताओं और प्रबुद्ध जनों से बात की। मुख्य रूप से ये बात उभर कर आई कि सरकारी लेवल पर जाति विशेष के लिए अपमानकारी शब्दों को हटाना तो ठीक है लेकिन इसके पीछे अगर हिंदुत्व टर्मिनोलॉजी को आगे लाने की मंशा छिपी हो तो वो समुदाय के हित में नहीं होगा.

राजस्थान के दलित अधिकार कार्यकर्ता और लेखक, भंवर मेघवंशी ने कहा, "यह सही बात है कि अनुसूचित जाति समुदाय की बहुत सी जातियों के नाम इतने अपमानजनक हो चुके हैं कि वे गाली के पर्याय बन चुके हैं, समाज में तिरस्कृत जाति नामों और शब्दावली से पिंड छुड़ाना ज़रूरी है.सरकारी स्तर पर अगर अपमानबोधक जाति नाम सूची से हटाए जा रहे हैं तो सही प्रक्रिया है,लेकिन इसमें यह ज़रूर ध्यान रखा जाना होगा कि कहीं सूची से नाम हटाने में कोई जाति अनुसूचित जाति की लिस्ट से बाहर नहीं हो जाये.”

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क्या सूची से नाम हटाने से जातिगत हिंसा और अपमान खत्म होंगे?

मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व सदस्य एव एससी कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप अहिरवार कहते हैं सरकार का यह प्रस्ताव दुर्भाग्य पूर्ण होने के साथ साथ अपनी जिम्मेदारी से पल्ला छुड़ाने जैसा है. द मूकनायक के उपसंपादक अंकित पचौरी से चर्चा में अहिरवार ने कहा, " सरकार का दायित्व है कि वह हर अनुसूचित जाति को सामाजिक सुरक्षा और न्याय मुहैया कराए, जो हर अनुसूचित जाति वर्ग के व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है।"

उन्होंने सवाल उठाए:

  • "क्या सूची से नाम हटाने से इन वर्गों पर जातीय हिंसा खत्म हो जाएगी?"

  • "क्या इन वर्गों की बहन-बेटियों पर होने वाले दुष्कर्म बंद हो जाएंगे?"

  • "क्या सामाजिक भेदभाव और छुआछूत खत्म हो जाएगी?"

अहिरवार का मानना है कि नाम हटाने से भेदभाव खत्म नहीं होगा। उन्होंने सुझाव दिया कि सरकार को इन वर्गों के लिए शिक्षा, व्यापार के लिए ऋण और खेती के लिए ज़मीन जैसे अवसर प्रदान करने चाहिए ताकि आर्थिक संपन्नता के जरिए जातिगत भेदभाव मिट सके।

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Ambedkar International Center के सदस्य अनिल वागडे कहते हैं, " जाति समाज के लिए कैंसर है। कैंसर को किसी अन्य नाम से पुकारने से यह ठीक नहीं होता। यह अनुसूचित जाति को मिलने वाले आरक्षण को खत्म करने का एक अनोखा तरीका है।"

द मूकनायक के सहायक सम्पादक राजन चौधरी से हुई संक्षिप्त बातचीत में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विक्रम हरिजन ने कहा कि, "ये गलत है। इस प्रकार के प्रस्ताव से वे हिस्टोरिकल फैक्ट्स को तोड़ना चाहते हैं।"

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र की सहायक प्रोफेसर एवं जाति विरोधी कार्यकर्ता डॉ. रेहाना रवींद्रन का मानना है कि यह कदम जाति नामों से जुड़े पूर्वाग्रहों को खत्म करने में कोई खास फर्क नहीं ला सकता। बल्कि, यह हाशिये पर मौजूद और राज्य द्वारा पूरी तरह से उपेक्षित जातियों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।

रेहाना कहती हैं, " इन जाति नामों को हटाने से पहले, इसके प्रभावों पर अच्छी तरह से चर्चा और शोध किए बिना, यह कदम कई और समस्याओं जैसे पुनर्वर्गीकरण, पहचान संबंधी मुद्दे, और प्रशासनिक जटिलताएं आदि को जन्म दे सकता है।" वे आगे कहती हैं, "जाति नामों के अपमानजनक उपयोग का मुद्दा पहले ही एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम में शामिल किया गया है, जो जातिसूचक गालियों के लिए दंडित करता है। आवश्यकता इस कानून के प्रभावी कार्यान्वयन को मजबूत और सख्त बनाने की है, जिससे लोग सार्वजनिक रूप से जाति नामों का अपमानजनक उपयोग करने से बचें।

इसके अलावा, अगर सरकार सचमुच जातिगत पूर्वाग्रहों को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है, तो उसे विभिन्न हितधारकों से परामर्श करके एक ठोस कार्य योजना बनानी चाहिए।"

Babasaheb Ambedkar National Association of Engineers (BANAE) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नागसेन सोनारे कहते हैं चुरा, भंगी, चमार आदि जाती सूचक और अपमानजनक शब्द हैं, इनका हट जाना ही ठीक होगा लेकिन यह निश्चित किया जाए कि इन्हें किसी दूसरे समानजनक उपनाम से सबोधित किया जाये, ये सूची में बने रहे.

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नाम बदलने की प्रक्रिया पर सवाल: शिक्षा, रोजगार और सम्मान पर जोर क्यों नहीं?

लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी और आधुनिक भारतीय भाषाओं के एसोसिएट प्रोफेसर रविकांत चंदन ने इस मुद्दे पर मूकनायक के प्रतिनिधि प्रतीक्षित सिंह को अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अगर समाज ऐसे आपत्तिजनक शब्दों को छोड़ दे तो यह एक अच्छा कदम होगा, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि इस प्रकार के प्रस्ताव के पीछे की नीयत साफ और सकारात्मक हो।

उन्होंने आशंका जताई कि इस कदम के पीछे कहीं न कहीं हिंदुत्व का एजेंडा बढ़ाने की मंशा हो सकती है। उन्होंने कहा: "ऐसा न हो कि जातियों के नाम सूची से गायब कर केवल हिंदू राजनीति को मजबूत करने की कोशिश हो। अगर इसके पीछे कोई गुप्त एजेंडा नहीं है और नीयत साफ है, तो यह प्रयास स्वागतयोग्य हो सकता है।"

प्रोफेसर रविकांत ने यह भी सवाल उठाया कि इन नामों को हटाने के बाद इनका विकल्प क्या होगा? उन्होंने कहा: "भंगी शब्द की जगह वाल्मीकि शब्द चलेगा, लेकिन इसमें भी राजनीति निहित है। वाल्मीकि नाम के जरिए भी हिंदुत्व को आगे बढ़ाने की कोशिश हो सकती है। फिर भी, अगर यह समाज में जातिगत अपमान कम करता है, तो यह बदलाव स्वीकार्य है।"

उनका मानना है कि इस तरह के बदलाव तभी प्रभावी होंगे जब उन्हें शिक्षा और सामाजिक समानता के ठोस प्रयासों का समर्थन मिले। केवल प्रतीकात्मक बदलावों से समाज में गहराई से जड़ जमा चुकी जातिगत समस्याओं का समाधान संभव नहीं है।

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जाति नाम हटाने से समुदायों के ऐतिहासिक और सामाजिक अनुभव पर संकट

चेन्नई से मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखिका शालिन मारिया लॉरेंस कहती हैं, " जाति नाम हटाना जातीय अत्याचारों का समाधान नहीं है। असल में, नाम हटाने के बाद भी खासकर प्रभावशाली जातियों और उच्च जातियों द्वारा इन समुदायों को आसानी से पहचान लिया जाएगा। बल्कि, ऊंची जातियों के लोगों को अपने जातीय नामों पर शर्म और संकोच महसूस करना चाहिए। दलित जातिविहीन लोग हैं, और उनके समुदाय के नाम किसी भी तरह से अभद्र नहीं हैं।

साथ ही, ऊंची जातियों के लोग, जैसे त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि, अभी भी अपने जातीय नामों को बनाए रखते हैं, जबकि वे जाति आधारित काम नहीं करते। इसलिए हरियाणा सरकार का यह कहना कि यह अब प्रासंगिक नहीं है, तर्कसंगत नहीं है।

इसके विपरीत, अगर भंगी, मोची जैसे समुदायों के नाम हटा दिए जाते हैं, तो इन एससी समुदायों द्वारा की गई पहचान आधारित राजनीति का महत्व खत्म हो जाएगा। इसके अलावा, कोई भी कल्याण योजना या उप-वर्गीकरण इन समुदायों को नुकसान पहुंचाएगा।"

लारेंस आगे कहती हैं तकनीकी रूप से, जातीय प्रमाणपत्रों और अन्य प्रशासनिक प्रक्रियाओं में भी भारी परेशानी होगी। पहले से ही दलित समुदाय लालफीताशाही और जातीय नामों से जुड़े नियमों के कारण समस्याओं का सामना कर रहा है। यह स्थिति और खराब हो जाएगी, और उनका पूरा जीवन इसी के पीछे भागने में चला जाएगा।

इसके अलावा, अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत कार्रवाई और हिंसा/भेदभाव पर रोक लगाने में भी समस्या आएगी। नाम हटाने के बाद भी उनकी पहचान नहीं बदलेगी और जातीय हिंदू अन्य तरीकों से उन्हें ढूंढकर निशाना बनाएंगे। क्योंकि जातीय नाम हटाने से जातीय हिंदुओं का रवैया नहीं बदलेगा। लेकिन इससे कानूनी प्रक्रिया और चुनौतीपूर्ण हो जाएगी। फिर से, लालफीताशाही, कानूनी और न्यायिक बाधाएं खड़ी होंगी।

एससी सूची में शामिल समुदायों के जातीय नामों को हटाने से उनके अनुभव, इतिहास और संवैधानिक सुरक्षा का खतरा बढ़ जाएगा। यही कारण है कि संविधान ने छुआछूत को समाप्त किया है, लेकिन जाति को नहीं, क्योंकि एससी/एसटी की सुरक्षा और सकारात्मक कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए जाति को प्रबंधित करना जरूरी है।

इसलिए, हरियाणा सरकार का यह निर्णय बहुत खतरनाक है। यदि इसे लागू किया गया, तो इसे राष्ट्रीय स्तर पर भी लागू किया जाएगा, और यह देश में बड़ी अशांति पैदा करेगा।

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