भीलवाड़ा/तिरुवनंतपुरम- एक ऐसे दौर में जब देश के कई कोनों से साम्प्रदायिक तनाव और नफरत की खबरें सुनाई देती हैं, ऐसे में राजस्थान के भीलवाड़ा और केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से आई दो घटनाओं ने इंसानियत और भाईचारे की एक ऐसी मिसाल पेश की है, जो सोशल मीडिया पर "रियल इंडिया स्टोरी" के तौर पर वायरल हो रही है।
ये कहानियां हैं दो मुस्लिम युवकों की, जिन्होंने अपने धर्म की दीवारों से ऊपर उठकर अंतिम संस्कार जैसी संवेदनशील रस्म को हिंदू परंपरा के अनुसार निभाकर साबित कर दिया कि इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है।
राजस्थान के भीलवाड़ा में गांधीनगर के जंगी चौक की कहानी दिल को छू देने वाली है। 67 वर्षीय शांति देवी पिछले 15 साल से अकेली रह रही थीं। उनके तीन बेटियों और एक बेटे का 2018 से पहले ही निधन हो चुका था। महात्मा गांधी अस्पताल में इलाज के दौरान उनका निधन हो गया। उनके परिवार में अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं था। यह देखकर उनके पड़ोस में रहने वाले मुस्लिम युवक अजगर अली खान आगे आए। अजगर ने बताया कि वह बचपन से ही शांति देवी से मां जैसा प्यार पाते थे और उनका ख्याल रखते थे। ऐसे में उन्होंने उनका अंतिम संस्कार करने का फैसला लिया।
अजगर अली के साथ उनके साथी अशफाक कुरैशी, शाकिर पठान, फिरोज कुरैशी और मोहल्ले के कई अन्य मुस्लिम युवक भी इस नेक काम में शामिल हुए। सभी ने मिलकर शांति देवी की अर्थी को कंधा दिया और हिंदू रीति-रिवाज के अनुसार उनकी अंतिम यात्रा निकाली। श्मशान घाट पर भी उन्होंने पूरे विधि-विधान के साथ अंतिम संस्कार संपन्न कराया। इस भावुक दृश्य को देखकर मौजूद सभी लोगों की आंखें नम हो गईं। अजगर ने कहा कि वे शांति देवी की अस्थियों का विसर्जन त्रिवेणी संगम या मात्रकुंडिया में करेंगे।
इसी तरह की एक और हृदयस्पर्शी घटना केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में सामने आई। कडिनामकुलम ग्राम पंचायत के बेनेडिक्ट मेंनी साइको सोशल रिहैबिलिटेशन सेंटर में रह रही 44 वर्षीय राखी, जो छत्तीसगढ़ की मूल निवासी थीं, कैंसर से जूझ रही थीं। जब उनकी जिंदगी के आखिरी पल थे, तो उनकी एक ही इच्छा थी - उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाज से हो। लेकिन मानसिक बीमारी से उबर रही राखी अपने घर या रिश्तेदारों का पता नहीं बता पाईं।
शुक्रवार को उनके निधन के बाद, केंद्र चलाने वाली ईसाई ननों ने चित्तत्तुमुक्कू के पंचायत सदस्य टी. सफीर से संपर्क किया। एक प्रैक्टिसिंग मुस्लिम होने के बावजूद, सफीर ने दिवंगत के 'बेटे' की भूमिका निभाते हुए हिंदू रीति से अंतिम संस्कार करने का जिम्मा उठाया। सफीर ने द हिंदू को बताया, " महिला के रिश्तेदारों का पता लगाने के सभी प्रयास नाकाम रहे। जब कोई ऐसी इच्छा व्यक्त करता है, तो हमें वह सब कुछ करना चाहिए जो हम कर सकते हैं। मेरे धर्म ने मुझे एक इंसान के शरीर को, चाहे वह किसी करीबी रिश्तेदार का हो या किसी अजनबी का, अंतिम सम्मान देने की सीख दी है। चूंकि मैं अक्सर अपने वार्ड में सभी धर्मों के लोगों के अंतिम संस्कार और अन्य कार्यों में भाग लेता हूं, इसलिए मैं संपन्न की जाने वाली रस्मों से कुछ हद तक परिचित था। कझाकुट्टम श्मशान घाट के व्यक्ति ने भी मेरा मार्गदर्शन किया। इस काम में मेरे धर्म कोई बाधा नहीं बना। बल्कि, स्थानीय जमात के इमाम ने मेरी सराहना की। उन्होंने कहा कि यह सही काम था, मेरे धर्म ने मुझे एक इंसान के शरीर को, चाहे वह करीबी रिश्तेदार का हो या अजनबी का, अंतिम सम्मान देने की सीख दी है।"
दिलचस्प बात यह है कि यह सफीर का पहला ऐसा कार्य नहीं था। दो सप्ताह पहले, जब पुनर्वास केंद्र की एक अन्य महिला का निधन हुआ था, तो उन्होंने उनका भी हिंदू रीति से अंतिम संस्कार किया था। सफीर के इस कदम की स्थानीय जमात के इमाम ने भी सराहना की।
ये दोनों घटनाएं, देश के दो अलग-अलग कोनों (उत्तर-पश्चिम और दक्षिण) से आई हैं, लेकिन इनका संदेश एक है - धर्म से ऊपर उठकर इंसानियत की जीत। एक ऐसे वक्त में जब divisive राजनीति और साम्प्रदायिक घृणा के नैरेटिव हावी हैं, अजगर अली और सफीर जैसे लोग हमें याद दिलाते हैं कि भारत की सच्ची ताकत उसकी साझा संस्कृति और आपसी भाईचारे में निहित है।
ये किस्से सिर्फ खबरें नहीं हैं, बल्कि ये उस भारत की मिसाल हैं जहाँ रिश्ते धर्म की सीमाओं में बंधकर नहीं, बल्कि दिलों की गहराई से बनते हैं। सोशल मीडिया पर इन्हें रियल इंडिया स्टोरी और '#HumanityFirst' के तहत शेयर किया जा रहा है, जो नफरत की राजनीति के खिलाफ एक सकारात्मक संदेश देता है। यही है भारत की सच्ची आत्मा, यही है उसकी वास्तविक पहचान।
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