
नई दिल्ली- भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में पांच साल जेल में बिताकर हाल ही बेल पर बाहर आये दिल्ली यूनिवर्सिटी पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर और प्रमुख दलित कार्यकर्ता हनी बाबू एम.टी. ने जेलों में मुस्लिम और दलित कैदियों के दमन की सच्चाई उजागर की है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे हनी बाबू ने मुंबई के तलोजा जेल में गुजारे पांच लंबे सालों के अपने दर्दभरे अनुभवों से पर्दा उठाया है। वे 28 जुलाई 2020 को गिरफ्तार हुए थे और हाल ही 4 दिसंबर को जमानत के बाद बाहर आये हैं, उन्होंने जेल की क्रूरता, वर्ग-जाति की अमानवीय दीवारों और धार्मिक एकजुटता की ताकत को बयां किया।
फ्रंटलाइन पत्रिका के वरिष्ठ पत्रकार अजाज़ अशरफ को दिए विशेष इंटरव्यू में हनी बाबू ने खुलासा किया कि कैसे जेलों में मुसलमानों और दलितों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात से कहीं ज्यादा है- यह राज्य की दमनकारी नीतियों का स्पष्ट प्रमाण है। पांच साल के जेल प्रवास के दौरान एक बार ईद की नमाज में 1,500 कैदियों की भीड़ देखकर उन्हें एहसास हुआ कि "राज्य इन्हें बदनाम करके कैद में दमन करता है।" यह न सिर्फ व्यक्तिगत पीड़ा की कहानी है, बल्कि पूरे सिस्टम की गहरी असमानता का आईना है।
हनी बाबू का कहना है कि जेल में वर्ग-जाति की दीवारें टूटने के बजाय और मजबूत हो जाती हैं, लेकिन मुसलमान कैदियों की धार्मिकता और एकजुटता ने उन्हें ताकत दी।
वे बताते हैं कि तलोजा जेल में मध्यम वर्ग के कैदी खासकर ऊपरी जातियों के, को 'वीआईपी बैरक' और विशेष सुविधाएं मिलती हैं। "मध्यम वर्ग का व्यक्ति प्रवेश द्वार पर ही विशेष व्यवहार पाता है, उसे पैंट उतारकर स्क्वाट करने या चिल्लाने की हद तक अपमानित नहीं किया जाता।" लेकिन दलित और मुसलमान कैदी, जो जेल आबादी का बड़ा हिस्सा हैं, इन सुविधाओं से वंचित रहते हैं। जेल में 35 फीसदी मुसलमान कैदी थे, जो धार्मिक थे। "हमने साथ नमाज पढ़ी, रमजान में रोजा रखा। यह मुझे समुदाय से जोड़ता था, ताकत देता था।" ईद के जश्न में 1,500 कैदियों की भीड़ देखकर उन्हें एहसास हुआ कि "राज्य मुसलमानों को डेमोनाइज और कैद करके दबाता है, दलितों के साथ भी यही होता है। देश की आबादी में इन समुदायों के हिस्से के अनुपात में जेलों में उनकी संख्या अधिक है, जो राज्य की दमनकारी नीतियों का आईना है।"
जेल में अवसाद की सीमा पर पहुंचने वाले हनी बाबू ने 2021 की कोविड महामारी के दौरान आंखों के गंभीर संक्रमण से जूझते हुए मौत का अहसास किया। वे कहते हैं, "मैं अस्पताल ले जाए जाने से पहले यकीन कर रहा था कि मर जाऊंगा।" 2023 में वर्नन गोंजाल्वेस और अरुण फेरिरा को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने पर उम्मीद जगी, लेकिन दो साल इंतजार हुआ। जनवरी 2025 में रोना विल्सन और सुधीर धावले की रिहाई के बाद भी उनकी बारी नहीं आई।आशा और निराशा के बीच झूलता रहा। जेल में रहना अर्थहीन लगने लगा।" मार्क्स के 'धर्म अफीम है' वाले कथन को वे दवा के रूप में देखते हैं जो राहत, सांत्वना और ताकत देता है।
डॉ. हनी बाबू की पत्नी जेनी रोवेना ने उनके पति की जमानत दिए जाने पर मकतूब मीडिया को कहा था, “मुझे खुशी भी है और गुस्सा और दुख भी कि एक निर्दोष प्रोफेसर को बिना किसी मुकदमे के पांच साल और चार महीने जेल में बिताने पड़े, सिर्फ इसलिए कि वे सामाजिक रूप से जागरूक थे और जिस विश्वविद्यालय में वे कार्यरत थे, उसके भले के लिए काम कर रहे थे।"
हनी बाबू एक बेहद लोकप्रिय शिक्षक थे। जेल में अपने पहले जन्मदिन पर उन्हें अपने छात्रों से 250 से अधिक पत्र मिले। जातिवाद-विरोधी कार्यकर्ता के रूप में हनी बाबू ने कैंपस में दलितों की मुखर आवाज़ों को बुलंद करने में विशेष रुचि दिखाई और शुरू से ही उनका पोषण किया।
केरल के इस ओबीसी मुस्लिम पीएचडी भाषाविद् और अंबेडकरवादी प्रोफेसर ने एक बार "सर्वश्रेष्ठ युवा भाषाविद्" पुरस्कार जीता था; प्रोफेसर हनी बाबू ने जर्मनी के प्रतिष्ठित जेना विश्वविद्यालय से अपनी फेलोशिप पूरी की और बाद में कॉन्स्टान्ज़ विश्वविद्यालय में शोध सहायक के रूप में कार्य किया। वे विदेश में एक स्थिर जीवन व्यतीत कर सकते थे, लेकिन उन्होंने 2002 में भारत लौटने का विकल्प चुना। उन्होंने ईएफएलयू में प्रोफेसर के रूप में कार्यभार संभाला और फिर 2008 में दिल्ली विश्वविद्यालय में शामिल हुए। उनका एकमात्र मिशन एक समतावादी परिसर का निर्माण करना था।
यहां उन्होंने शिक्षक संघ - "सामाजिक न्याय का अकादमिक मंच" की स्थापना की। आरटीआई के माध्यम से उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के 30 कॉलेजों से डेटा एकत्र किया और दिल्ली विश्वविद्यालय में चल रहे 'आरक्षित सीटों की बिक्री घोटाले' का पर्दाफाश किया। वे उन कार्यकर्ताओं में से एक थे जिन्होंने विश्वविद्यालय में आरक्षण को पूरी तरह से लागू करवाने के लिए काम किया।
जब व्हीलचेयर पर बैठे प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा को दिल्ली से गिरफ्तार कर माओवादी आरोपों में नागपुर की जेल में डाल दिया गया, तो शिक्षकों ने शुरू में उनसे मिलने की योजना बनाई। लेकिन प्रोफेसर हनी को छोड़कर सभी ने एक-एक करके अपना इरादा बदल दिया। वे अकेले अपने खर्च पर अस्पताल में बीमार प्रोफेसर से मिलने नागपुर गए।
2018 का भीमा कोरेगांव मामला कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों पर व्यापक कार्रवाई में तब्दील हो गया। हानी बाबू एल्गर परिषद की बैठक का हिस्सा नहीं थे और न ही उससे उनका कोई संबंध था। 2018 में भी कहीं उनका नाम नहीं लिया गया था। दिलचस्प बात यह है कि 2018 में आर्थिक तंगी के कारण हनी बाबू के पास कोई कंप्यूटर नहीं था। उनके आवास पर पहली छापेमारी 10 सितंबर 2019 तड़के हुई, जब परिवार सो रहा था। तब उनके पास से एक कंप्यूटर जब्त किया गया।
हनी ने बताया कि जब उन्होंने तलाशी वारंट मांगा, तो पुलिस ने कहा कि उनके पास वारंट नहीं है। बाद में वह डॉ. साईबाबा के कानूनी बचाव पक्ष का हिस्सा बने। फिर जुलाई 2020 में, कोविड-19 के दौरान, एक दिन जब वह अपनी पत्नी के साथ दोपहर का खाना बना रहे थे, तभी सादे कपड़ों में दो पुलिसकर्मी एनआईए का समन लेकर आए - हनी को मुंबई कार्यालय में पेश होने के लिए कहा गया था। हनी ने सिर्फ अपना फोन चार्जर और पर्स लिया, कोई बैग भी नहीं लिया और उनके साथ चले गए। उनकी पत्नी इंतजार करती रहीं।
मुंबई में एनआईए ने उनसे लगातार पांच दिनों तक दिन में पूछताछ की और रात में वे होटल में ठहरते थे। हर रात वे अपने परिवार को फोन करते थे। चौथी रात उन्होंने फोन किया और कहा कि वे अगले दिन वापस आ जाएंगे। उन्होंने अपनी पत्नी जेनी को बिरयानी बनाने के लिए कहा। लेकिन वे वापस नहीं लौटे।
अगले दिन जेनी को एनआईए कार्यालय से फोन आया कि प्रोफेसर हनी को गिरफ्तार कर लिया गया है। उनके कंप्यूटर से लगभग 62 दस्तावेज़ मिले हैं जो इस बात का सबूत हैं कि प्रोफेसर एक कुख्यात माओवादी हैं! जब हनी बाबू ने बताया कि उन्होंने ये दस्तावेज़ न तो देखे हैं और न ही बनाए हैं, तो उनसे किसी का भी नाम लेने को कहा गया। प्रोफेसर हनी फूट-फूटकर रोने लगे। अधिकारियों ने उनसे पूछा कि क्या रोना विल्सन (भीमा कोरेगांव हत्याकांड की एक अन्य आरोपी) की सचिव ने उनका कंप्यूटर इस्तेमाल किया था। उनका मानना था कि विल्सन की सचिव कोई छात्र कार्यकर्ता ही थी। वे हनी से किसी को फंसाना चाहते थे। लेकिन हनीअपनी बात पर अडिग रहे और कभी पीछे नहीं हटे। ( सोर्स: अम्बेडकरवादी विचारक राहुल @RahulSeeker की पोस्ट से प्राप्त जानकारी)
भीमा कोरेगांव मामला 1 जनवरी 2018 को महाराष्ट्र के पुणे जिले के भिमा कोरेगांव में हुई हिंसा से जुड़ा है, जहां 1818 की भीमा-कोरेगांव की लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए दलित समुदाय इकट्ठा हुआ था। इस लड़ाई में ब्रिटिश सेना के दलित सैनिकों ने पेशवा शासन की उच्च जाति की सेना को हराया था, जो दलितों के लिए प्रतीकात्मक जीत का प्रतीक है। 31 दिसंबर 2017 को एलगार परिषद कार्यक्रम के बाद 1 जनवरी को हिंसा भड़की, जिसमें एक युवक की मौत और 35 से अधिक लोग घायल हुए।
पुणे पुलिस ने इसे माओवादी संगठन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) से जोड़ते हुए 16 कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार रक्षकों को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया। आरोप थे कि उन्होंने हिंसा भड़काई और प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रची। जांच में कथित तौर पर सबूत गढ़े जाने के दावे हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के बाद कई आरोपी जमानत पर रिहा हो चुके हैं, लेकिन मामला राज्य की दमनकारी कार्रवाई का प्रतीक बना हुआ है।
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