झारखण्ड: कौन है तरुण कुमार, जिनको मिली है पैडमैन की उपाधि

अभी भी माहवारी को लेकर कई गलत धारणाएं हैं। महिलाएं व बच्चियां सेनेटरी नैपकिन के बारे में नहीं जानती या उनका इस्तेमाल करना नहीं चाहती हैं। ऐसे में तरुण लोगों महिलाओं व बच्चियों के बीच जागरूकता बढ़ाने का काम भी कर रहे हैं।
तरुण कुमार को पैडमैन के रूप में मिली पहचान।
तरुण कुमार को पैडमैन के रूप में मिली पहचान।

आप ने पैडमैन फिल्म जरूर देखी होगी। उसमें कैसे एक पति माहवारी के बारे में अपनी पत्नी को समझाता है। हमारे देश में माहवारी को लेकर शहरों में तो थोड़े बदलाव आए हैं, लेकिन अभी भी पता नहीं ऐसे कितने गांव हैं, जो माहवारी को लेकर अभी तक भी बात करना पसंद नहीं करते। अभी भी माहवारी को लेकर पता नहीं कितनी गलत धारणाएं हैं। अभी भी वहां की महिलाएं व बच्चियां सेनेटरी नैपकिन के बारे में नहीं जानती या उनका इस्तेमाल करना नहीं चाहती हैं। वह अभी भी कपड़े को ही प्राथमिकता देती है। उनको अभी पता ही नहीं है, कि कपड़े का इस्तेमाल कितनी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा करता है। गांव की उन महिलाओं के लिए बहुत जरूरी है। माहवारी स्वच्छता के बारे में जानना। बहुत ही कम लोग हैं जो इन समस्याओं के लिए कदम उठाते हैं, उनमें से एक नाम है तरुण कुमार का है।

तरुण एक सामाजिक कार्यकर्ता है जो 13 सालों से भी ज्यादा समय से झारखंड के ग्रामीण इलाकों में बच्चों युवाओं के मुद्दे ग्रामीण विकास एवं संबंधित मुद्दों पर काम करते हैं। इन दिनों वह झारखंड के पैडमैन के नाम से जाने जाते हैं। उन्हें जमशेदपुर अक्षेस के द्वारा शहर के स्वच्छ्ता ब्रांड एम्बेसडर के तौर पर भी मनोनीत किया गया है। बच्चों के साथ बेहद भावनात्मक जुड़ाव महसूस करने वाले तरुण कुमार सामाजिक संस्था निश्चय फाउंडेशन, झारखंड के संस्थापक है। तरुण संस्था के माध्यम से माहवारी स्वास्थ्य, शिक्षा, बाल अधिकार, लैंगिक समानता, पर्यावरण, खेल, युवा क्षमता विकास, बच्चों में रचनात्मकता बढ़ाने जैसे बुनियादी ग्रामीण मुद्दों पर जनभागीदारी से काम करते है।

द मूकनायक ने तरुण से बातचीत की। तरुण ने कहा, "हम लोग सामाजिक कार्यकर्ता हैं। समाज के विभिन्न मुद्दों के लिए कुछ ना कुछ करते रहते हैं। मेरा जन्म जमशेदपुर में ही हुआ है। घर में पढ़ाई का माहौल बहुत अच्छा था। मेरे पापा ने जीवन के हर फैसले में मेरी सहायता की है।"

वह बताते हैं कि जमशेदपुर ज्यादातर ट्राइबल ही रहते हैं। यहां के लोगों में बुनियादी शिक्षा की थोड़ी कमी नजर आती है, लेकिन हम लोगों को पता नहीं चला कि उनमें बुनियादी शिक्षा की कमी है। यह समझने के लिए हमें दो-तीन साल लग गए, फिर हमने जानने की कोशिश की।

यह बात 2009 के आस-पास की है। मैं अपने सामाजिक काम की वजह से गांव-गांव जाने लगा था। इस समय बच्चों की पढ़ाई, बाल मजदूरी, बाल विवाह आदि के प्रति गांव के सभी लोगों को जागरूक करता था। उनको समझाता था कि आपको अपनी पढ़ाई जारी रखनी है।

इन्हीं चीजों के साथ हमारा अभियान चलता रहा। हम गांव जाते थे। कुछ संगठनों के साथ भी काम करते थे। 2014 में एक बार हम सब बच्चों के साथ बात कर रहे थे। किस्से, कहानियों की बातें हो रही थीं। एक बच्ची अचानक उठ कर चले गई। किसी बच्ची ने मेरे कान में आकर मुझे बताया कि उसको पीरियड्स हुए है। उसे समय मैंने सोचा कि हम समाज के इतने सारे चीजों को लेकर कम कर रहे हैं। हमें माहवारी को लेकर भी जागरूकता फैलानी चाहिए। क्योंकि वह बच्ची माहवारी के बारे में बात ही नहीं करना चाहती थी। गांव की बच्चियों को माहवारी की जानकारी ही नहीं दी जाती है। उनको पता ही नहीं होता है कि आखिर माहवारी होती क्या है? वह अपने मन में पता नहीं कैसी-कैसी बातें बना लेती हैं। क्योंकि उनके खुद के मां-बाप भी इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते और उन्हें अपने बच्चों से बात करने में शर्म आती है। उनकी माताएं ही उनसे माहवारी को लेकर ज्यादा बात नहीं करती।

मेरे मन में यह आया कि इस पर एक अभियान चलाना चाहिए। फिर हमने इसको लेकर बहुत सारी महिलाओं से बात की। बहुत सारी बच्चियों से बात करना शुरू किया।

लड़का-लड़की एक समान, समझने की जरूरत

तरुण कुमार आगे बताते हैं कि हमारे समाज में आजकल यह बात बहुत हो रही है कि लड़का लड़की एक समान है। परंतु यह सिर्फ कहने से नहीं होगा। इसको समझाना भी होगा। मैंने अभियान के दौरान बच्चियों से बात करना शुरू किया सीधी से तो हम माहवारी के बारे में बात भी नहीं कर पा रहे थे। गांव की बच्चियों को तो छोड़िए, कोई बड़ा भी इस बारे में बात नहीं करना चाहता था। हमारे लिए माहवारी की बात करना बहुत ही मुश्किल होता जा रहा था। बहुत समय के बाद लोग हमारी बातों को समझने लगे। लोगों से बात करना थोड़ा मुश्किल था। इसलिए हमने विद्यालय, ग्राम पंचायत में जाकर महिलाओं और बच्चियों से बात की। हमने सभी से बात की चाहे वह लड़का हो या लड़की। सबको माहवारी के बारे में और इससे संबंधित स्वच्छता के बारे में जानकारी दी।

सेनेटरी नैपकिन की कमी है

वह आगे कहते हैं कि जानकारी के साथ-साथ बहुत सारी चीज और भी होती हैं जो हमें लोगों को समझानी होती है। स्कूलों में बच्चों के पास सेनेटरी पैड बहुत कम होते हैं। क्योंकि सरकार की तरफ से पैड किस समय पर आएंगे? कब आएंगे? कुछ पता नहीं होता। सरकार की तरफ से भेजे गए पैड कभी भी समय पर स्कूल नहीं पहुंचे हैं। इसके लिए हमने सरकारी विद्यालयों में पैडबैंक की स्थापना की। उस पैडबैंक 100 पैड होते थे। धीरे-धीरे अब आस-पास के समाज में भी बच्चियों पीरियड्स को लेकर बात करने लगी और सभी लोग भी जागरूक होने लगे। इसके बाद कोविड आ गया। सारी चीजें बंद रहने लगी। बच्चियों के गांव से फोन आने लगा कि भैया नैपकिन नहीं मिल पा रहा है। क्योंकि हमने ही इन लोगों को सिखाया था कि नैपकिन का इस्तेमाल करना चाहिए। फिर हम कोविड के समय ही बच्चों को गांव में नैपकिन पहुंचाने का प्रयास करने लगे। इसके बाद यह ख्याल भी आया कि बच्चियां उपयोग करके इनको कहां फेंकेगी। गांव में अभी भी बहुत सी ऐसी धारणाएं हैं जो इन बच्चियों और महिलाओं को डरा देती है। जैसे कि पैड को छूते नहीं है, पैड को जलाते नहीं है, वरना बच्चे नहीं होते और भी बहुत कुछ कहा जाता है। फिर हमने एक देशी कुछ बनाया जिसमें पैड को रखकर छोड़ देते हैं। फिर थोड़े समय बाद मिट्टी में मिला देते हैं। बहुत सारे लोगों ने इसको बनवाया भी इस तरह लोगों में जागरूकता भी आई।

तरुण आगे बताते हैं कि अभी तक हम 100 से ज्यादा स्कूलों में काम कर रहे हैं। अब लड़कियां पीरियड्स के दौरान पेड़ भी लगती हैं, क्योंकि हमने उनको समझाया है कि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए पेड़ लगाना बहुत जरूरी है। इसलिए वह हर महीने पेड़ लगाती हैं। 2 सालों में अब तक 20 हजार पेड़ बच्चियां लगा चुकी हैं। हम प्रोजेक्ट पैड ह्यूमन, एक पैड, एक पेड़ अभियान के माध्यम से माहवारी स्वच्छता, समाज में लैंगिक समानता, पर्यावरण के प्रति जागरूकता ला रहे है। इससे लड़के-लड़कियां दोनों ही जागरूक होते हैं। बहुत से लड़के-लड़कियां इस अभियान में साथ हैं।

आर्थिक समस्या का भी करना पड़ता है सामना

आगे वह कहते हैं कि हमें कुछ समय आर्थिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। क्योंकि इतनी बड़े अभियान को चलाने में पैसों की जरूरत तो पड़ती है। पर इरादे मजबूत है तो आर्थिक समस्याएं भी जल्दी ही ठीक हो जाती है। बाकी हम हमेशा समाज के लिए समाज के सुधार के लिए महिलाओं के लिए बच्चों के लिए कार्य करते रहेंगे।

तरुण अपने कार्यों से अपने वर्तमान जीवनकाल में विभिन्न अभियानों के माध्यम से ग्रामीण इलाकों में रह रहे झारखंड के लगभग 1 लाख बच्चों तक पहुंचे है, वह आगे ग्रामीण इलाकों में रह रहे लगभग 5 लाख बच्चों को अपनी सेवाओं के माध्यम से प्रेरित करने का लक्ष्य रखते हैं।

तरुण सामाजिक कार्यों सहित साहित्य, कला, संस्कृति, भूगोल, सामुदायिक पत्रकारिता, फोटोग्राफी, अनुवाद, डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माण व लेखन में गहरी रुचि रखते है। वे माहवारी स्वच्छता, महिला स्वास्थ्य, रचनात्मक लेखन, बाल अधिकार बच्चों से जुड़े मुद्दे, युवा क्षमता विकास, सामुदायिक कार्यों में तकनीक, कम्युनिटी पत्रकारिता, डिजिटल मीडिया जागरूकता, स्वच्छता एवं कचरा प्रबंधन एवं अन्य संबंधित क्षेत्रों में स्वतंत्र प्रशिक्षक की भूमिका निभाने का भी अनुभव रखते हैं।

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