मणिपुर हिंसा ग्राउंड रिपोर्ट: रिलीफ कैंपों के कम स्पेस में करवटों में दिन गुजारती गर्भवती महिलाएं, नवजातों की जिंदगियां दांव पर

मणिपुर हिंसा के 3 माह बीत चुके हैं। रिलीफ कैम्पस में हजारों की तादाद में लोग स्वयं और परिवार के भविष्य को लेकर आशंकाओं के बीच दिन गुजार रहे हैं। सबसे दयनीय स्थिति यहां रहने वाली नव प्रसूताओं और गर्भवती महिलाओं की हैं। माता पिता बनना किसी भी युगल के लिए सबसे बड़ी खुशी का मौका होता है लेकिन मणिपुर के रिलीफ कैम्पस में रहने वाले युगलों के लिए यह दौर बहुत कठिन है।
YVA (Young Vaiphei Association) रिलीफ कैम्प में रहने वाली लामवाह तोउथांग (Lamvah Touthang) के पास बच्चे को पिलाने के लिए दूध, पहनाने के लिए कपड़े और दवाई खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं.
YVA (Young Vaiphei Association) रिलीफ कैम्प में रहने वाली लामवाह तोउथांग (Lamvah Touthang) के पास बच्चे को पिलाने के लिए दूध, पहनाने के लिए कपड़े और दवाई खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक
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इम्फाल। भारत के पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में हिंसा के लगभग 3 महीने बाद भी पहाड़ी में बसे मैतेई समुदाय (Meitei Community) और घाटी में बसे कुकी समुदाय (Kuki Community) अपने टूटे, जले घरों को छोड़कर अपने समुदाय बाहुल्य जगहों पर रिलीफ कैम्पस में जान बचाने के लिए मजबूर हैं.

प्रसव के बाद दो-तीन सप्ताह तक लगातार ब्लीडिंग के चलते बार बार सेनिटरी पैड बदलने की जरूरत, नवजातों को स्तनपान करवाने के लिए प्राइवेट स्पेस नहीं होना, गर्भकाल में मन मिचलाने और मॉर्निंग सिकनेस का सामना करती इन महिलाओं की ना तो कोई शारीरिक पीड़ा समझने वाला कोई है ना ही इनकी मानसिक वेदना का कोई थाह ले पा रहा है। गर्भिणी के लिए सबसे बड़ा संबल उसका पति होता है लेकिन इन रिलीफ कैम्पस में पति-पिता बनने की सुखद अनुभूति कर पाना मुश्किल है। इन्हें चिंता है आज अगर कुछ काम ना मिले तो पत्नी की दवाई, बच्चे का डायपर-दूध बिस्कुट भी कैसे ला पाएंगे? 

राजधानी इम्फाल से 63 किमी दूर जनजातीय बाहुल्य पहाड़ी क्षेत्र में बसा चुराचांदपुर (Churachandpur) जिला वही स्थान है जहां कुकी जनजाति के सबसे ज्यादा लोग संगठित रूप से रह रहे हैं. वैसे तो यहां कई जनजातियां निवास कर रहीं हैं लेकिन 3 मई से शुरू हुए बहुसंख्यक मैतेई और अल्पसंख्यक कुकी के बीच हिंसक झड़प के बाद से पहाड़ी में बसी अन्य जनजातियों को भी कुकी बताने का नैरेटिव पूरे मणिपुर में देखा जा सकता है. 

YVA (Young Vaiphei Association) की ओर से चुराचांदपुर जिले में खोला गया रिलीफ कैम्प
YVA (Young Vaiphei Association) की ओर से चुराचांदपुर जिले में खोला गया रिलीफ कैम्पफोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

चुराचांदपुर आईबी रोड जिला अस्पताल चुराचांदपुर (IB Road District Hospital Churachandpur) के पास YVA (Young Vaiphei Association) की ओर से एक पुराने स्कूल के भवन में बनाए गए रिलीफ कैम्प के वालंटियर जैरी (Zerry) 35, ने द मूकनायक को बताया कि हिंसा की घटना के बाद पूरे चुराचांदपुर जिले में लगभग 100 से ज्यादा रिलीफ कैम्प बनाए गए हैं. जैरी दिल्ली के सेलेक्ट सिटी मॉल में काम करते हैं और इस साल मार्च में अपने घर आए थे उसके बाद हिंसा की घटना हो गई. फिर वह पुनः काम पर नहीं लौट पाए. 

33 वर्षीया लामवाह तोउथांग थोड़ी असहज हैं। बच्चे को फीड करना है लेकिन जाए कहां? लामवाह बच्चे को थपकियां देते हुए इधर-उधर घूमती हैं, उसकी नजरें एक शांत कोने की खोज में है, एक रूम में आखिर उसे एक छोटा सा कोना दिख जाता है जहां ज्यादा लोग नहीं हैं। सकुचाती हुई लामवाह वह कोना पकड़ लेती हैं, अपने 2 माह के बिलखते नवजात को आँचल में छिपा कर उसको स्तनपान करवाती हैं।

रिलीफ कैम्प में रहने वाली लामवाह तोउथांग (Lamvah Touthang) 33, जिस दिन रिलीफ कैम्प में आई उसके दूसरे दिन 31 मई को उसने एक बच्ची को जन्म दिया था, बच्ची अब दो माह की हो चुकी है. मई में शुरू हुए हिंसा में लामवाह का घर जला दिया गया. उस समय लामवाह का प्रसव नजदीक था, किसी तरह वह अपने पेट में पल रहे बच्चे और पति के साथ जान बचाकर भागी। जंगलों के रास्ते होते हुए वह एक महीने बाद इस रिलीफ कैम्प में पहुंची। 

लामवाह तोउथांग रिलीफ कैम्प में अपनी समस्याओं को लेकर मानसिक तनाव से गुजर रही हैं.
लामवाह तोउथांग रिलीफ कैम्प में अपनी समस्याओं को लेकर मानसिक तनाव से गुजर रही हैं.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

लामवाह और उसके पति जब जान बचाकर घर से भागे तब उनके पास न पैसे थे न कपड़े। उनके साथ उनके अपने शरीर के कपड़ों के अलावा कुछ भी नहीं था. 

लामवाह तोउथांग द मूकनायक को बताती है कि, “बच्चे को पिलाने के लिए दूध, पहनाने के लिए डायपर, दवाई की व्यवस्था करने के लिए पति रोज सुबह काम की तलाश में रिलीफ कैम्प से निकल जाते हैं. लेकिन ऐसी सिचुएशन में कहीं काम ही नहीं है”.

लामवाह तोउथांग अपने बच्चे को दवाई पिलाते हुए
लामवाह तोउथांग अपने बच्चे को दवाई पिलाते हुएफोटो- सत्य प्रकाश भारती, द मूकनायक

वह आगे बताती है, “चंदेल जिले के उतांगपोकपी गाँव के पास हिंसा शुरू हो गई थी. लोगों को गोलियां मारकर उनके घर जला दिए जा रहे थे. यह देखकर हम लोगों ने भी जान बचाने के लिए अपना घर छोड़कर जंगल के रास्ते यहां तक पहुंचे। कैम्प में आने के दूसरे दिन चुराचांदपुर जिला अस्पताल में बेटी पैदा हुई. जब घर से भागी तब हमारे पास एक भी कपड़ा नहीं था. बेटी के पैदा होने के बाद उसे साफ स्वच्छ कपड़े में रखने के लिए भी हमारे पास कपड़े नहीं थे. वह अब 2 महीने की हो गई है, उसे नहलाने के लिए पानी गर्म करने की व्यवस्था चाहिए, पहनाने के लिए कपड़े चाहिए, उसकी दवाई चाहिए। लेकिन पैसे नहीं हैं. जब से हिंसा शुरू हुई तब से पति के पास कोई काम भी नहीं है.”

लामवाह तोउथांग को अपने बच्चे के लिए दवाई रिलीफ कैम्प की ओर से मिली हैं. उसके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह दवाइयां खरीद सके.
लामवाह तोउथांग को अपने बच्चे के लिए दवाई रिलीफ कैम्प की ओर से मिली हैं. उसके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह दवाइयां खरीद सके.फोटो- सत्य प्रकाश भारती, द मूकनायक

“बच्चे को क्या खिलाएंगे, क्या पहनाएंगे, कैसा भविष्य होगा, यहां बैठकर सोचते हुए मेरी बीपी (ब्लड प्रेसर) लो हो जाता है. डॉक्टर को कई बार मैंने चेक कराया. बच्चा होने के बाद माँ को प्रोटीन युक्त भोजन चाहिए होता है, लेकिन मेरे पास कुछ भी नहीं है. इन मानसिक पीड़ाओं के लिए हमारे पास कोई उपाय नहीं है. हम सेन्ट्रल गवर्नमेंट से मांग करते हैं कि हमें ‘सेप्रेट एडमिनिस्ट्रेशन’ मिले ताकि हमें शांति मिले, हम अपनी सामान्य स्थिति में लौट सकें”, लामवाह तोउथांग ने हताशा भरे स्वर में कहा.

लामवाह आरोप लगाती हैं कि मैतेई रिलीफ कैम्पों में रहने वाले मैतेई समुदाय के लोगों को केंद्र सरकार सुविधाएं दे रही है, दवाईयां दे रही है, खाना दे रही है लेकिन कुकी समुदाय के रिलीफ कैम्पों को अनदेखा किया जा रहा है. “मैतेई लोगों को केंद्र सरकार से रिलीफ कैम्पों में खाने के लिए, और दूसरी जरुरी चीजें मिल रहीं हैं. वहां सरकार की ओर से लोगों को रोजाना चीजें बांटी जा रही हैं. लेकिन यहां कुछ भी नहीं मिल रहा है. बच्चे के लिए दूध, दवाई, खाने के लिए अनाज की कमी है. हम केंद्र सरकार और राज्य सरकार से मांग करते हैं कि हमें भी दवाई और भोजन दिया जाए.”

YVA की ओर से खोले गए इसी राहत शिविर में ल्हिंग्खोतिन (Lhingkhotin) 25, जो 6 माह की गर्भवती हैं, रह रहीं हैं. वह 17 मई को अपने परिवार के 2 सदस्यों और अपने 3 साल के बेटे के साथ उतांगपोकपी (Utangpokpi) गाँव से इस रिलीफ कैम्प में पहुंची थी. ल्हिंग्खोतिन के पति चेन्नई में हैं जो दिहाड़ी मजदूरी करते हैं.

ल्हिंग्खोतिन हिंसा के बाद जब अपना घर छोड़ कर आई तब से अभी तक उसके साथ उसके पति नहीं हैं, एक गर्वभवती माँ के रूप में वह कई मुसीबतों को झेल रही हैं.
ल्हिंग्खोतिन हिंसा के बाद जब अपना घर छोड़ कर आई तब से अभी तक उसके साथ उसके पति नहीं हैं, एक गर्वभवती माँ के रूप में वह कई मुसीबतों को झेल रही हैं.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

एक गर्भवती माँ के रूप में रिलीफ कैम्प में खाने और दवाई की उपलब्धता के द मूकनायक के सवाल पर ल्हिंग्खोतिन ने बताया कि, “यहां खाने में दाल-चावल के अलावा कुछ नहीं मिलता. दूसरी अन्य चीजें खरीदने के लिए पैसा चाहिए जो कि नहीं हैं. यहां कैम्प में जो मिल रहा है, जिन्दा रहने के लिए यह खाना पड़ रहा है”.

वह आगे बताती हैं, “बुखार होने पर कभी-कभी पैरासिटामोल, बिटामिन की दवाइयां रिलीफ कैम्प की तरफ से मिल जाती है, लेकिन रिलीफ कैम्प के पास उतना पर्याप्त पैसा नहीं है जितना हमें उचित मात्रा में दवाइयां दे सकें. इम्फाल से चुराचांदपुर के बीच रोड के सारे चेन ब्लॉक हैं. कुछ भी खाने-पीने की चीजें बाहर से नहीं आ रही हैं. यहां थोड़ा बहुत जो कुछ भी आ रहा है वह मिजोरम से आ रहा है. यहां जो चीजें मिल रहीं हैं वह भी महंगी हैं. बैलेंस डाइट के लिए चीजें मार्केट से मिलती हैं, लेकिन खरीदने के लिए पैसे चाहिए न….! हमें कौन देगा?”.

“हमारे पास कोई चारा नहीं है. हम बुलेट से मरें या भूख से”, ल्हिंग्खोतिन ने द मूकनायक से असहज भाव में अपने स्थानीय भाषा में कहा, “मीडिया कह रहा है कि यह जातीय हिंसा था लेकिन हम मानते हैं कि यह ‘स्टेट स्पोंसर्ड एथनिक ऑन ट्राइबल’ था. हमारे घर जला दिए गए थे, हम जान बचाने जंगल में भागकर चले गए. फिर वहां से भागकर रिलीफ कैम्प में आये”.

क्रिस्टी (Christy) रिलीफ कैम्प में एक वालंटियर हैं. उन्होंने बताया कि रिलीफ कैम्प को चलाने के लिए अधिकांश सहयोग चर्च द्वारा मिल रही है. मणिपुर सरकार की ओर से सहयोग नहीं मिल रहा है.
क्रिस्टी (Christy) रिलीफ कैम्प में एक वालंटियर हैं. उन्होंने बताया कि रिलीफ कैम्प को चलाने के लिए अधिकांश सहयोग चर्च द्वारा मिल रही है. मणिपुर सरकार की ओर से सहयोग नहीं मिल रहा है.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

YVA के इस रिलीफ कैम्प की क्रिस्टी (Christy) 30, ने द मूकनायक को बताया कि रिलीफ कैम्प को चलाने के लिए 90 प्रतिशत पैसे चर्च द्वारा दिए जा रहे हैं. “सरकार मदद नहीं कर रही है. हम आखिर कब तक ऐसे सर्वाइव कर पाएंगे”, क्रिस्टी ने कहा. 

हाईस्कूल को रेंगकाई रिलीफ कैम्प (Rengkai Relief Camp) बना दिया गया है, जिसमें बड़ी संख्या में विस्थापित हैं.
हाईस्कूल को रेंगकाई रिलीफ कैम्प (Rengkai Relief Camp) बना दिया गया है, जिसमें बड़ी संख्या में विस्थापित हैं.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

चुराचांदपुर जिले में स्थित एक अन्य रिलीफ कैम्प में द मूकनायक ने पड़ताल की. जिले में स्थित रेंगकाई सबसे अधिक आबादी वाले शहर में से एक है। यहां एक हाईस्कूल परिसर को रेंगकाई रिलीफ कैम्प (Rengkai Relief Camp) में तब्दील कर दिया गया है. इस रिलीफ कैम्प में कुल 191 पीड़ित पुरुष और 187 पीड़ित महिलाओं सहित 378 शरणार्थियों की संख्या है. इसमें कुल 72 पीड़ित परिवार शामिल हैं जो हिंसा के बाद अलग-अलग जगहों से भागकर यहां पहुंचे हैं. इसके अलावा राहत शिविर में 17 साल से ऊपर के 99 लड़के और 87 लड़कियां हैं, और 5 साल से ऊपर के 30 बच्चे और 27 बच्चियां हैं.

मई में उपजे विवाद के बाद, चुराचांदपुर जिले के सुगनू (Sugunu) गांव में हमला होते ही बोइथेम (Boithem) 23, और उसके पति लाल्मिन्थांग (Lalminthang) 30, ने अपना घर छोड़ दिया था. तब से दम्पति रेंगकाई रिलीफ कैम्प में रह रहा है. यहां आने के बाद, बोइथेम ने एक बच्चे को जन्म दिया है, जो अब एक महीने का हो चुका है. 

लाल्मिन्थांग ने बताया कि माँ बनने के बाद जरुरी दवाओं की मांग पर सरकारी डाक्टर अस्पताल में दवाओं के स्टाक न होने की बात कहते हैं.
लाल्मिन्थांग ने बताया कि माँ बनने के बाद जरुरी दवाओं की मांग पर सरकारी डाक्टर अस्पताल में दवाओं के स्टाक न होने की बात कहते हैं.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

पति लाल्मिन्थांग ने पत्नी के माँ बनने के बाद दवाईयों की समस्या पर द मूकनायक को बताया कि, “बच्चे के जन्म के बाद जिला अस्पताल के लोगों ने थोड़ी दवा दी थी. उसके बाद उन्होंने कहा कि हमारे पास स्टॉक में दवा नहीं है. हमें अब जरुरी दवाई खुद खरीदनी पड़ती है.” लाल्मिन्थांग ने एक माँ के रूप में पत्नी को आवश्यक पौष्टिक भोजन न खिला पाने का भी अफ़सोस जताया. 

लाल्मिन्थांग के पति बोइथेम को अफ़सोस है कि पत्नी के लिए आवश्यक दवाओं और संतुलित आहार की व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं. उनके पास कोई काम भी नहीं है.
लाल्मिन्थांग के पति बोइथेम को अफ़सोस है कि पत्नी के लिए आवश्यक दवाओं और संतुलित आहार की व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं. उनके पास कोई काम भी नहीं है. फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

बोइथेम इस रिलीफ कैम्प में अपने बच्चे की परवरिश और उसके बारे में चिंता व्यक्त करते हुए द मूकनायक को बताती है कि, “जब इस रूम में लोगों की रोने की आवाजें सुनाई देती हैं तो मेरा बच्चा इतना रोता है कि वह जल्दी चुप नहीं होता है. लेकिन हम क्या कर सकते हैं, हमारे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है. आगे क्या होगा, कुछ नहीं सूझता”.

चुराचांदपुर जिले में कई रिलीफ कैम्पों की पड़ताल में दवाओं की अनुपलब्धता, राशन की कमी से जूझते रिलीफ कैम्पों पर सरकारी तैयारियों की जानकारी के लिए द मूकनायक टीम ने चुराचांदपुर डीसी (डिप्टी कमिश्नर) धारून कुमार से मुलाकात की. उन्होंने द मूकनायक को बताया कि, “लोगों को तरह-तरह की स्वास्थ्य समस्याएं होती हैं, इसमें हो सकता है कि कभी किसी स्वास्थ्य समस्या की दवा न रही हो. हमने राहत शिविरों में पर्याप्त राशन सामग्रियों को भेजने की व्यवस्था बनाई है.” इसके अलावा चुराचांदपुर डीसी ने द मूकनायक को वह सूची भी साझा की जिसमें राहत शिविरों के नाम और उनमें पहुंचाई जाने वाले सामग्रियां लिखी गई थी.

मैतेई रिलीफ कैम्प में महिलाओं और नैनिहालों की दशा

राजधानी इम्फाल से 45 किमी दूर मोयरॉग (Moirang) क्षेत्र में खोयोल केथल कैम्प (Khoyol Keithel Camp) में कुल 269 आईडीपी (आंतरिक रूप से विस्थापित लोग) हैं. जिसमें अधिकांश मैतेई समुदाय के लोग हैं. कैम्प में 1 से 12 साल के 36 बच्चे व 32 बच्चियां तब से रह रहीं हैं जब से यहां जातीय हिंसा भड़की है।

कुकी और मैतेई के बीच हिंसा शुरू होने के बाद ही घर से भाग कर मोयरॉग (Moirang) के रिलीफ कैम्प में आश्रय लेने वाली 24 वर्षीय टम्फासना लोइमा (Tamphasana Loima) अपने 5 माह के बच्चे के साथ अस्थायी रिलीफ कैम्प में रह रहीं हैं. वह 3 मई से यहीं रह रहीं हैं. 

टम्फासना लोइमा द मूकनायक को बताती हैं कि, “मेरा बच्चा बीमार है, मैं भी बीमार हूँ. यहां की कम्युनिटी (कैम्प को चलाने वाले लोग) के लोग मदद कर रहे हैं. कुकी लोगों ने हम पर हमला किया, जिसके बाद हम भागकर यहां आए हैं,” वह रुआंसी हुई भर्राई आवाज में कहती हैं कि, “जब से यहां आई हूँ तब से रोज रोती हूँ. सोचती हूँ कि आखिर कब इस सिचुएशन से बाहर निकलूंगी, मेरा और परिवार कब साथ होगा, हमें कब काम मिलेगा”.

टम्फासना लोइमा (Tamphasana Loima), को अपने बीमार बच्चे की दवा कराने की चिंता सताती है. वह अस्वस्थ्य और निराश है.
टम्फासना लोइमा (Tamphasana Loima), को अपने बीमार बच्चे की दवा कराने की चिंता सताती है. वह अस्वस्थ्य और निराश है.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

टम्फासना के साथ यहां रिलीफ कैम्प में उसके पति और उनके परिवार के अन्य लोग रहते हैं. कई महीनों से यहां रहकर असुरक्षा, स्वास्थ्य और परिवार की चिंताओं को लेकर रोते हुए वह बताती है कि, “कुकी लोगों ने हमारे सब घर जला दिए. हम सब अब कहां रहेंगे। वह लोगों को मारकर वहीं रह रहे हैं. उन लोगों ने जो कुछ शुरू किया वह अभी तक ख़त्म नहीं हुआ है. कुकी लोगों को क्या चाहिए? ऐसा करने की क्या जरुरत थी? हम सबको यहां भी डर लगता है. हम यहां कैसे रह रहे हैं, यह हम समझा नहीं सकते।”

खोयोल केथल कैम्प (Khoyol Keithel Camp) में एक वॉलेंटियर के तौर पर पीड़ितों की मदद करने वाले कुमाम (Kumam) 35, द मूकनायक को बताते हैं कि यहां रिलीफ कैम्प में अधिकांश मैतेई समुदाय के पीड़ित लोग हैं. कुछ एक ऐसे हैं जिन्होंने कुकी से शादी की है, वह यहां साथ में रह रहे हैं.

सुमिला (Sumila), जो एक गर्भवती महिला है, को हेल्थ चेकअप कराने के लिए 45 किलोमीटर दूर जान जोखिम में डालकर जाना पड़ता है. स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य देखभाल के लिए समुचित व्यवस्था नहीं है.
सुमिला (Sumila), जो एक गर्भवती महिला है, को हेल्थ चेकअप कराने के लिए 45 किलोमीटर दूर जान जोखिम में डालकर जाना पड़ता है. स्थानीय स्तर पर स्वास्थ्य देखभाल के लिए समुचित व्यवस्था नहीं है.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

सुमिला (Sumila) 24, का पूरा परिवार भी इसी रिलीफ कैम्प में 3 मई से रह रहा है. वह 6 महीने की गर्भवती हैं, और उनका पहला बच्चा डेंसन (Denson) 1 साल का है. सुमिला बताती हैं कि, “रिलीफ कैम्प के लोग प्रत्येक सप्ताह डॉक्टर से चेकअप कराने के लिए इम्फाल ले जाते हैं. सरकारी अस्पताल होने के कारण चेकअप और दवाइयां फ्री में मिल जाती हैं, लेक्किन डॉक्टर द्वारा कुछ ऐसी भी दवाएं लिखी जाती हैं जो वहां नहीं मिलती हैं. उसे हमें बाहर मेडिकल से खरीदना पड़ता हैं. दवाई लेने के लिए पैसे नहीं हैं. लेकिन रिलीफ कैम्प के लोग दवाई खरीदने के लिए पैसे दे देते हैं”.

यहां यह उल्लेख करना जरुरी है कि जिस जगह पर रिलीफ कैम्प है वहां से इम्फाल की दूरी 45 किलोमीटर से भी ज्यादा है. ऐसे में गर्भवती महिलाओं को इतनी दूर यात्रा के लिए ऐसे परिस्थितियों में लाना और ले जाना महिला के स्वास्थ्य के लिए भी चिंताजनक है. खासकर तब जब कभी भी कहीं भी हिंसा शुरू हो सकती है. क्योंकि इम्फाल में भी कई ऐसी जगहें हैं जहां अभी भी मैतेई के बीच कुकी लोग रह रहे हैं.

सुमिला ने बताया कि उसका घर तो नहीं जलाया गया था लेकिन घर के समीप हो रही हिंसा को देखकर उनका परिवार डर से घर छोड़कर यहां भाग आया.

दो बच्चों और पति के साथ रिलीफ कैम्प में रहने वाली लैशम प्रिया (Laisham Priya) 29, की गोद में 7 महीने की बच्ची है. न उसके पति के पास कोई काम है न उसके पास कोई काम. 3 महीने से यहीं रह रही हैं. उसने बताया कि रिलीफ कैम्प की ओर से चावल, नमक, दाल, तेल, सब्जियां मिल जाती हैं. जिसे खुद बनाना पड़ता है.

7 महीने की छोटी बच्ची के साथ लैशम प्रिया (Laisham Priya), इन हालातों में सरकार और लीडर्स के सपोर्ट और उनके ध्यान देने की अपील करती है. क्योंकि उसके पर न पैसे हैं, न ही काम है.
7 महीने की छोटी बच्ची के साथ लैशम प्रिया (Laisham Priya), इन हालातों में सरकार और लीडर्स के सपोर्ट और उनके ध्यान देने की अपील करती है. क्योंकि उसके पर न पैसे हैं, न ही काम है.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

उसके भविष्य की चिंताओं को लेकर वह क्या सोचती हैं, द मूकनायक के सवाल का जवाब देते हुए वह कहती है, “मैं नर्वस हूँ कि क्या कहूं? सारी चीजों में कमी ही कमी है. सरकार और लीडर्स के सपोर्ट और ध्यान देने की ज्यादा जरुरत है. क्योंकि हाथ में पैसे नहीं हैं, न ही काम है.”

बीए प्रथम वर्ष की छात्रा संतोम्बी चानू (Sanatombi Chanu) 23, भी रिलीफ कैम्प में अपने परिवार के साथ रहती है. द मूकनायक ने चानू से उसकी अपनी आंखे इस हालात को कैसे देखती हैं, पूछा। वर्तमान परिस्थिति पर वह बताती है, “अभी हम लोगों का घर जला दिया गया है. रिलीफ कैम्प में हमारे साथ छोटे-छोटे बच्चे हैं. हम कहां जायेंगे। हम लोगों की क्या गलती थी जो कुकी लोगों ने हम पर हमले किये, हमारे घर जला दिए. अगर एक चोर चोरी करता है तो कुछ ही सामान जाता है, लेकिन अगर आपका घर जल गया तो सबकुछ चला जाता है.”

रिलीफ कैम्प में अपने परिवारों से बिछड़ी संतोम्बी चानू (Sanatombi Chanu), का मानना है कि जिन परिस्थिति, जिन मुसीबतों को गर्भवती मां महसूस कर रही है, झेल रही हैं, उसका सीधा असर उसके बच्चे पर पड़ेगा।
रिलीफ कैम्प में अपने परिवारों से बिछड़ी संतोम्बी चानू (Sanatombi Chanu), का मानना है कि जिन परिस्थिति, जिन मुसीबतों को गर्भवती मां महसूस कर रही है, झेल रही हैं, उसका सीधा असर उसके बच्चे पर पड़ेगा।फोटो- सत्य प्रकाश भारती, द मूकनायक

संतोम्बी चानू आगे बताती हैं, “हमारे परिवार में कई लोग हैं. लेकिन इस समय हमारी मां कहीं और है, हमारे पिता कहीं और हैं. पूरा परिवार अलग-अलग रिलीफ कैम्पों में बिखरा हुआ है. हम एक दूसरे के दुःख-तकलीफों को देख तक नहीं सकते हैं. इसपर ध्यान दिया जाना चाहिए।”

कैम्प में रह रहीं गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य चिंताओं के बारे में द मूकनायक के सवाल पर चानू ने कहा कि, “अभी जो गर्भवती महिलाएं यहां हैं उनके प्रसव के लिए यहां कोई व्यवस्था नहीं है. जिन परिस्थिति, जिन मुसीबतों को गर्भवती मां महसूस कर रही है, झेल रही हैं, जो सीमित खानपान की व्यवस्थाएं हैं उसका सीधा असर उसके बच्चे पर पड़ेगा।”

कोंजेंगबम (Konjengbam) के एक रिलीफ कैम्प में 350 पीड़ितों की संख्या है. जो आर्थिक संकट से जूझ रहा है.
कोंजेंगबम (Konjengbam) के एक रिलीफ कैम्प में 350 पीड़ितों की संख्या है. जो आर्थिक संकट से जूझ रहा है.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

कोंजेंगबम (Konjengbam) के एक रिलीफ कैम्प में 350 पीड़ितों की संख्या है. हाल ही में यहां के कुछ पीड़ितों को किसी अन्य रिलीफ कैम्प में ले जाया गया है. इस कैम्प में 12 वर्ष के 13 बच्चे और 12 बच्चियां हैं. रिलीफ कैम्प में शांति (33), 4 माह की गर्भवती महिला हैं. द मूकनायक द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें एक गर्भवती महिला के रूप में वह सारी स्वास्थ्य सुविधाएं, दवाइयां, पौष्टिक आहार मिलते हैं, जो एक सामान्य गर्भवती महिला को अनिवार्य रूप से मिलनी चाहिए? वह बताती हैं कि, “चेकअप कराने के लिए 61 किलोमीटर दूर इम्फाल जाना पड़ता है. अभी तो मेडिसिन मिल जा रहा है, फ्री में चेकअप भी हो जाता है. आगे क्या होगा पता नहीं है. अभी मैं स्वस्थ्य महसूस कर रही हूँ, खाना तो मिल जाता है लेकिन एक गर्भवती महिला के लिए जो चाहिए होता है वह नहीं मिलता।”

शांति (Shanti), एक गर्भवती महिला के रूप में समुचित आहार की कमी महूसस करती हैं.
शांति (Shanti), एक गर्भवती महिला के रूप में समुचित आहार की कमी महूसस करती हैं.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल के संचालक के. आनंद सिंह (K. Anand Singh) द मूकनायक को बताते हैं कि जब से राहत शिविर शुरू हुआ तब से सिर्फ एक महिला की मौत हुई है. “यहां एक महिला की मौत हुई है. लेकिन उसकी मौत किसी डिजीज (रोग) के कारण नहीं हुई है. क्योंकि वह बुजुर्ग थी. उसकी उम्र 72 साल थी. इसलिए उसकी स्वाभाविक मौत हुई थी”, आनंद सिंह महिला के मौत की वजह उनकी अधिक उम्र बताते हैं, और किसी भी स्वास्थ्य समस्या न होने की बात कहते हैं. 

कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल के संचालक के. आनंद सिंह (K. Anand Singh) बताते हैं कि राहत शिविर चलाने के हमारे पास अब पैसों की कमी पड़ रही है. स्थानीय लोगों ने शुरू में बहुत मदद की थी.
कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल के संचालक के. आनंद सिंह (K. Anand Singh) बताते हैं कि राहत शिविर चलाने के हमारे पास अब पैसों की कमी पड़ रही है. स्थानीय लोगों ने शुरू में बहुत मदद की थी.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

विस्थापित महिलाओं को उद्यम से जोड़ने की पहल 

जब द मूकनायक की टीम कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल पहुंची तब वहां लगभग दर्जन भर महिलाओं और बच्चियों से ज्यादा लोगों को महिला श्रृंगार की चीजें तैयार करने के लिए किसी संगठन द्वारा प्रशिक्षण दिया जा रहा था. महिलाओं को प्रशिक्षण देने वाली टीम के रिम्सन वान्ग्जम (Rimson Wangjam) 20, बताते हैं, “इन महिलाओं को यह सब इसलिए सिखाया जा रहा है ताकि इन्हें रोजगार मिले और कुछ पैसे ये कमा सकें। इन लोगों को प्रशिक्षण देने के बाद इन्हें रॉ मैटेरियल देंगे। जिससे प्रोडक्ट तैयार करने के एवज में इन्हें भुगतान किया जायेगा। इसमें अभी इन्हें महिला श्रृंगार की चीजें बनाने के लिए बताया जा रहा है.”

कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल में पीड़ित महिलाओं को महिला श्रृंगार की चीजों को बनाने का प्रशिक्षण देते हुए प्रशिक्षक, ताकि महिलाएं कुछ पैसे कमा सकें.
कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल में पीड़ित महिलाओं को महिला श्रृंगार की चीजों को बनाने का प्रशिक्षण देते हुए प्रशिक्षक, ताकि महिलाएं कुछ पैसे कमा सकें.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

अभी यह सिर्फ मैतेई समुदाय के पीड़ित रिलीफ कैम्प में ही प्रशिक्षण दिया जा रहा है या कुकी समुदाय के पीड़ित लोगों को भी यह प्रशिक्षण दे रहे हैं? द मूकनायक के सवाल पर प्रशिक्षण देने वाले रिम्सन वान्ग्जम ने डरते हुए लेकिन मुस्कुराते हुए कहा, “अभी सिर्फ मैतेई कैम्पों में जाकर महिलाओं को प्रशिक्षण दे रहे हैं. कुकी कैम्प में जाने से हमारी जान को खतरा है. इसलिए हम वहां नहीं जाते”, उन्होंने बताया।

स्थानीय सहयोगियों, व्यवसायियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के भरोसे चल रहा रिलीफ कैम्प

राज्य में जब से जातीय हिंसा शुरू हुई उसके 5-6 दिन बाद से शुरू हुए कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल के संचालक के. आनंद सिंह (K. Anand Singh) 49, ने बताया कि जब इस कैम्प की शुरुआत की थी तब इलाके के आसपास के दोस्त, भाई-बहनों ने लोगों के खाने, रहने की व्यवस्था में मदद की थी. 

“मणिपुर के सामाजिक संगठन के लोगों ने हमें चावल, तेल, कपड़े और अन्य जरुरी चीजें दीं. लोगों से मिले राहत सामग्रियों को इन लोगों में बांट दिया। अभी तो पैसे की कमी आ गई है, क्योंकि यह सिलसिला 3 महीनों से ज्यादा समय से चल रहा है. लेकिन हम इस प्रयास में लगे हैं कि किसी तरह से इन पीड़ितों के खाने-रहने का इंतजाम होता रहे. कब तक ऐसा चलता रहेगा यह कुछ पता नहीं है. हम सरकार से अपील करते हैं कि चीजों को जल्द से जल्द ठीक करें। दोनों समुदायों को आपस में मिलजुलकर रहना चाहिए। हम भारतवासी हैं, ऐसे ही भारतवासी बनकर रहना चाहते हैं”, के. आनंद सिंह ने द मूकनायक को बताया। 

कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल के ठीक सामने प्लास्टिक के बोर से बना एक अस्थायी ओट, जिसमें महिलाएं स्नान करतीं हैं.
कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल के ठीक सामने प्लास्टिक के बोर से बना एक अस्थायी ओट, जिसमें महिलाएं स्नान करतीं हैं.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

महिलाओं के स्नान के लिए बोरे की ओट 

कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल के ठीक सामने प्लास्टिक के बोर से एक अस्थायी ओट बना दिया गया है जिसे रिलीफ कैम्प की महिलाएं स्नान करके कपड़े बदलने में उपयोग करती हैं. हालाँकि, महिलाओं की सुरक्षा, गोपनीयता के लिहाज से यह पर्याप्त नहीं था, खासकर तब जब महिलाओं की संख्या काफी अधिक है. इसके अलावा, शौचालय की कोई भी व्यवस्था नहीं दिखाई दी. 

तालाब के गंदे पानी का उपयोग करने के लिए मजबूर हैं राहत शिविर की महिलाएं.
तालाब के गंदे पानी का उपयोग करने के लिए मजबूर हैं राहत शिविर की महिलाएं.फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

तालाब के गंदे पानी का उपयोग

अस्थाई रूप से बनाए गए कोंजेंगबम (Konjengbam) कम्यूनिटी हाल के पास स्वच्छ पीने योग्य, कपड़े धोने योग्य पानी के लिए सिर्फ एक तालाब है. जिसमें से रिलीफ कैम्प की महिलाएं अपने कपड़े धोने के लिए जल का उपयोग करती हैं. वैसे पास में कोई हैंडपंप भी नहीं दिखाई दिया जिससे यह समझा जाए कि इसका उपयोग स्वच्छ जल पीने के लिए किया जाता होगा। तालाब का अधिकांश हिस्सा गन्दगी से भरा पड़ा था, सिर्फ एक किनारे पर लकड़ी के पाट बनाये गए थे जो रिलीफ कैम्प की महिलाओं को तालाब से पानी निकालने के काम आ रहा था.

जातीय हिंसा की पृष्ठभूमि

यह स्पष्ट करना कि जातीय हिंसा के क्या कारण रहे होंगे थोड़ा मुश्किल है. क्योंकि इस हिंसा के पीछे मणिपुर में कई वजहें बताई जा रहीं हैं. इसमें सबसे पहला कारण मैतेई लोगों द्वारा भी कुकी समुदाय की तरह ST (अनुसूचित जनजाति) के दर्जे की मांग से कुकी लोगों में अधिकारों के सीमित/हक़ पर कब्जा होने के उपजे वहम को माना जा रहा है. दूसरा कारण, जो अधिकांश मैतेई मानते हैं कि, मणिपुर की एन. वीरेन सिंह की सरकार द्वारा हालिया कुकी लोगों के मादक पदार्थों की खेती पर लगाम लगाने की पहल से कुकी लोगों में पैदा हुए असंतोष, असामनता का भाव माना जा रहा है. जिसे कुकी समुदाय अपने ऊपर जबरन थोपे गए नियम मानकर प्रतिक्रिया कर रहा है. तीसरा कारण जमीन पर अधिकार का भी बताया जा रहा है. चौथे कारण के रूप में एक ऐसी अफवाह मानी जा रही है जिसके कारण दोनों ओर से हिंसा शुरू हो गई. मई 2023, में कुछ कथित फर्जी रिपोर्टों के बाद पूरे मणिपुर में जातीय हिंसा की आग धधक उठी. जिसमें कथित रूप से यह अफवाह फैल गई कि कुकी द्वारा एक मैतेई महिला के साथ दुष्कर्म किया गया था। 

उसके बाद से दोनों समुदायों के बीच मुसलसल जंग शुरू हो गई, जिससे वर्तमान में ऐसी स्थति बानी हुई है कि न तो मैतेई बाहुल्य के क्षेत्र में कुकी जा रहा है और न ही कुकी बाहुल्य क्षेत्र में मैतेई जा रहा है. दोनों समुदाय के क्षेत्रों की सीमाओं पर भारी सुरक्षाबल तैनात किये गए हैं, और जहां कभी दोनों समुदाय के लोग एक साथ एक दूसरे की सुख दुःख में एक साथ शामिल होते थे उसकी जगह बफर जोन ने ले लिया है. 

अब तक की हिंसा में बहुसंख्यक मैतेई और अल्पसंख्यक कुकी के बीच कम से कम 130 लोगों के मारे जाने की सूचना है और इस हिंसा में 400 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। हिंसा को रोकने के लिए सुरक्षा बलों को तैनात किया गया है. इस जातीय संघर्ष के कारण लगभग 60,000 से अधिक लोगों को अपने घरों से दूसरी जगहों पर जाने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

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