
भोपाल। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक ऐसी बालिग युवती को राहत और उम्मीद दोनों दी है, जिसने अपने सपनों की उड़ान के लिए घर छोड़ा था। अदालत ने सुनवाई के दौरान युवती से कहा कि अगर उसे घर में पढ़ाई के लिए अनुकूल माहौल नहीं मिलता है, तो उसकी शिक्षा और रहने की व्यवस्था अन्यत्र की जाएगी। यह मामला भोपाल के बजरिया इलाके की एक युवती से जुड़ा है, जो सिविल सर्विस (IAS) की तैयारी करना चाहती थी, लेकिन पिता की जिद और प्रताड़ना के कारण उसने घर छोड़ दिया था।
भोपाल के बजरिया क्षेत्र की रहने वाली यह युवती 12वीं तक की पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। आगे की पढ़ाई के साथ-साथ वह सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी करना चाहती थी। लेकिन पिता उसकी पढ़ाई जारी रखने के खिलाफ थे। उन्होंने बेटी की शादी तय करने का दबाव बनाया और पढ़ाई छोड़ने को कहा।
युवती के मुताबिक, जब उसने विरोध किया तो उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाने लगा। घर के माहौल से तंग आकर उसने जनवरी 2025 में घर छोड़ दिया।
घर छोड़ने के बाद युवती इंदौर पहुंची। वहां उसने एक निजी कंपनी में नौकरी कर खुद का खर्च चलाना शुरू किया और कोचिंग सेंटर में दाखिला लेकर सिविल सर्विस की तैयारी में जुट गई। इसी बीच, भोपाल के बजरिया थाना क्षेत्र में पिता ने उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई। लेकिन महीनों तक पुलिस को कोई सुराग नहीं मिला। युवती नाबालिग (17 वर्ष 6 माह) थी, इसलिए मामला संवेदनशील माना गया।
लगभग दस माह बाद पुलिस को युवती का पता उसके आधार कार्ड के जरिए चला। इंदौर में रहने के दौरान जब उसने हाल ही में अपने आधार कार्ड में मोबाइल नंबर अपडेट करवाया, तो उसी नंबर के जरिए पुलिस ने उसकी लोकेशन ट्रेस की। बजरिया थाना प्रभारी शिल्पा कौरव ने बताया कि पुलिस ने युवती को इंदौर से बरामद कर भोपाल लाया। लेकिन जब उसे परिवार से मिलाने की कोशिश की गई, तो उसने साफ इंकार कर दिया। युवती ने पुलिस को बताया कि वह IAS बनना चाहती है और अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है।
युवती की बरामदगी के बाद पिता ने जबलपुर हाई कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus) दाखिल की। इस पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव सचदेवा और न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन की खंडपीठ ने 5 नवंबर को युवती को पेश करने के निर्देश दिए। सुनवाई के दौरान युवती ने अदालत में कहा कि उसे घर लौटने की इच्छा नहीं है क्योंकि वहां पढ़ाई का माहौल नहीं है और पिता बार-बार शादी के लिए दबाव डालते हैं। दूसरी ओर, पिता ने अदालत में कहा कि अब वे बेटी को किसी प्रकार की प्रताड़ना नहीं देंगे और उसे घर वापस ले जाना चाहते हैं।
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद न्यायालय ने एक संतुलित निर्णय लिया। अदालत ने कहा कि युवती कुछ दिनों के लिए अपने अभिभावक (पिता) के साथ रहे और देखे कि घर का माहौल पढ़ाई के अनुकूल है या नहीं।
न्यायालय ने कहा,“यदि उसे घर में पढ़ाई का माहौल नहीं मिला, तो कलेक्टर को निर्देश दिए जाएंगे कि उसकी रहने और पढ़ाई की व्यवस्था अन्यत्र की जाए।”
अदालत ने युवती और उसके पिता दोनों को 12 नवंबर 2025 को फिर से पेश होने के निर्देश दिए हैं। उसी दिन युवती के भविष्य को लेकर अंतिम फैसला लिया जाएगा।
इस पूरे विवाद के दौरान युवती के पिता ने अपने अन्य तीन बच्चों की पढ़ाई भी छुड़वा दी थी और पत्नी के साथ वापस बिहार स्थित अपने पैतृक गांव चले गए थे। इससे परिवार पूरी तरह बिखर गया था। अब अदालत के हस्तक्षेप के बाद परिवार के पुनर्मिलन की संभावना बनी है, लेकिन युवती ने साफ कहा है कि वह तभी घर लौटेगी जब उसे अपने सपनों को आगे बढ़ाने की स्वतंत्रता दी जाएगी।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित किया गया है, जबकि अनुच्छेद 21-ए प्रत्येक बच्चे को शिक्षा का अधिकार देता है। ये दोनों अनुच्छेद मिलकर यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई भी बच्चा या युवती अपनी इच्छा के विरुद्ध शिक्षा से वंचित न रहे।
विधि विशेषज्ञ और अधिवक्ता मयंक सिंह का कहना है कि भारतीय संविधान नागरिक को न केवल स्वतंत्र रूप से जीवन जीने का अधिकार देता है, बल्कि यह सरकार की भी जिम्मेदारी तय करता है कि वह नागरिकों को शिक्षा के अवसर प्रदान करे। उन्होंने कहा कि “यदि कोई बालिग युवती शिक्षा जारी रखना चाहती है और उसे घर में पढ़ाई का वातावरण नहीं मिलता, तो राज्य का दायित्व बनता है कि वह उसे ऐसा माहौल उपलब्ध कराए जहां वह अपने सपनों को साकार कर सके।”
द मूकनायक से बातचीत में सामाजिक विद्वान डॉ. इम्तियाज खान ने कहा कि यह मामला केवल एक पारिवारिक विवाद नहीं, बल्कि संस्कृति विलंबना (cultural Lag) का उदाहरण है। यहां लड़की अपने विचारों और सपनों में प्रगतिशील है, जबकि उसके अभिभावक परंपरागत और रूढ़िवादी सोच से बंधे हुए हैं।
उन्होंने कहा, “यह टकराव दरअसल दो पीढ़ियों के बीच सोच के अंतर, जनरेशन गैप और समाज में गहराई से जमी परंपराओं का परिणाम है। न्यायालय ने जो निर्णय दिया है, वह समाज की प्रगतिशील दिशा की ओर इशारा करता है। समाज हमेशा आगे बढ़ने वाला रहा है, लेकिन परिवारों के भीतर अब भी पुरानी मान्यताएं टकराव पैदा करती हैं।”
डॉ. खान का मानना है कि ऐसे मामलों में अभिभावकों को अपनी सोच में बदलाव लाने की जरूरत है। उन्होंने कहा, “अगर हम सच में अपनी बेटियों को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं, तो हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। माता-पिता को समझना चाहिए कि शिक्षा न केवल जीवन का अधिकार है, बल्कि यह व्यक्ति को आत्मनिर्णय की शक्ति भी देती है।”
उन्होंने कहा, “समाज तभी सच में प्रगतिशील कहलाएगा जब हर लड़की को अपनी शिक्षा और जीवन के फैसले लेने की स्वतंत्रता मिलेगी।”
अब सबकी नजरें 12 नवंबर की अगली सुनवाई पर हैं। अगर युवती को घर का माहौल अनुकूल नहीं लगता, तो न्यायालय जिला प्रशासन को उसके रहने और पढ़ाई की वैकल्पिक व्यवस्था करने का आदेश देगा।
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