MP: गर्भपात पर हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला- गर्भवती की इच्छा सर्वोपरि, जानिए क्या है मामला?

कानून विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह फैसला महिलाओं के लिए एक मजबूत सुरक्षा कवच साबित होगा। यह आदेश न केवल महिलाओं की गरिमा की रक्षा करता है, बल्कि उनके आत्मसम्मान और स्वतंत्रता को भी नई मजबूती देता है।
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट.
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भोपाल। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की जबलपुर खंडपीठ ने महिलाओं के अधिकारों और प्रजनन स्वतंत्रता से जुड़े एक बेहद संवेदनशील मामले में ऐतिहासिक निर्णय दिया है। न्यायमूर्ति विशाल मिश्रा की एकलपीठ ने स्पष्ट कर दिया है कि गर्भपात का निर्णय केवल गर्भवती महिला की इच्छा और सहमति पर निर्भर करता है। अदालत ने कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) अधिनियम के प्रावधानों के तहत किसी भी परिस्थिति में महिला की मर्जी के विरुद्ध गर्भपात नहीं कराया जा सकता।

क्या है मामला?

यह मामला सतना जिले के मैहर का है, जहां एक नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता गर्भवती हुई। जिला अदालत ने इस स्थिति की गंभीरता को देखते हुए पत्र लिखकर हाईकोर्ट को अवगत कराया। हाईकोर्ट ने तुरंत सुनवाई की प्रक्रिया शुरू की और पीड़िता का मेडिकल परीक्षण कराने के आदेश दिए। रिपोर्ट में सामने आया कि पीड़िता 28 सप्ताह की गर्भवती है और उसे हल्का एनीमिया भी है। गर्भावस्था की यह अवधि भ्रूण की व्यवहार्यता की सीमा से अधिक मानी जाती है, ऐसे में गर्भपात केवल विशेष परिस्थितियों में ही संभव होता है।

सुनवाई के दौरान पीड़िता और उसकी मां ने अदालत के समक्ष यह स्पष्ट कर दिया कि वे गर्भपात नहीं कराना चाहतीं। पीड़िता ने यह भी कहा कि उसने अभियुक्त से विवाह कर लिया है और अब चाहती है कि अभियुक्त को जेल से रिहा किया जाए। मां ने भी बेटी की इस इच्छा का समर्थन किया और गर्भावस्था को जारी रखने की सहमति दी। इस बयान के बाद अदालत ने यह मान लिया कि गर्भपात की अनुमति प्रदान करने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि एमटीपी अधिनियम के अनुसार महिला की सहमति सर्वोपरि है।

अपने आदेश में अदालत ने यह भी कहा कि मेडिकल बोर्ड की ओर से प्रस्तुत की गई रिपोर्ट अधूरी और अस्पष्ट है। इसमें यह स्पष्ट नहीं बताया गया था कि गर्भावस्था जारी रहने से महिला के जीवन या स्वास्थ्य को किस हद तक खतरा है, या भ्रूण में किसी प्रकार की गंभीर विकृति की संभावना है। न्यायमूर्ति मिश्रा ने टिप्पणी की कि अक्सर जिला अदालतों को भेजी जाने वाली रिपोर्टों में इन बिंदुओं का उल्लेख नहीं किया जाता, जबकि एमटीपी अधिनियम की धारा-तीन में यह प्रावधान स्पष्ट है कि मेडिकल बोर्ड को ठोस, सुसंगत और स्पष्ट राय देनी होगी।

क्या है एमटीपी अधिनियम?

एमटीपी अधिनियम, 1971 (संशोधित 2021) में गर्भपात से संबंधित स्पष्ट प्रावधान हैं। इसके तहत 20 सप्ताह तक गर्भपात के लिए एक चिकित्सक की राय पर्याप्त है, जबकि 24 सप्ताह तक दो चिकित्सकों की सहमति आवश्यक होती है। 24 सप्ताह के बाद केवल विशेष परिस्थितियों जैसे दुष्कर्म, नाबालिग गर्भधारण या गर्भवती के जीवन पर संकट की स्थिति में अदालत की अनुमति से गर्भपात कराया जा सकता है। किंतु हर परिस्थिति में गर्भवती महिला की सहमति अनिवार्य है। यही कारण है कि अदालत ने अपने आदेश में महिला की इच्छा को सर्वोच्च मान्यता दी और गर्भपात की अनुमति देने से इनकार कर दिया।

हाईकोर्ट ने जारी किए निर्देश

हाईकोर्ट ने रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश दिए हैं कि इस आदेश की प्रति राज्य के सभी जिला एवं सत्र न्यायाधीशों और राज्य स्तरीय मेडिकल बोर्डों तक पहुंचाई जाए। अदालत ने यह भी कहा कि भविष्य में मेडिकल बोर्डों को अपनी रिपोर्टों में पूरी स्पष्टता और ठोस आधार प्रस्तुत करना होगा ताकि अदालत को निर्णय लेने में कठिनाई न हो।

इस फैसले का महत्व सिर्फ इस मामले तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भविष्य में आने वाले सभी ऐसे मामलों के लिए मार्गदर्शन प्रदान करेगा। अदालत ने यह संदेश दिया है कि महिला की सहमति और उसकी गरिमा सर्वोच्च है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का जो अधिकार महिलाओं को प्राप्त है, उसमें प्रजनन स्वतंत्रता भी शामिल है। अदालत का यह आदेश इसी संवैधानिक भावना को पुनः पुष्ट करता है और यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी महिला पर गर्भपात का दबाव नहीं बनाया जा सके।

कानून विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह फैसला महिलाओं के लिए एक मजबूत सुरक्षा कवच साबित होगा। यह आदेश न केवल महिलाओं की गरिमा की रक्षा करता है, बल्कि उनके आत्मसम्मान और स्वतंत्रता को भी नई मजबूती देता है। द मूकनायक से बातचीत में विधि विशेषज्ञ और अधिवक्ता मयंक सिंह का कहना है कि अदालत का यह दृष्टिकोण महिलाओं की इच्छाओं और उनकी पसंद को सर्वोपरि मानने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है।

उनका मानना है कि जब भी ऐसी परिस्थितियाँ सामने आएंगी, तो न्यायालय महिलाओं की इच्छा को ही केंद्र में रखेगा। इससे यह स्पष्ट संदेश जाता है कि महिला के शरीर और उसके जीवन से जुड़े फैसले उसी की सहमति और मर्जी पर आधारित होंगे। यह न केवल संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप है, बल्कि समाज को भी यह सीख देता है कि महिला की स्वतंत्र पहचान और उसकी गरिमा से कोई समझौता स्वीकार्य नहीं है।

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