उत्तर प्रदेश: 3 अगस्त को रात 9.30 बजे आकाशवाणी महानिदेशालय, दिल्ली से प्रसारित होने जा रहा है एक विशेष रेडियो रूपक — "महुआ डाबरः निशां अभी बाक़ी हैं"। यह कार्यक्रम एफएम गोल्ड, इंद्रप्रस्थ चैनल, आकाशवाणी लाइव न्यूज 24x7, यूट्यूब चैनल और ‘न्यूज़ ऑन एयर’ ऐप पर सुना जा सकेगा। इस केंद्रीय हिंदी रूपक की लेखिका और प्रस्तुतकर्ता नवोदिता मिश्रा हैं। संयोजन राम अवतार बैरवा ने किया है और तकनीकी सहयोग आकाशवाणी गोरखपुर द्वारा प्रदान किया गया है।
यह कार्यक्रम 1857 के उस जनसंहार की स्मृति है, जिसे इतिहास ने भुला दिया, मिटा दिया — महुआ डाबर जनसंहार। ठीक 168 साल पहले, 3 जुलाई 1857 को, अंग्रेजी हुकूमत ने बस्ती जनपद के बहादुरपुर ब्लॉक अंतर्गत महुआ डाबर गांव को घेरकर ध्वस्त कर दिया था। यह तीन ओर से की गई सैन्य घेराबंदी थी, जिसमें गांव के बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं को बेरहमी से काट डाला गया, फिर पूरे गांव को आग के हवाले कर दिया गया। इस क्रूरता के बाद अंग्रेजों ने महुआ डाबर को ‘ग़ैर चिरागी’ घोषित कर इतिहास के नक्शे से मिटा दिया।
1857 में महुआ डाबर न केवल एक समृद्ध गांव था, बल्कि छींट कपड़े के निर्माण का अंतरराष्ट्रीय केंद्र था। यहां 5000 की आबादी बुनाई, रंगाई और छपाई में लगी थी। एक और दो मंजिला मकान, पीतल के बर्तनों का बाजार, अनाज मंडी, स्कूल, ऊंची मीनारों वाली मस्जिदें—यह गांव उस समय की शहरी संस्कृति का जीवंत उदाहरण था।
10 जून 1857 को कप्तानगंज से गायघाट की ओर जा रहे अंग्रेजी अफसरों पर जब मनोरमा नदी के पास महुआ डाबर, अमिलहा, मुहम्मदपुर और नकहा गांवों के क्रांतिकारियों ने हमला किया, तो उस गुरिल्ला युद्ध में लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लिंडसे, थॉमस, कॉटली, एन्साइन रिची और सार्जेंट एडवर्ड मारे गए। घायल सार्जेंट बुशर को बल्ली सिंह ने बंधक बना लिया।
अंग्रेजी हुकूमत बौखला गई। बस्ती में मार्शल लॉ लागू किया गया। 3 जुलाई को कलेक्टर पेप्पे विलियम्स के नेतृत्व में महुआ डाबर को घेरकर जला दिया गया। बचे हुए लोगों को मार डाला गया, संपत्ति जब्त की गई, और गांव को मिट्टी में मिला दिया गया।
महुआ डाबर को ‘ग़ैर चिरागी’ घोषित कर दिया गया, यानी वहां कोई बस नहीं सकता था। इतिहास से नाम तक मिटा दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारियों की मुखबिरी करने वाले महिपत सिंह को इनाम में ज़मीन दी। पेप्पे को बर्डपुर के पास यूरोपीय संपत्ति के रूप में इनाम मिला। विरोध में 1858 और 1859 में पेप्पे पर दो बार हमले हुए। उसकी एक उंगली भी कट गई। लेकिन महुआ डाबर तब तक मिटाया जा चुका था।
बस्ती-गोंडा सीमा पर गौर के पास एक और गांव बसाकर उसे महुआ डाबर नाम दे दिया गया और दावा किया गया कि वही असली गांव है। 1907 के बस्ती गजेटियर में इसी झूठ को दर्ज कर दिया गया। सवाल यह है कि जब ‘ग़ैर चिरागी’ क्षेत्र में कोई बस नहीं सकता था, तो ब्रिटिश सरकार ने यह झूठ क्यों गढ़ा?
आजाद भारत के इतिहासकारों ने भी असली महुआ डाबर को न्याय नहीं दिलाया। एक ऐसा गांव जहां एक संपूर्ण आबादी को मिटा दिया गया, उसे इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला।
1999 में स्थापित 'महुआ डाबर संग्रहालय' इस क्रूर जनसंहार की गवाही देता है। मो. लतीफ के प्रयासों से 2010 में लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अनिल कुमार की देखरेख में यहां उत्खनन हुआ। राख, लकड़ी के जले टुकड़े, मिट्टी के बर्तन, सिक्के, कारीगरी के औजार—सब इतिहास के प्रमाण के रूप में निकले।
महुआ डाबर संग्रहालय के महानिदेशक और क्रांतिकारी वंशज डॉ. शाह आलम राना के प्रयासों से यह स्थल अब उत्तर प्रदेश पर्यटन नीति 2022 के ‘स्वतंत्रता संग्राम सर्किट’ में शामिल हो चुका है। 10 जून 2025 से यहां प्रशासन द्वारा शस्त्र सलामी भी दी जा रही है।
डॉ. राना कहते हैं, जालियांवाला बाग से कहीं बड़ी यह त्रासदी आज भी उपेक्षित है। जहां ब्रिटिश राजघराने और प्रधानमंत्री माफी जता चुके हैं, वहीं महुआ डाबर की पीड़ा अब भी अनसुनी है। वह राष्ट्रीय स्मारक बनने की बाट जोह रही है।
आज का रेडियो कार्यक्रम “महुआ डाबरः निशां अभी बाक़ी हैं” इसी इतिहास को जीवित करने का प्रयास है। यह न केवल एक रूपक है, बल्कि हमारी ऐतिहासिक चेतना को झकझोरने वाला दस्तावेज़ भी है।
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