हैरान कर देगी महुआ डाबर की कहानी, अंग्रेजों ने मिटा दिया था गांव का नामो-निशान — करीब पांच हजार निर्दोषों की हुई थी हत्या

1857 के विद्रोह में अंग्रेजों ने महुआ डाबर गांव को जलाकर राख कर दिया, 5000 लोगों का नरसंहार हुआ। आज भी उस इतिहास की चीखें जमीन में दबी पड़ी हैं।
महुआ डाबर: 1857 का नरसंहार और इतिहास मिटाने की साजिश | Mahua Dabar Massacre 1857
महुआ डाबर: 1857 का नरसंहार और इतिहास मिटाने की साजिश | Mahua Dabar Massacre 1857
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उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में एक गांव था—महुआ डाबर। 1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेजों ने इस गांव को तीन तरफ से घेरकर आग के हवाले कर दिया। करीब 5000 लोगों को घेर कर मार दिया गया। बूढ़ों-बच्चों, महिलाओं को भी नहीं छोड़ा गया। इसके बाद गांव की पहचान मिटाने के लिए नक्शे से उसका नाम तक हटा दिया गया और 50 किलोमीटर दूर उसी नाम का नया गांव बसाकर असली जगह को भूला देने की साजिश रची गई।

3 जुलाई 1857 को अंग्रेजी हुकूमत ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दीं। बस्ती के बहादुरपुर ब्लॉक का महुआ डाबर गांव कपड़ा उद्योग का बड़ा केंद्र था। यहां के लोग छींट कपड़े की बुनाई, रंगाई और छपाई में लगे थे। दो-मंजिला मकान, मस्जिदें, बाजार—सब समृद्धि के निशान थे।

लेकिन 1857 की क्रांति की चिंगारी मेरठ से उठते ही पूरे उत्तर भारत में फैल गई। गोरखपुर-बस्ती इलाके में भी विद्रोह भड़क उठा। फैजाबाद, गोंडा, आजमगढ़ के सिपाही भी अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा चुके थे। 8 जून 1857 को फैजाबाद में विद्रोहियों ने कब्जा कर लिया और अंग्रेज अफसरों पर हमले शुरू हो गए।

9 जून को अंग्रेजी अफसर बेगमगंज के पास घाघरा नदी पर विद्रोहियों के हमले में मारे गए या भाग निकले। भागते अंग्रेज अफसरों का एक दल 10 जून को बस्ती के कप्तानगंज से गायघाट होते हुए महुआ डाबर के पास पहुंचा। मनोरमा नदी पार करते वक्त उन पर महुआ डाबर और आसपास के गांवों के क्रांतिकारियों—गुलाब खां, अमीर खां, पिरई खां, वज़ीर खां, जफ़र अली आदि—ने हमला बोल दिया। लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लिंडसे, थॉमस, कॉटली, एन्साइन रिची समेत कई अफसर मारे गए।

इस हमले के बाद अंग्रेजी हुकूमत बौखला गई। गोरखपुर के कलेक्टर विलियम पेप्पे को आदेश मिला कि विद्रोह को किसी भी कीमत पर कुचल दिया जाए। 20 जून को बस्ती में मार्शल लॉ लगा। 3 जुलाई 1857 को पेप्पे ने घुड़सवार फौजों के साथ महुआ डाबर को चारों ओर से घेर लिया। गांव को जला दिया गया, बचने वालों के सिर कलम किए गए, मकान और दुकानें तोड़ दी गईं और गांव को 'ग़ैरचिरागी' घोषित कर दिया गया—अर्थात यहां दोबारा कोई बस नहीं सकता।

महुआ डाबर के कई क्रांतिकारी जैसे गुलाम खां, गुलजार खां, नेहाल खां, घीसा खां को 1858 में फांसी दी गई। मुखबिरी करने वाले महिपत सिंह को अंग्रेजों ने तीन हजार रुपये सालाना लगान वाली जमीन इनाम में दी।

इसी दौरान महुआ डाबर का नाम मानचित्रों से हटा दिया गया। बाद में 50 किलोमीटर दूर बस्ती-गोंडा सीमा पर गौर के पास एक नया गांव 'महुआ डाबर' के नाम से बसाकर यह दिखाने की कोशिश की गई कि असली गांव तो वही है। 1907 के बस्ती गजेटियर में भी यही झूठ दोहराया गया।

इतिहासकारों ने भी इस साजिश को उजागर करने के बजाय उस झूठे गांव को ही असली महुआ डाबर बताने में अपनी भूमिका निभाई। जबकि असली महुआ डाबर की राख आज भी उसी जमीन में दबी पड़ी है जहां हजारों लोग कत्ल कर दिए गए थे।

1999 में ‘महुआ डाबर संग्रहालय’ की स्थापना हुई। 2010 में लखनऊ विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग की टीम ने यहां खुदाई की। लाखौरी ईंटों से बनी दीवारें, कुएं, नालियां, जले हुए लकड़ी के टुकड़े, राख, मिट्टी के बर्तन, औजार, सिक्के, अभ्रक—सभी उस समृद्ध गांव की और उसके विध्वंस की गवाही देते हैं।

महुआ डाबर संग्रहालय के महानिदेशक और क्रांतिकारी वंशज डॉ. शाह आलम राना के प्रयासों से यह स्थल उत्तर प्रदेश पर्यटन नीति 2022 के ‘स्वतंत्रता संग्राम सर्किट’ में शामिल हुआ। 10 जून 2025 से प्रशासन ने यहां शस्त्र सलामी देना शुरू किया है।

डॉ. राना कहते हैं कि यह नरसंहार जालियांवाला बाग से कई गुना बड़ा था, फिर भी इस पर आज तक कोई ब्रिटिश अफसोस नहीं दिखा। जालियांवाला बाग में 1997 में महारानी एलिज़ाबेथ ने श्रद्धांजलि दी थी, 2013 में प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन ने इसे ब्रिटिश इतिहास की शर्मनाक घटना कहा, 2019 में टेरेसा मे ने ब्रिटिश संसद में अफसोस जताया। लेकिन महुआ डाबर की चीखें आज भी न्याय और मान्यता की राह तक रही हैं।

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