
मदुरै- वैवाहिक विवादों के जटिल जाल में फंसकर बच्चे को बदले की भावना का हथियार बनाने की प्रवृत्ति को लेकर मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै बेंच ने कड़ी नाराजगी जाहिर की है। जस्टिस एल. विक्टोरिया गोवरी की एकलपीठ ने एक महत्वपूर्ण आपराधिक संशोधन याचिका को खारिज करते हुए कहा कि तलाकशुदा महिलाओं की नई जिंदगी में पूर्व ससुराल वालों द्वारा दखल देना न केवल न्यायिक उत्पीड़न है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत महिलाओं के जीने के अधिकार, गरिमा और स्वायत्तता का उल्लंघन भी है।
इस मामले में एक पांच वर्षीय नाबालिग बच्चे की ओर से उसके दादा द्वारा मां के खिलाफ भरण-पोषण की मांग की गई थी, लेकिन कोर्ट ने इसे 'वैवाहिक वैमनस्य का बदला लेने का प्रयास' करार देते हुए याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि तलाक के बाद सह-पालन-पोषण (को-पेरेंटिंग) का मतलब लगातार मुकदमेबाजी नहीं बल्कि आपसी सहयोग है।
यह फैसला 13 नवंबर को सुनाया गया, जो 29 अगस्त को आरक्षित रखा गया था। मामला 2024 का है जिसमें याचिकाकर्ता नाबालिग विग्नेश की ओर से उसके दादा ने फैमिली कोर्ट, करूर के 21 दिसंबर 2023 के आदेश को चुनौती दी थी। फैमिली कोर्ट ने धारा 125 सीआरपीसी के तहत मां प्रिया के खिलाफ भरण-पोषण की याचिका खारिज कर दी थी, जिसमें कहा गया था कि पिता जीवित और सक्षम होने के बावजूद दादा को याचिका दायर करने का कोई अधिकार नहीं है।
हाईकोर्ट ने इस फैसले को सही ठहराते हुए विस्तृत टिप्पणियां कीं, जो आधुनिक पारिवारिक जटिलताओं और महिलाओं की असुरक्षा पर गहन चिंतन दर्शाती हैं। जस्टिस गोवरी ने फैसले की शुरुआत में ही मामले को 'आधुनिक पारिवारिक जटिलताओं के दुखद परिणाम' का प्रतीक बताया, जहां "एक नाबालिग बच्चा कल्याण की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि पूर्व ससुर की कटुता को निकालने के साधन के रूप में मुकदमेबाजी के भंवर में धकेल दिया गया है।"
मामले का पृष्ठभूमि 2009 से जुड़ी है, जब आनंदराज और प्रिया का विवाह हुआ था। 9 जुलाई 2010 को विग्नेश का जन्म हुआ। वैवाहिक मतभेदों के कारण 2013 में दोनों ने तेनी के अधीनस्थ जज के समक्ष याचिका दायर की, जिसमें पारस्परिक सहमति से तलाक मांगा गया। 14 फरवरी 2014 को तलाक ग्रांट हुआ, जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा गया कि बच्चे की कस्टडी पिता आनंदराज को मिलेगी, मां भविष्य में पिता से कोई भरण-पोषण नहीं मांगेगी, और पिता बच्चे का पूरा भरण-पोषण करेगा तथा मां से कोई वित्तीय सहायता नहीं लेगा। तलाक के बाद दोनों पक्षों ने दूसरा विवाह किया। पिता एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया में नौकरी करता है और बच्चे के नाम 1.60 लाख रुपये जमा कर चुका है, साथ ही उसके लिए लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी भी है। बच्चा करूर में दादा-दादी के पास रहता है।
याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि तलाक के बाद दोनों माता-पिता ने सुखी जीवन जीना शुरू कर दिया है, लेकिन बच्चे की चिंता किसी ने नहीं की। पिता भले ही इंश्योरेंस प्रीमियम भर रहा हो और कुछ राशि जमा की हो, लेकिन दैनिक जिम्मेदारियां नहीं निभा रहा है। मां प्रिया बैंक में अच्छी नौकरी करती है और अच्छी कमाई है, इसलिए उसे बच्चे के शिक्षा और चिकित्सा खर्चों में हिस्सा लेना चाहिए। दादा की पेंशन कम है, जो बच्चे के बढ़ते खर्चों को पूरा नहीं कर पाती।
उन्होंने फैमिली कोर्ट के फैसले को 'अतिरिक्त तकनीकी आधार' पर खारिज करने वाला बताया। दूसरी ओर प्रतिवादी मां के वकील ने इसे प्रक्रिया का दुरुपयोग करार दिया। उनका कहना था कि तलाक के समझौते में सब कुछ स्पष्ट है, पिता हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम 1956 की धारा 6 के तहत प्राकृतिक संरक्षक है, त्रिची एयरपोर्ट में 1 लाख रुपये मासिक वेतन पर नौकरी कर रहा है और पूरी तरह सक्षम है। दादा ने अपने बेटे को पक्षकार भी नहीं बनाया, इसलिए याचिका अमान्य है। मां ने दूसरा विवाह कर नई फैमिली शुरू की है, जिसमें दो बच्चे हैं, और पुराने मुद्दों को फिर से खोलना उसकी शांति में दखल है।
कोर्ट ने दोनों पक्षों के तर्कों को सुनने के बाद मामले का गहन विश्लेषण किया। सबसे पहले लॉकस स्टैंडी (याचिका दायर करने का अधिकार) पर चर्चा करते हुए जस्टिस गोवरी ने कहा, "धारा 125 सीआरपीसी 1973 के तहत नाबालिग की याचिका सामान्यतः प्राकृतिक संरक्षक द्वारा या उसके माध्यम से दायर की जानी चाहिए, जो हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम 1956 की धारा 6 के अनुसार पिता है, उसके बाद मां। यहां पिता जीवित और वित्तीय रूप से सक्षम है, इसलिए पितामह को सक्षम अदालत द्वारा संरक्षक नियुक्त किए बिना कोई अधिकार नहीं है।" कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के इस निष्कर्ष को कानूनी रूप से ठोस बताया। फिर पारस्परिक सहमति से तलाक के प्रभाव पर आते हुए उन्होंने जोर दिया कि "ऐसे समझौते, जो सक्षम अदालत द्वारा स्वीकार और दर्ज किए जाते हैं, अंतिमता प्राप्त कर लेते हैं। कोई पक्ष नई कार्यवाही के बहाने इसे अप्रत्यक्ष रूप से संशोधित या रद्द नहीं कर सकता। याचिकाकर्ता के दादा द्वारा वर्षों बाद प्रतिवादी मां को निशाना बनाकर भरण-पोषण का मुद्दा फिर से उठाना उस सहमति डिक्री की पवित्रता के विरुद्ध है।"
कोर्ट ने मुकदमेबाजी के दुरुपयोग और शांति में बाधा डालने के पहलू पर भी गहरी चिंता जताई, जस्टिस गोवरी ने कहा:
"यह अदालत वर्तमान संशोधन के पीछे की अंतर्निहित मंशा को नजरअंदाज नहीं कर सकती। प्रतिवादी मां ने वैध रूप से दूसरा विवाह किया है और अब उसके दूसरे विवाह से दो बच्चे हैं। उसने पूर्व पति या उसके परिवार के जीवन में हस्तक्षेप नहीं किया। वर्तमान कार्यवाही, जो उसके पूर्व ससुर द्वारा शुरू की गई है, वास्तव में उसकी नई वैवाहिक जिंदगी की शांति और गरिमा को भंग करने का प्रयास है। दोनों माता-पिता का नैतिक और कानूनी कर्तव्य है कि वे सह-पालन-पोषण करें और बच्चे के कल्याण में योगदान दें। लेकिन यह जिम्मेदारी आपसी सम्मान और अंतिम न्यायिक निर्णयों की सीमाओं के भीतर ही निभाई जानी चाहिए। जब माता-पिता ने बच्चे की कस्टडी और भरण-पोषण के लिए एक फ्रेमवर्क पर सहमति जताई है, तो उसका सम्मान किया जाना चाहिए। किसी एक परिवार की शाखा द्वारा बच्चे को पुराने वैवाहिक वैमनस्य को फिर से खोलने के साधन के रूप में इस्तेमाल करना न्यायिक उत्पीड़न है और शांतिपूर्ण अलगाव के माध्यम से सह-पालन-पोषण के सिद्धांत को कमजोर करता है।"
फैसले में सह-पालन-पोषण के सिद्धांत और शांतिपूर्ण पुनर्विवाह के अधिकार पर भी विस्तार से चर्चा की गई। कोर्ट ने कहा, "विवाह की संस्था और उसके विघटन का न केवल भावनात्मक बल्कि सामाजिक प्रभाव भी होता है। जब दो वयस्क पारस्परिक सहमति से विवाह भंग करते हैं, तो कानून उनसे अपेक्षा करता है कि वे एक-दूसरे के पुनर्गठित पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप किए बिना माता-पिता के सहयोग का विस्तार करें। सच्चा सह-पालन-पोषण एक-दूसरे के खिलाफ मुकदमेबाजी में नहीं, बल्कि सहमति से प्राप्त साधनों के माध्यम से बच्चे के कल्याण को सुनिश्चित करने में निहित है।"
इस मामले में पिता की वित्तीय क्षमता निर्विवाद है, इसलिए मां की कानूनी जिम्मेदारी को केवल इसलिए पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह नौकरीपेशा है। कोर्ट ने स्पष्ट किया, "प्रतिवादी मां का पुनर्विवाह, स्थिरता और शांति संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके जीने के अधिकार और गरिमा के संरक्षित पहलू हैं। अदालतें पूर्व ससुराल वालों को बच्चे के कल्याण के बहाने बार-बार मुकदमेबाजी शुरू करके उस गोपनीयता में घुसपैठ करने की अनुमति नहीं दे सकतीं, जब कानूनी संरक्षक जीवित और जिम्मेदार हो।"
अंत में कोर्ट ने फैसले को समग्र तथ्यों, याचिकाओं और कानूनी सिद्धांतों के मूल्यांकन पर आधारित बताते हुए कहा कि फैमिली कोर्ट का आदेश कानून और समता दोनों के आधार पर सही है। "वर्तमान संशोधन याचिकाकर्ता के दादा द्वारा प्रतिवादी की शांतिपूर्ण पारिवारिक जिंदगी को भंग करने का गलत प्रयास है, भले ही नाबालिग का जैविक पिता, जो याचिकाकर्ता का अपना पुत्र है, जीवित, सक्षम और पारस्परिक सहमति से तलाक डिक्री में अपनी प्रतिज्ञा से बंधा हुआ बच्चे का भरण-पोषण करने को बाध्य हो।" कोर्ट ने भरण-पोषण प्रावधानों के दुरुपयोग की निंदा की और दोहराया कि "तलाक के बाद सह-पालन-पोषण सहयोग से निर्देशित होना चाहिए, न कि टकराव से। जो माता-पिता ने वैध रूप से नई राहें चुनी हैं, उन्हें शांति से जीने दिया जाना चाहिए, जबकि बच्चे का कल्याण सहमति से तय तरीके से सुरक्षित किया जाना चाहिए।"
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