इंजीनियर्स डे पर बहस: बहुजन मानते हैं विश्वेश्वरैया को जातिवादी, जानिये सर एम.वी. ने क्यों छोड़ा था मैसूर दीवान पद

विश्वेश्वरैया का मानना था कि नौकरियों और शिक्षा में योग्यता (मेरिट) को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, न कि जाति-आधारित कोटा लागू किया जाना चाहिए।
1919 में जब मैसूर के महाराजा कृष्णराज वाडियार चतुर्थ ने कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया, तो विश्वेश्वरैया ने दीवान पद से इस्तीफा दे दिया।
1919 में जब मैसूर के महाराजा कृष्णराज वाडियार चतुर्थ ने कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया, तो विश्वेश्वरैया ने दीवान पद से इस्तीफा दे दिया।
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आज इंजीनियर्स डे के अवसर पर जब देश भर में भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया (सर एम.वी.) को उनकी इंजीनियरिंग और प्रशासनिक उपलब्धियों के लिए याद किया जा रहा है, उनके आरक्षण विरोधी रुख और कथित जातिवादी दृष्टिकोण को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। बहुजन समुदाय के कुछ लोग और सामाजिक कार्यकर्ता सर एम.वी. को जातिवादी मानते हैं, जबकि इतिहासकार और उनके समर्थक इसे गलत व्याख्या करार देते हैं।


सर विश्वेश्वरैया, जो 1912 से 1918 तक मैसूर रियासत के दीवान थे, ने अपने कार्यकाल में बुनियादी ढांचे, शिक्षा और औद्योगिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन 1918 में गैर-ब्राह्मण और पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की सिफारिश करने वाली मिलर कमेटी का उन्होंने कड़ा विरोध किया। विश्वेश्वरैया का मानना था कि नौकरियों और शिक्षा में योग्यता (मेरिट) को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, न कि जाति-आधारित कोटा लागू किया जाना चाहिए।

1919 में जब मैसूर के महाराजा कृष्णराज वाडियार चतुर्थ ने कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया, तो विश्वेश्वरैया ने दीवान पद से इस्तीफा दे दिया।
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स्वतंत्रता-पूर्व भारत में पहला जाति-आधारित आरक्षण

सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को 1912 में मैसूर रियासत का दीवान नियुक्त किया गया था। उस समय यह शिकायत थी कि सरकारी क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व है। इसलिए अन्य जातियों (लिंगायत और वोक्कलिगा) के लोगों ने तत्कालीन महाराजा नलवादी कृष्ण वोडियार को पत्र लिखकर इस स्थिति को सुधारने के लिए कदम उठाने की मांग की।

जब महाराजा ने दीवान (सर एम.वी.) से इस पर राय मांगी, तो उन्होंने कहा कि योग्यता ही निर्णायक कारक होनी चाहिए, क्योंकि योग्यता की अनुपस्थिति से प्रशासन में अक्षमता आएगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि वे गैर-ब्राह्मणों के खिलाफ थे। उन्होंने महाराजा को सुझाव दिया कि ऐसे लोगों के लिए स्कूल खोले जाएं ताकि उन्हें सशक्त किया जा सके।

इतिहास में दर्ज है कि इस मुद्दे पर दोनों के बीच कई पत्रों का आदान-प्रदान हुआ, और चूंकि महाराजा सर एम.वी. के विचारों से सहमत नहीं थे, उन्होंने कथित तौर पर 1918 में उन्हें दीवान पद से इस्तीफा देने के लिए कहा।

बाद में, 1919 में महाराजा द्वारा गठित मिलर समिति ने सिफारिश की कि सात वर्षों की अवधि में सभी सरकारी क्षेत्रों में पिछड़े वर्गों की भागीदारी को कम से कम 50% तक धीरे-धीरे बढ़ाया जाए। हालांकि, समिति का यह भी मानना था कि चयनित व्यक्तियों के पास आवश्यक योग्यता होनी चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि यह स्वतंत्रता-पूर्व भारत में पहला जाति-आधारित आरक्षण था।

क्या विश्वेश्वरैया वास्तव में जातिवादी थे?

इतिहासकारों का कहना है कि विश्वेश्वरैया का आरक्षण विरोध योग्यता और प्रशासनिक दक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से प्रेरित था, न कि जातिगत भेदभाव से। उन्होंने पिछड़े और दलित समुदायों के लिए शिक्षा के विस्तार, उदार छात्रवृत्तियों और प्रशिक्षण जैसे वैकल्पिक उपायों की वकालत की थी। उनके समर्थक तर्क देते हैं कि उन्होंने जातिगत रूढ़ियों को तोड़ा, जैसे कि विदेश यात्रा पर प्रतिबंध जैसे रूढ़िवादी नियमों का विरोध किया, और राष्ट्रीय प्रगति को सर्वोपरि माना।

हालांकि, बहुजन विचारकों का कहना है कि योग्यता पर उनका जोर सामाजिक और ऐतिहासिक असमानताओं को नजरअंदाज करता था। सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं, विश्वेश्वरैया का आरक्षण विरोध उस समय के सामाजिक ढांचे को बनाए रखने की कोशिश थी, जो ब्राह्मणों को लाभ पहुंचाता था। यह उनके जातिवादी होने का प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं, लेकिन उनकी नीतियां अप्रत्यक्ष रूप से विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों को समर्थन देती थीं।

1919 में जब मैसूर के महाराजा कृष्णराज वाडियार चतुर्थ ने कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया, तो विश्वेश्वरैया ने दीवान पद से इस्तीफा दे दिया।
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1919 में जब मैसूर के महाराजा कृष्णराज वाडियार चतुर्थ ने कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया, तो विश्वेश्वरैया ने दीवान पद से इस्तीफा दे दिया।
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