
भोपाल। मध्य प्रदेश में पिछले कई वर्षों से लंबित पड़े प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे ने एक बार फिर हाईकोर्ट में जोर पकड़ लिया है। गुरुवार को जबलपुर हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच के समक्ष सपाक्स संगठन द्वारा दायर याचिका पर हुई सुनवाई के दौरान क्रीमीलेयर को हटाने और क्वांटिफायबल डेटा प्रस्तुत न किए जाने को लेकर लंबी और विस्तृत बहस चली। अदालत ने याचिकाकर्ताओं की दलीलें सुनने के बाद मामले को आगे के लिए बढ़ाते हुए अगली सुनवाई 20 और 21 नवंबर को तय कर दी है।
इन दोनों तारीखों को होने वाली सुनवाई बेहद महत्वपूर्ण मानी जा रही है, क्योंकि इन्हीं तारीखों में याचिकाकर्ता अपनी अंतिम जिरह पूरी करेंगे और उसके बाद राज्य सरकार अपना पक्ष रखेगी। लाखों कर्मचारियों से जुड़े इस बहुचर्चित मामले में सम्भावना जताई जा रही है कि हाईकोर्ट जल्द ही कोई निर्णायक दिशा तय कर सकता है।
गुरुवार की सुनवाई के दौरान सपाक्स के वकीलों ने विस्तार से तर्क दिया कि मध्य प्रदेश सरकार की नई प्रमोशन पॉलिसी सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मानकों का पालन नहीं करती। याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए अधिवक्ता अमोल श्रीवास्तव ने अदालत को बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसलों, विशेषकर एम नागराज, जनरैल सिंह (2018) और 2022 के निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा है कि प्रमोशन में आरक्षण का लाभ तभी दिया जा सकता है, जब सरकार क्रीमीलेयर को एक्सक्लूड करे, क्वांटिफायबल बैकवर्डनेस के ठोस आंकड़े प्रस्तुत करे, प्रशासन में उनकी संख्या की कमी को दर्शाए और इससे होने वाले कुल प्रशासनिक प्रभाव की जांच करे।
लेकिन मध्यप्रदेश की नई प्रमोशन नीति में इन आवश्यक बातों का कोई स्पष्ट ढांचा नज़र नहीं आता है। वकील श्रीवास्तव ने कहा कि “आरक्षण का लाभ केवल उन्हीं तक पहुँचना चाहिए, जो वास्तव में इसके पात्र और जरूरतमंद हैं। यदि क्रीमीलेयर को हटाए बिना इसे लागू किया जाता है, तो आरक्षण का उद्देश्य ही नष्ट हो जाएगा।”
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसलों का हवाला
सपाक्स पक्ष द्वारा यह भी तर्क दिया गया कि राज्य सरकार जिस आरबी राय केस का हवाला दे रही है, उसके मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट पहले से ही विस्तृत निर्देश और निर्णय दे चुका है। जनरैल सिंह के फैसले में सर्वोच्च अदालत ने राज्यों को यह स्पष्ट रूप से बताया था कि क्रीमीलेयर को हटाना अनिवार्य है और प्रमोशन में आरक्षण तभी दिया जा सकता है जब राज्य ठोस डेटा के आधार पर यह साबित कर दे कि संबंधित वर्ग प्रशासन में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करता। इन परिस्थितियों में राज्य सरकार की नई नीति न सिर्फ अस्पष्ट है, बल्कि संवैधानिक कसौटी पर खरी भी नहीं उतरती।
2002 से शुरू हुआ विवाद
मध्यप्रदेश में प्रमोशन पर रोक की पूरी पृष्ठभूमि भी हाईकोर्ट में उठी। यह मुद्दा वर्ष 2002 से चल रहा है, जब तत्कालीन सरकार ने पदोन्नति नियमों में संशोधन करके प्रमोशन में आरक्षण लागू कर दिया था। उसके बाद कर्मचारियों ने इस नीति को चुनौती दी और तर्क दिया कि प्रमोशन का लाभ केवल एक बार मिलना चाहिए और निरंतर आरक्षण से मेरिट तथा दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। लंबी सुनवाई के बाद एमपी हाईकोर्ट ने 30 अप्रैल 2016 को प्रमोशन नियम 2002 को खारिज कर दिया। सरकार इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुँची, लेकिन शीर्ष अदालत ने यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया। तब से अब तक प्रदेश में प्रमोशन की प्रक्रिया रोकी हुई है, जिससे हजारों कर्मचारी वर्षों से पदोन्नति की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
सरकार ने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए नई प्रमोशन पॉलिसी तैयार की, जिसे अब हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है। नई नीति के अनुसार, रिक्त पदों का वर्गवार विभाजन किया जाएगा, जिसमें SC को 16% और ST को 20% आरक्षित हिस्सेदारी दी जाएगी। पहले SC-ST के पद भरे जाएंगे और उसके बाद शेष पदों के लिए सभी वर्गों के कर्मचारियों को मौका मिलेगा।
अजाक्स संघ के प्रवक्ता विजय शंकर श्रवण ने द मूकनायक से बातचीत में कहा, "प्रशासनिक अधिकारी हाईकोर्ट में राज्य का पक्ष मजबूती से नहीं रख पा रहे हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि या तो यह प्रशासकीय लापरवाही है या फिर इच्छाशक्ति की कमी। हम मांग करते हैं कि सरकार तत्काल इस मामले में सक्रिय हस्तक्षेप करे और अदालत में ठोस तर्कों के साथ राज्य का पक्ष रखे, ताकि प्रमोशन में आरक्षण लागू हो सके।”
क्या है प्रक्रिया?
क्लास-1 अधिकारियों के लिए मेरिट और सीनियरिटी दोनों को आधार बनाया जाएगा, जबकि क्लास-2 और उससे नीचे के पदों पर केवल सीनियरिटी के अनुसार सूची बनेगी। प्रमोशन के लिए कर्मचारी की ACR का मजबूत होना अनिवार्य है, यानी पिछले दो वर्षों में एक बार आउटस्टैंडिंग या सात वर्षों में कम से कम चार बार A+ दर्ज होना चाहिए। यदि किसी कर्मचारी की ACR विभागीय त्रुटि के कारण भी नहीं बनी है, तो भी उसे प्रमोशन नहीं मिलेगा। इस कठोर प्रावधान पर भी अदालत में सवाल उठे।
अगली सुनवाई में हो सकता है फैसला!
अब हाईकोर्ट में होने वाली 20 और 21 नवंबर की सुनवाई इस पूरे विवाद का अहम मोड़ साबित हो सकती है। अदालत यह जांचेगी कि क्या सरकार द्वारा प्रस्तुत नीति संविधान और सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुरूप है? क्या क्रीमीलेयर को हटाए बिना प्रमोशन में आरक्षण लागू किया जा सकता है? क्या राज्य के पास पर्याप्त क्वांटिफायबल डेटा है जो आरक्षण की आवश्यकता को साबित करता हो? और सबसे महत्वपूर्ण, क्या नई नीति से प्रशासन की दक्षता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है?
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