
नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने उस आयोग का कार्यकाल दूसरी बार बढ़ा दिया है, जो यह जांच कर रहा है कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले दलितों को अनुसूचित जाति (SC) का दर्जा दिया जाना चाहिए या नहीं। सरकार के इस कदम ने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकार की नीयत पर संदेह करने के लिए मजबूर कर दिया है।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने पिछले सप्ताह एक राजपत्र अधिसूचना जारी की। इसके तहत भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए छह महीने का और समय दिया गया है।
क्या है आयोग का इतिहास?
इस आयोग का गठन अक्टूबर 2022 में दो साल के लिए किया गया था। इसका मुख्य काम यह परखना है कि क्या धर्मांतरण के बाद भी दलितों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। पिछले साल जब आयोग अपनी रिपोर्ट पूरी नहीं कर सका था, तब इसे एक साल का पहला विस्तार दिया गया था।
कार्यकर्ताओं ने उठाए सवाल
पसमांदा मुसलमानों के अधिकारों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गुरिंदर आजाद का मानना है कि आयोग को दूसरा विस्तार देना यह दर्शाता है कि सरकार इस संवेदनशील मुद्दे पर गंभीर नहीं है। पसमांदा मुसलमान अक्सर अपने ही समुदाय के भीतर भेदभाव का शिकार होते हैं।
आजाद ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा, "दलित ईसाई और दलित मुस्लिम SC दर्जे के पूरी तरह हकदार हैं। वे न केवल अपने समुदायों में भेदभाव झेलते हैं, बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी काफी दयनीय है। आयोग का गठन एक स्वागत योग्य कदम था, लेकिन बार-बार कार्यकाल बढ़ाने से ऐसा लगता है कि यह कार्रवाई बिना किसी वास्तविक इरादे के, केवल राजनीतिक मजबूरी के तहत की गई थी।"
कोटा बढ़ाने की मांग
गुरिंदर आजाद ने मौजूदा SC कोटे को भी बढ़ाने की मांग की है। उनका कहना है कि यदि दलित ईसाइयों और मुस्लिमों को इसमें शामिल किया जाता है, तो उनकी संयुक्त आबादी के हिसाब से 15 प्रतिशत का मौजूदा कोटा नाकाफी होगा। उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान में सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में यह 15 प्रतिशत कोटा भी ठीक से नहीं भरा जा रहा है।
संवैधानिक स्थिति और इतिहास
भारतीय संविधान में मूल रूप से हिंदू और सिख धर्म के दलितों के लिए आरक्षण जैसी सकारात्मक कार्रवाई का प्रावधान है। साल 1991 में इसमें संशोधन कर बौद्ध धर्म अपनाने वाले दलितों को भी इसका लाभ दिया गया, लेकिन दलित मुस्लिमों और ईसाइयों को इससे बाहर रखा गया।
गौर करने वाली बात यह है कि 2008 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने इस मुद्दे के अध्ययन के लिए एक समिति गठित की थी। उस समिति ने भी इन दोनों समुदायों को SC का दर्जा देने की सिफारिश की थी।
क्षेत्रीय असमानता की चिंता
इस मामले पर दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर एक अलग पहलू उजागर किया। उन्होंने बताया कि धर्मांतरित दलितों को SC दर्जा देने की मांग का विरोध अक्सर खुद दलित समुदाय के भीतर से भी होता रहा है।
उन्होंने एक और महत्वपूर्ण समस्या की ओर इशारा किया—क्षेत्रीय असमानता। प्रोफेसर के अनुसार, "दक्षिण भारत के राज्यों में दलित ईसाई और दलित मुस्लिम शिक्षा और आर्थिक रूप से उत्तर भारत की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। ऐसे में डर है कि वे आरक्षण का बड़ा हिस्सा ले सकते हैं, जबकि इन समुदायों के सबसे पिछड़े और वंचित लोग हाशिए पर ही रह जाएंगे।"
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