'सर तन से जुदा' के नारे पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने क्या कहा?

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा- पैगंबर ने कभी अपमान करने वालों का सिर कलम करने की बात नहीं कही; यह नारा इस्लाम के खिलाफ और देश की संप्रभुता को चुनौती है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट
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प्रयागराज: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण सुनवाई के दौरान सख्त टिप्पणी करते हुए कहा है कि "गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा, सर तन से जुदा" जैसा नारा लगाना न केवल कानून के अधिकार को चुनौती देना है, बल्कि यह भारत की संप्रभुता और अखंडता पर भी प्रहार है। अदालत ने इसे समाज में सशस्त्र विद्रोह भड़काने वाला कृत्य बताया और कहा कि यह इस्लाम के मूल सिद्धांतों के भी खिलाफ है।

आरोपी की जमानत याचिका खारिज

बुधवार (17 दिसंबर 2025) को न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। कोर्ट ने इस विवादित नारे को लगाने के आरोपी मोहम्मद रिहान की जमानत याचिका को सिरे से खारिज कर दिया। अदालत का यह फैसला सितंबर 2025 में बरेली में हुई हिंसा के संदर्भ में आया है।

मामले के अनुसार, बरेली में 'आई लव मोहम्मद' लिखे पोस्टरों को लेकर विवाद हुआ था, जिसने बाद में हिंसक रूप ले लिया था। पुलिस जांच में सामने आया है कि हिंसा के दौरान आरोपियों ने सरकार विरोधी नारेबाजी की थी और पैगंबर का अपमान करने वालों का सिर कलम करने के नारे लगाए थे। इसके बाद भीड़ ने पुलिस और आम राहगीरों पर पथराव भी किया था।

धार्मिक नारे और कानून की सीमा

अदालत ने अपने आदेश में धार्मिक नारों और उकसावे के बीच का अंतर स्पष्ट किया। कोर्ट ने कहा कि "नारा-ए-तकबीर", "अल्लाहु अकबर", "जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल", "जय श्री राम" या "हर हर महादेव" जैसे धार्मिक उद्घोष करना तब तक अपराध नहीं है, जब तक कि इनका इस्तेमाल दुर्भावनापूर्ण तरीके से दूसरे धर्म के लोगों को डराने के लिए न किया जाए।

हालांकि, हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भीड़ द्वारा ऐसा कोई भी नारा लगाना, जो भारतीय न्याय संहिता (BNS) या अन्य आपराधिक कानूनों में निर्धारित सजा से हटकर सीधे 'मौत की सजा' की बात करता हो, वह असंवैधानिक है। यह भारतीय कानूनी प्रणाली के लिए एक चुनौती है, जो लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संवैधानिक उद्देश्यों पर आधारित है।

कुरान और पैगंबर की शिक्षाओं का दिया हवाला

जस्टिस देशवाल ने एक अहम अवलोकन करते हुए कहा कि विवादित नारे का कुरान या मुसलमानों के किसी भी धार्मिक ग्रंथ में कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसके बावजूद, कई लोग बिना इसका सही अर्थ और परिणाम समझे इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं।

अदालत ने पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवन का उदाहरण देते हुए कहा, "ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जो बताते हैं कि पैगंबर मोहम्मद ने अपना अपमान करने वालों के प्रति भी दया और क्षमा का भाव रखा था। उन्होंने कभी भी ऐसे व्यक्तियों का सिर कलम करने की इच्छा नहीं जताई थी।"

क्या है पूरा मामला?

गौरतलब है कि यह मामला बरेली हिंसा से जुड़ा है। उत्तर प्रदेश पुलिस ने इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना तौकीर रजा को भीड़ को उकसाने और हिंसा फैलाने का मुख्य साजिशकर्ता माना है। पुलिस के मुताबिक, इसी उकसावे के बाद भीड़ ने कानून को अपने हाथ में लेने की कोशिश की थी। कोर्ट ने माना कि इस तरह के नारे कानून के शासन (Rule of Law) को कमजोर करने का प्रयास हैं।

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