
हैदराबाद: कहते हैं वक्त बदलते देर नहीं लगती, लेकिन पुरुसुला पेद्दा लिंगम्मा के लिए वक्त बदलना किसी चमत्कार से कम नहीं था। एक समय था जब उनका जीवन गुलामी के अंधेरों में कैद था, लेकिन आज वह उम्मीद की एक नई किरण बनकर उभरी हैं। चेंचू आदिवासी समुदाय से आने वाली लिंगम्मा, जो कभी बंधुआ मजदूर थीं, अब नागरकुर्नूल जिले के रामागिरी गांव की सरपंच बन गई हैं।
उनका यह सफर—आजादी को एक "दूर का सपना" समझने से लेकर एक जिम्मेदार पद संभालने तक—उनके समुदाय के लिए बदलाव का एक बड़ा संदेश है।
14 दिसंबर को हुए चुनावों में सरपंच का पद अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षित था। इसी चुनाव में 60 वर्षीय लिंगम्मा को 300 परिवारों वाले रामागिरी गांव का नेतृत्व करने के लिए चुना गया। उनके साथ छह वार्ड सदस्य भी निर्वाचित हुए हैं। लिंगम्मा के लिए यह जीत सिर्फ एक पद नहीं, बल्कि उस सफर का प्रमाण है जिसकी कल्पना कुछ साल पहले तक करना भी नामुमकिन था।
लिंगम्मा की यादों में आज भी उनका पुराना जीवन ताजा है। उन्हें और उनके साथियों को आजादी साल 2016 में मिली, जब सरकारी अधिकारियों ने इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी की प्रथा का पर्दाफाश किया। उस वक्त लिंगम्मा समेत 106 लोगों को रेस्क्यू (बचाया) किया गया था। अधिकारियों के मुताबिक, इनमें से कई लोग तीन दशकों यानी 30 साल तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए थे।
लिंगम्मा अपना दर्द बयां करते हुए कहती हैं, "मुझे बस इतना याद है कि मैं बचपन से ही अपने परिवार के साथ बंधुआ मजदूर थी।"
रामागिरी और उसके आसपास के गांवों में हालात बेहद खराब थे। मछली के व्यापार पर कब्जा जमाए बैठे तीन स्थानीय व्यापारियों ने लगभग 44 चेंचू आदिवासियों को जबरन बंधुआ मजदूर बना रखा था। इन मजदूरों को बेहद कम मजदूरी दी जाती थी और कर्ज के जाल में फंसाकर रखा जाता था। उन्हें केवल अपने मालिकों के लिए मछली पकड़ने और जाल की मरम्मत करने के लिए मजबूर किया जाता था।
लिंगम्मा के बहनोई, कुरुमन्ना, जिन्होंने खुद एक दशक से ज्यादा समय बंधुआ मजदूरी में बिताया, बताते हैं, "वह हमारे लिए पूरी तरह से निराशाजनक स्थिति थी। लेकिन जब कुछ लोगों को हमारे हालात का पता चला, तो उन्होंने सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर हमें वहां से निकालने की पहल की।" उन्होंने कहा कि अब डर बीती बात हो चुका है।
आजादी मिलने के बाद, इन मुक्त हुए मजदूरों ने हार नहीं मानी। उन्होंने एकजुट होकर एक संगठन बनाया और अपनी जिंदगी को फिर से पटरी पर लाने की कोशिश शुरू की। उन्होंने आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाया और सरकार के सामने अपनी समस्याएं रखनी शुरू कीं।
इस संघर्ष में लिंगम्मा एक प्रमुख आवाज बनकर उभरीं। वह कहती हैं, "मैं चेंचू आदिवासियों के मुद्दों को सरकार के सामने उठाने में सबसे आगे थी। चूंकि मैं सबके भले के लिए काम कर रही थी, इसलिए रामागिरी के ग्रामीणों को लगा कि मुझे सरपंच पद के लिए चुनाव लड़ना चाहिए। मुझे भी यह जिम्मेदारी उठाने में दिलचस्पी थी।"
हालांकि, यह चुनाव उनके लिए भावनात्मक रूप से आसान नहीं था। उनके सगे छोटे भाई भी इस चुनावी मैदान में उनके खिलाफ खड़े थे। मुकाबले के नतीजों में उनके भाई को 91 वोट मिले, जबकि लिंगम्मा ने 133 वोटों के साथ जीत हासिल की।
इस पर लिंगम्मा बड़ी ही परिपक्वता से कहती हैं, "शुरुआत में मुझे थोड़ा बुरा लगा, लेकिन मुझे एहसास हुआ कि राजनीति में ऐसा होता है। मुझे अपने परिवार या गांव में किसी से कोई शिकायत नहीं है। लोगों ने अपने वोटों से मुझे चुना है, और अब मेरा समय है कि मैं अपनी जिम्मेदारियों को पूरी निष्ठा से निभाऊं।"
लिंगम्मा से बातचीत करना भी उनके सामने मौजूद चुनौतियों को दर्शाता है। उनके गांव के हिस्से में मोबाइल नेटवर्क इतना कमजोर है कि बात करने के लिए उन्हें उस जगह ले जाना पड़ा जहां सिग्नल आता हो। एक महिला जो कभी बिना आजादी के जीती थी, उसके लिए नेटवर्क का वह कमजोर सिग्नल भी अब नेतृत्व की एक मजबूत आवाज बनकर दुनिया तक पहुंच रहा है।
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