महिला वकील ने लगाया 'विवाह के झूठे वादे' पर रेप का आरोप, मदास हाईकोर्ट ने कहा- सहमति से बनाया सम्बन्ध अपराध नहीं!

पांच साल तक चले सहमतिपूर्ण संबंधों के बाद अवहेलना का मामला दर्ज करना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग: जस्टिस बी. पुगलेंधी
अदालत ने स्पष्ट किया कि सहमति से शुरू हुए रिश्ते के बाद में बिगड़ जाने पर उसे आपराधिक रूप नहीं दिया जा सकता।
अदालत ने स्पष्ट किया कि सहमति से शुरू हुए रिश्ते के बाद में बिगड़ जाने पर उसे आपराधिक रूप नहीं दिया जा सकता।इन्टरनेट
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मदुरै- मद्रास उच्च न्यायालय की मदुराई पीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि भले ही बाद में रिश्ता टूट जाए लेकिन दो वयस्कों के बीच सहमति से बने शारीरिक संबंधों को अपराध का रंग नहीं दिया जा सकता। जस्टिस बी. पुगलेंधी की खंडपीठ ने 'विवाह के झूठे वादे' के आधार पर चल रहे एक आपराधिक मामले को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की।

यह मामला डिंडीगल की एक महिला वकील और सार्वनन नामक एक व्यक्ति के बीच के रिश्ते से जुड़ा था। महिला ने आरोप लगाया था कि सार्वनन ने उनसे शादी का झूठा वादा करके 2020 से 2025 तक उनके साथ शारीरिक संबंध बनाए और बाद में जातिगत अंतर का हवाला देकर शादी से इनकार कर दिया। इस पर दिंडीगल पुलिस ने भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 69 (झूठा विवाह का वादा) और धारा 351(2) (आपराधिक धमकी) के तहत मामला दर्ज किया था।

अदालत ने आरोपी सार्वनन की याचिका पर सुनवाई करते हुए इस मामले में चल रही कार्यवाही को रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि मामले के तथ्य और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व के फैसलों को देखते हुए, यहां आपराधिक दायित्व तय नहीं होता।

जस्टिस पुगलेंधी ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के कई महत्वपूर्ण निर्णयों का हवाला दिया। उन्होंने दीपक गुलाटी बनाम हरियाणा राज्य मामले का उल्लेख करते हुए कहा, "जब तक यह साबित न हो कि शुरुआत से ही धोखा देने का इरादा था, तब तक बाद में शादी न करना आपराधिक दायित्व नहीं बनता।" कोर्ट ने कहा कि केवल वादा भंग होना और झूठा वादा करना, दोनों में अंतर है।

इसी तरह, माहेश दामू खरे बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को उद्धृत करते हुए कहा गया, "जब शारीरिक संबंध लंबे समय तक बिना किसी आपत्ति के जारी रहते हैं, तो यह कहना असंगत हो जाता है कि सहमति धोखे के आधार पर थी। ऐसे लंबे समय तक चलने वाले रिश्ते आपराधिक दायित्व को कमजोर कर देते हैं।"

अदालत ने अमोल भगवान नेहुल और बिश्वज्योति चटर्जी के मामलों का भी हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि सहमति से शुरू हुए रिश्ते के बाद में बिगड़ जाने पर उसे आपराधिक रूप नहीं दिया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में कानूनी कार्रवाई करना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है।

महिला वकील होने के नाते पीड़िता की शैक्षणिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए अदालत ने कहा कि वह एक शिक्षित वयस्क और कानून की जानकार हैं, जो अपने कार्यों के परिणामों को समझने में सक्षम थीं। ऐसे में, उनके स्वेच्छा से बने रिश्ते को अब धोखा नहीं कहा जा सकता।

अदालत ने समकालीन सामाजिक वास्तविकताओं को स्वीकार करते हुए एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा, "आज के समय में सहमति रखने वाले वयस्कों के बीच विवाहपूर्व घनिष्ठता के मामले असामान्य नहीं हैं। आपराधिक प्रक्रिया का इस्तेमाल निजी आचरण पर नैतिकता का पाठ पढ़ाने या व्यक्तिगत निराशा को मुकदमेबाजी में बदलने के लिए नहीं किया जा सकता। अदालतें कानूनीता से निपटती हैं, नैतिकता से नहीं।"

अदालत ने चिंता जताई कि हाल के दिनों में इस तरह की शिकायतों में वृद्धि देखी गई है, जहाँ स्वेच्छा से बने रिश्तों को बाद में धोखे के मामले के रूप में पेश किया जाता है। कोर्ट ने कहा कि निजी रिश्तों के विवादों में आपराधिक प्रक्रिया को लागू करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना जरूरी है।

आखिरकार अदालत ने फैसला सुनाया कि इस मामले में अभियोजन जारी रखना कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग के समान होगा। इसके साथ ही डिंडीगल के जुडिशल मजिस्ट्रेट की अदालत में लंबित PRC No.75 of 2025 को रद्द कर दिया गया।

अदालत ने स्पष्ट किया कि सहमति से शुरू हुए रिश्ते के बाद में बिगड़ जाने पर उसे आपराधिक रूप नहीं दिया जा सकता।
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अदालत ने स्पष्ट किया कि सहमति से शुरू हुए रिश्ते के बाद में बिगड़ जाने पर उसे आपराधिक रूप नहीं दिया जा सकता।
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