MP ग्वालियर हाई कोर्ट का अहम फैसला: संपत्ति में हिस्सा नहीं, लेकिन बहुओं को वैवाहिक घर से बेदखल नहीं किया जा सकता

हाई कोर्ट की एकल पीठ ने कहा, कि बेटियों या बहुओं को भले ही संपत्ति में उत्तराधिकारी का दर्जा न मिले, लेकिन वैवाहिक घर में रहने का अधिकार एक अलग और मान्यता प्राप्त अधिकार है।
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट खंडपीठ, ग्वालियर
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भोपाल। मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय की ग्वालियर खंडपीठ ने हाल ही में दिए एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि शादीशुदा बहुओं को भले ही ससुराल की संपत्ति में स्वामित्व या हिस्सेदारी का अधिकार न हो, लेकिन उन्हें वैवाहिक घर में रहने का अधिकार अवश्य है। अदालत ने स्पष्ट किया कि यह अधिकार महिलाओं का कानूनी और संरक्षित अधिकार है और उन्हें इस घर से जबरन बेदखल नहीं किया जा सकता। अदालत ने इस मामले में सास की आपत्ति याचिका को खारिज करते हुए बहुओं के पक्ष में आदेश पारित किया।

जानिए क्या है पूरा मामला?

यह मामला ग्वालियर के थाटीपुर इलाके का है। यहां रहने वाले एक परिवार की दो बहुओं ने अदालत में मुकदमा दायर किया था। उनका आरोप था कि ससुराल पक्ष उन्हें मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना देकर वैवाहिक घर से बाहर निकालने का प्रयास कर रहा है। उन्होंने कहा कि वे इस घर में वैवाहिक रिश्ते के आधार पर रह रही हैं और उन्हें यहां से बेदखल करना उनके अधिकारों का उल्लंघन होगा। दूसरी ओर, उनकी सास ने अदालत में आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि उनकी बहुएं संपत्ति में हिस्सेदारी का दावा नहीं कर सकतीं। ऐसे में उनके द्वारा दायर मुकदमा स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।

सास की ओर से दी गई दलील में कहा गया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत बहुओं को संपत्ति में कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है। इस कानून के मुताबिक संपत्ति का बंटवारा और उत्तराधिकार बेटियों, बेटों और अन्य उत्तराधिकारियों तक सीमित रहता है। इसलिए बहुओं के द्वारा मुकदमा दायर करने का कोई आधार नहीं बनता। वहीं बहुओं ने अदालत से अपील की कि उनके वैवाहिक घर में रहने के अधिकार की रक्षा की जाए और उन्हें जबरन निकाले जाने से रोका जाए।

कोर्ट ने कहा,- 'बहुओं को घर में रहने का अधिकार'

मामले की सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट की एकल पीठ ने कहा, किया कि बेटियों या बहुओं को भले ही संपत्ति में उत्तराधिकारी का दर्जा न मिले, लेकिन वैवाहिक घर में रहने का अधिकार एक अलग और मान्यता प्राप्त अधिकार है।

अदालत ने कहा कि घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, 2005 के तहत यह अधिकार बहुओं को दिया गया है और इसे छीना नहीं जा सकता। अदालत ने यह भी कहा कि यदि किसी मुकदमे में कई प्रकार की राहत मांगी गई हो और उनमें से कोई एक राहत भी विधिसम्मत हो, तो मुकदमे को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जा सकता।

इस आधार पर हाई कोर्ट ने निचली अदालत द्वारा बहुओं की याचिका खारिज करने के आदेश को रद्द कर दिया और मुकदमे को आगे बढ़ाने की अनुमति दी। अदालत ने यह साफ कर दिया कि संपत्ति में हिस्सा और वैवाहिक घर में रहने का अधिकार, दोनों अलग-अलग मुद्दे हैं। इसलिए केवल संपत्ति में हिस्सेदारी का अधिकार न होने के कारण बहुओं को वैवाहिक घर से बाहर नहीं किया जा सकता।

कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक बड़ी नजीर पेश करता है। द मूकनायक से बातचीत में अधिवक्ता मयंक सिंह ने कहा, "अक्सर देखा जाता है कि परिवारिक विवादों या संपत्ति के झगड़ों में बहुओं को सबसे पहले घर से निकालने की कोशिश की जाती है। अदालत का यह फैसला साफ करता है कि विवाह के बाद महिला का वैवाहिक घर उसका कानूनी निवास है और इस पर उसका संरक्षण सुनिश्चित है। यह आदेश उन तमाम महिलाओं के लिए राहत लेकर आया है, जो ऐसी परिस्थितियों में असुरक्षित महसूस करती हैं।"

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