
भोपाल। "मैं सिंगरौली का जंगल हूँ। सदियों से इस धरती को सांस देता आया हूँ, लेकिन अब मुझे उखाड़ फेंकने की तैयारी है। मेरी जड़ों के नीचे छिपे कीमती कोयले ने मेरी किस्मत तय कर दी है, उसे निकालकर पैसा कमाने की चाह में लोग मुझे मिटाने पर आमादा हैं, और इस चाह में सत्ता भी शामिल दिखती है। मेरे भीतर 300 वर्ष पुराने पेड़ खड़े हैं, जो आदिवासियों के जीवन, संस्कृति और पर्यावरण की ढाल हैं। लेकिन आज लगता है किसी को मेरी हरियाली से ज्यादा मेरी मिट्टी के नीचे दबा काला सोना प्यारा है। मेरी गोद में पले वन्य प्राणी डर से सिमट गए हैं, और मैं... अपनी ही मौत की दस्तक सुन रहा हूँ।"
शायद यही वह मौन पुकार थी, जिसे जंगल तो कह नहीं पाया, पर लोगों के अंतरमन ने जरूर महसूस किया। बीते शुक्रवार विधानसभा में सिंगरौली में व्यापक पैमाने पर हो रही पेड़ों की कटाई का मुद्दा उठाया गया, शायद इसलिए कि प्रकृति की यह करुण आवाज अब अनसुनी नहीं रह सकी।
ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाते हुए कांग्रेस विधायक विक्रांत भूरिया और जयवर्धन सिंह ने दावा किया कि सिंगरौली के जंगलों में लगभग छह लाख पेड़ काटे जा रहे हैं, जिससे न केवल पर्यावरण को भारी नुकसान होगा बल्कि आदिवासी समुदाय का जीवन भी संकट में पड़ जाएगा। कांग्रेस का आरोप है कि सरकार पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए गरीब आदिवासियों के अधिकारों को कुचल रही है।
भूरिया ने इसे अवैध कार्रवाइयों से जोड़ते हुए सवाल किया-“यदि पेड़ कटाई नियमों के अनुसार हो रही है, तो स्थानीय लोगों में विरोध की स्थिति क्यों उत्पन्न हो रही है?” इसके साथ ही उन्होंने आठ गांवों को अधिसूचित क्षेत्र से बाहर किए जाने पर सरकार से स्पष्टीकरण मांगा।
कांग्रेस ने आरोप लगाया कि तीन कोयला खदानें अदाणी समूह को सौंपने के नाम पर बड़े पैमाने पर वन क्षेत्र साफ किया जा रहा है। भूरिया ने यह भी सवाल उठाया कि सिंगरौली में काटे गए पेड़ों को सागर और शिवपुरी में लगाया जाना किस तरह तर्कसंगत है।
उन्होंने कहा, “अदाणी को श्रेष्ठ दिखाने के लिए आदिवासियों की जमीन से पेड़ काटे जा रहे हैं। जंगल खत्म होंगे तो आदिवासी सांस कहां से लेंगे? यह सरासर अन्याय है।”
विपक्ष के आरोपों को खारिज करते हुए वन राज्य मंत्री दिलीप अहिरवार ने स्पष्ट कहा कि पेड़ काटने की सभी प्रक्रियाएँ नियमों के तहत हो रही हैं और पर्यावरणीय संतुलन के लिए समान संख्या में पौधारोपण किया जा रहा है।
उन्होंने कहा- “जितनी जमीन परियोजना के लिए ली जा रही है, उतनी ही भूमि बदले में उपलब्ध कराई जा रही है। सिंगरौली में राज्य और केंद्र सरकार के सभी नियमों का पूर्ण पालन किया जा रहा है।”
बहस के दौरान मुद्दा सिर्फ पेड़ों तक सीमित नहीं रहा। नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार ने लोकसभा में 2023 के एक सवाल का हवाला देते हुए दावा किया कि सिंगरौली जिले की पंचायतें PESA एक्ट (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार अधिनियम-1996) के अंतर्गत आती हैं, जबकि संसदीय कार्य मंत्री कैलाश विजयवर्गीय इसके उलट दावा कर रहे हैं।
सिंघार ने मंत्री पर सदन को गलत जानकारी देने का आरोप लगाया और सरकार से स्पष्ट जवाब की मांग की। जब वन मंत्री अहिरवार इस पर संतोषजनक उत्तर नहीं दे सके तो विजयवर्गीय ने कहा कि “अहिरवार पहली बार के विधायक हैं, लेकिन उन्होंने सही जवाब दिया है।” उन्होंने दावा किया कि सिंगरौली में PESA एक्ट कभी लागू ही नहीं रहा क्योंकि “यहां आदिवासी आबादी कम है।”
विपक्ष का सवाल था-“यदि PESA कभी लागू नहीं हुआ, तो सिंगरौली को उसके दायरे से बाहर कब और कैसे किया गया?”
विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर ने मामले को शांत करने की कोशिश करते हुए कहा कि वन मंत्री नेता प्रतिपक्ष से अलग मुलाकात कर सभी सवालों का जवाब देंगे। लेकिन विपक्ष इस जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ। बहस तेज हुई और आखिरकार कांग्रेस के सभी विधायक नारेबाजी करते हुए सदन से बाहर निकल गए। हालांकि इस पूरे मामले में किसी तरह का कोई हल नहीं निकल सका, लेकिन यह बात तय है कि यदि जंगल काटा गया तो इसका असर मानव-वन्यप्राणी और वहां रहने वाली जनजातियों पर भविष्य में सीधा दिखाई देगा!
सिंगरौली का जंगल सदियों पुराना है और मध्य भारत की प्राकृतिक धरोहरों में से एक माना जाता है। ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि यह क्षेत्र कभी गोंड और कोल आदिवासी शासन के प्रभाव में था, जहां घने जंगल उनकी जीविका, संस्कृति और आध्यात्मिक परंपराओं का आधार थे। 18वीं–19वीं शताब्दी में यह इलाका अभी भी अधिकांशतः अबाध प्राकृतिक वन से ढका हुआ था। कई पेड़ यहाँ 200 से 300 वर्षों तक पुराने पाए जाते हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि सिंगरौली का वन समय, सभ्यता और औद्योगिक परिवर्तन का साक्षी रहा है। आधुनिक काल में जब इस क्षेत्र को कोयला संपदा के रूप में पहचाना गया, तब से यहाँ के जंगलों का तेज़ी से दोहन शुरू हुआ, जिसने प्रकृति और स्थानीय समुदायों दोनों पर गहरा प्रभाव डाला।
सिंगरौली के जंगल अपनी समृद्ध जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ के वन मुख्यतः उष्णकटिबंधीय पतझड़ी प्रकार के हैं, जिनमें साल, सागौन, महुआ, तेंदू, आंवला, अर्जुन, कुसुम और बेल जैसी प्रमुख प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इन पेड़ों की विविधता इस क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन को मजबूत बनाती है। जंगल में पाए जाने वाले औषधीय पौधों, जड़ी-बूटियों और विविध वन उपज के कारण यह क्षेत्र आदिवासियों की आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान का केंद्र भी है। सिंगरौली के जंगल मध्यप्रदेश के हरित आवरण का महत्वपूर्ण भाग हैं और जलवायु संतुलन में भी उनकी अहम भूमिका है।
द मूकनायक से बातचीत में पर्यावरणविद इंद्रभान सिंह बुंदेला ने कहा कि इतनी बड़ी मात्रा में पेड़ काटे जाने से पर्यावरण के साथ-साथ वन्यजीवों पर भी गंभीर असर पड़ेगा। उनके प्रजनन चक्र प्रभावित होंगे, भोजन-पानी की उपलब्धता घटेगी और वन्यजीव गांवों की ओर बढ़ने को मजबूर होंगे, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष और बढ़ेगा।
सिंगरौली का विस्तृत जंगल अनेक वन्य प्रजातियों का प्राकृतिक आवास है। यहां तेंदुआ, भालू, जंगली बिल्ली, नीलगाय, सांभर, चितल, जंगली सूअर, भेड़िया, सियार, और कई प्रकार की छिपकलियाँ व सांप पाए जाते हैं। यह क्षेत्र पक्षी विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है, मोर, बाज, उल्लू, तोता और कई प्रवासी पक्षी यहां नियमित रूप से देखे जाते हैं।
कोयला खनन और लगातार हो रही जंगल कटाई के बढ़ते दबाव के बावजूद यह वन क्षेत्र अभी भी कई प्रजातियों के अस्तित्व का आधार बना हुआ है। लेकिन तेजी से नष्ट होते आवासों के कारण मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ रहा है, जो सिंगरौली के गंभीर पर्यावरणीय संकट की ओर स्पष्ट संकेत है। यह पूरा इलाका भालू विचरण क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है।
सिंगरौली जिले में मुख्य रूप से गोंड, बैगा, कोल, कोरो (खैरवार) और पनिका जैसी प्रमुख जनजातियाँ निवास करती हैं। ये समुदाय पारंपरिक रूप से जंगल, खेती और प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित जीवन जीते आए हैं।
अगर सिंगरौली का जंगल खत्म हुआ तो इसका असर सिर्फ पेड़ों के गायब होने तक सीमित नहीं रहेगा- यह पूरी पारिस्थितिकी, स्थानीय आबादी और भविष्य की पीढ़ियों के लिए विनाशकारी साबित होगा। सबसे बड़ा खतरा आदिवासी समुदायों पर आएगा, जिनका जीवन, भोजन, संस्कृति और पहचान इसी जंगल से जुड़ी है। जल स्रोत सूखने लगेंगे, तापमान बढ़ेगा और क्षेत्र में पहले से मौजूद प्रदूषण कई गुना अधिक हो जाएगा। वन्य जीव अपने प्राकृतिक आवास खोकर गांवों की ओर भागेंगे, जिससे मानव–वन्यजीव संघर्ष बढ़ेगा। कोयला भले आज आर्थिक लाभ दे, लेकिन जंगल के खत्म होने से हवा में घुलता जहर बढ़ेगा और लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। यदि हरियाली मिट गई, तो सिंगरौली ऊर्जा का केंद्र तो रहेगा, लेकिन जीवन के लिए सांसें खोजने वाला प्रदेश बन जाएगा।
सिंगरौली के जंगलों पर संकट का सबसे गहरा असर यहां रहने वाले आदिवासी समुदायों पर पड़ेगा। सदियों से जंगल ही उनके जीवन, संस्कृति, रोज़गार और पहचान का आधार रहा है, महुआ, तेंदूपत्ता, लकड़ी, जड़ी-बूटी, सब कुछ इन्हीं पेड़ों से मिलता है। जैसे-जैसे जंगल कटेंगे, आदिवासी न सिर्फ अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों से वंचित होंगे, बल्कि उनका सांस्कृतिक ताना-बाना भी टूटने लगेगा। पेड़ों का जाना मतलब जलस्रोतों का सूखना, जंगली जानवरों का गांवों की ओर बढ़ना और सुरक्षित जीवन का खत्म होना। जंगल खत्म होने का अर्थ है, उनके घर का खत्म होना, उनकी परंपराओं का मिटना, और उनके अस्तित्व पर सीधा संकट।
द मूकनायक से बातचीत करते हुए विधि विशेषज्ञ अधिवक्ता मयंक सिंह ने बताया कि भारत के संविधान में आदिवासी समुदायों (अनुसूचित जनजाति – ST) के लिए कई विशेष प्रावधान किए गए हैं, जिनका उद्देश्य उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण को सुनिश्चित करना है। संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 संसद व राज्य विधानसभाओं में ST के लिए सीटों का आरक्षण प्रदान करते हैं, जबकि अनुच्छेद 15(4) और 16(4) शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में आरक्षण का आधार तैयार करते हैं। अनुच्छेद 46 राज्य को निर्देश देता है कि वह आदिवासी समुदायों की शिक्षा, आर्थिक उन्नति और सामाजिक अन्याय से रक्षा को प्राथमिकता दे। इसके अतिरिक्त SC-ST अत्याचार निवारण अधिनियम आदिवासी समुदायों को हिंसा, उत्पीड़न और भेदभाव से कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।
विधि विशेषज्ञ के अनुसार, आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन के लिए संविधान ने पाँचवीं और छठी अनुसूची के तहत अलग व्यवस्था बनाई है। पाँचवीं अनुसूची के तहत राज्यपाल के पास विशेष शक्तियाँ होती हैं ताकि भूमि, जल और जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर आदिवासी समुदायों के अधिकार सुरक्षित रह सकें। वहीं छठी अनुसूची पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्वायत्त जिला परिषदों को विधायी और प्रशासनिक अधिकार देती है, जिससे स्थानीय समुदाय अपनी परंपराओं और संसाधनों पर नियंत्रण बनाए रख सके।
उन्होंने बताया कि PESA कानून ग्राम सभा को खनन, लघु वनोपज, भूमि अधिग्रहण और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्णय लेने की शक्ति देता है, जबकि वन अधिकार कानून (FRA) आदिवासी परिवारों और समुदायों को व्यक्तिगत व सामुदायिक वन संसाधनों पर वैधानिक अधिकार सुनिश्चित करता है। इन सभी प्रावधानों का मूल उद्देश्य आदिवासी समुदायों की पहचान, संस्कृति, स्वायत्तता और आजीविका की रक्षा करना है।
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