
“यह ज़मीन हमारे पुरखों की है, तीन पीढ़ियों से हम यहीं खेती कर रहे हैं। यही खेत हमारे बच्चों का पेट पालता है और हमारा सहारा है। अब प्रशासन कह रहा है कि ज़मीन खाली करो, यह शासकीय है। अगर यह ज़मीन हमसे छीन ली गई, तो हम कहाँ जाएंगे?” द मूकनायक से यह कहते हुए आदिवासी किसान महिला बुहिया की आँखों से आंसू छलक पड़े!
मध्यप्रदेश के पन्ना जिले के जनवार गाँव में इन दिनों हरे-भरे खेतों के बीच खामोशी पसरी है। यहां लहलहाती गेहूं की फसल देखकर लगता है कि यह ज़मीन जीवन देती है, लेकिन इसी ज़मीन पर अब संकट के बादल मंडरा रहे हैं। करीब 60 वर्षीय आदिवासी किसान महिला बुहिया और उनका परिवार आज जिस पीड़ा से गुजर रहा है, वह सिर्फ एक परिवार की कहानी नहीं, बल्कि विकास की आड़ में उजड़ती आदिवासी ज़िंदगी का सवाल है।
तीन पीढ़ियों की मेहनत पर आज एक झटके में बेघर होने का डर है, यहां बुहिया आदिवासी का परिवार करीब 60 साल से इसी ज़मीन पर रहकर खेती करता आ रहा है। पांच एकड़ ज़मीन उन्हें पट्टे पर मिली थी, जिस पर उनका परिवार काबिज रहा और पीढ़ी दर पीढ़ी इसे सींचता रहा। गुहिया के पाँच बच्चे हैं, पूरा परिवार इसी खेत की उपज पर निर्भर है। यही खेत उनकी रोज़ी-रोटी है, यही उनका भविष्य।
जब द मूकनायक की टीम पन्ना ज़िले के जनवार आदिवासी-बहुल गाँव पहुँची, तो पहली नज़र में सब कुछ सामान्य और शांत दिखता है। चारों ओर गेहूं की हरी फसलें जो अभी तैयार होने को हैं, यह दृश्य मानो खेत खुशहाली की कहानी कह रहे हों। लेकिन इस हरियाली के नीचे एक गहरी बेचैनी छुपी है। खेतों के बीच रहने वाले आदिवासी परिवारों की आँखों में आजकल सिर्फ़ फसल की उम्मीद नहीं, बल्कि अपनी ज़मीन छिन जाने का डर भी साफ़ दिखाई देता है।
हम अपने सहयोगी, स्थानीय पत्रकार अजीत खरे के साथ आदिवासी किसान महिला गुहिया के घर पहुँचे। खेत के एक कोने में बनी झोपड़ीनुमा कच्ची झोपड़ी-मिट्टी की दीवारें, ऊपर पन्नी और टीन और खपरेल का सहारा- यही उसका घर है। यहीं वह अपने पाँच बच्चों के साथ रहती है, खाती-पीती है और भविष्य के सपने देखती है। खेत से उठती मिट्टी की खुशबू और बच्चों की हँसी के बीच गुहिया बार-बार उसी ज़मीन की ओर देखती है, जिस पर उसकी पूरी ज़िंदगी टिकी है।
बुहिया बताती है कि यही खेत उनके परिवार का सहारा है। “यहीं से बच्चों का पेट भरता है, यहीं से कपड़े और दवा आती है,” वह धीमी आवाज़ में कहती है। बात करते-करते उसकी नज़र फसल पर जाती है, लेकिन चेहरे पर मुस्कान नहीं आती। उसे डर है कि अगर प्रशासन ने ज़मीन खाली करने को कहा, तो वह उनके बच्चों का क्या होगा। खेत उसके लिए सिर्फ़ खेती की ज़मीन नहीं, बल्कि घर, पहचान और भविष्य तीनों है।
जनवार गाँव में यह डर अकेली बुहिया तक सीमित नहीं है। कई आदिवासी परिवार इसी असमंजस में जी रहे हैं- एक तरफ़ मेहनत से उगाई फसल, दूसरी तरफ़ बेदखली का साया। हर सुबह वे खेत में काम करने निकलते हैं, लेकिन मन में यही सवाल घूमता रहता है कि अगली फसल वे इसी ज़मीन पर बो पाएंगे या नहीं?
बुहिया बताती हैं, “यह ज़मीन हमारे ससुर नौनेलाल आदिवासी के नाम से थी। उन्होंने कहा था कि इसका पट्टा है। आज वे नहीं रहे, लेकिन हम तीन पीढ़ियों से इस ज़मीन को अपने खून-पसीने से सींचते आ रहे हैं।”
पन्ना में प्रस्तावित मेडिकल कॉलेज की योजना ने जनवार गाँव के करीब 10 आदिवासी परिवारों की किसानी को संकट में डाल दिया है। इनमें से कुछ परिवारों को 2005 एवं उससे पहले पट्टे (भू-अधिकार पत्र) मिल चुके थे, जबकि कुछ ऐसे भी हैं जो तीन पीढ़ियों से इस ज़मीन पर खेती कर रहे हैं।
बीते 17 दिसंबर को जब प्रशासन ने हरे-भरे खेतों पर बुलडोज़र चलाया, तो किसानों की आंखों से आंसू छलक पड़े। जिस ज़मीन ने सालों तक अन्न दिया, उसी ज़मीन का सीना चीरता बुलडोज़र किसी भी किसान की आत्मा को झकझोर देता है।
द मूकनायक से बातचीत में बुहिया की आवाज़ कांप जाती है। वे कहती हैं, “अब प्रशासन के लोग कहते हैं कि यह ज़मीन शासकीय है और इसे खाली करो। अगर यह ज़मीन हमसे छीन ली गई, तो हम कहाँ जाएंगे? हमारे परिवार का क्या होगा?”
बुहिया का सवाल सिर्फ सरकार या प्रशासन से नहीं, बल्कि समाज से भी है- क्या विकास का मतलब किसी को उजाड़ देना ही है?
जनवार गाँव के ही एक अन्य आदिवासी किसान सीताराम की कहानी भी इसी डर और बेबसी को सामने लाती है। सीताराम वर्षों से करीब पाँच एकड़ ज़मीन पर खेती करते आ रहे थे। यही ज़मीन उनके परिवार की आजीविका का एकमात्र सहारा थी। लेकिन हालात तब बदल गए, जब मेडिकल कॉलेज के सीमांकन के नाम पर उनकी पूरी ज़मीन यानी पांच एकड़ भूमि, प्रशासन ने अपने दायरे में ले ली।
सीताराम बताते हैं कि यह ज़मीन उनको करीब 20 साल पहले पट्टे पर मिली थी, लेकिन इसपर वह उसके पूर्व से खेती करते आए हैं।
उन्होंने कहा- “हमने यहीं पसीना बहाया, इसी खेत में अन्न उगाया और बच्चों को पाला,” उनकी आवाज़ में गुस्सा कम, टूटन ज़्यादा महसूस होती है।
सबसे ज्यादा पीड़ा उन्हें इस बात की है कि ज़मीन का पट्टा होने के बावजूद उसे उनसे छीन लिया गया। सीताराम कहते हैं, “कागज़ हमारे पास हैं, फिर भी हमारी नहीं सुनी गई।”
अब भूमिहीन होकर गुज़ारा कैसे होगा?
जनवार गाँव में सीताराम अकेले नहीं हैं। कई आदिवासी किसान ऐसी ही कहानी कहते हैं, जहाँ पीढ़ियों से जो ज़मीन उनकी पहचान और रोज़ी-रोटी रही, वही विकास के नाम पर उनसे दूर की जा रही है। खेत अब सिर्फ़ खेत नहीं रहे, बल्कि उनके अस्तित्व की आख़िरी लड़ाई बनते जा रहे हैं
द मूकनायक से बातचीत में पन्ना जय आदिवासी शक्ति संगठन (जयस) की जिला प्रभारी (नारी प्रकोष्ठ) राम बाई ने प्रशासन की कार्रवाई पर कड़ा ऐतराज़ जताया। उन्होंने कहा कि वर्षों से खेती करते आ रहे आदिवासी किसानों को प्रशासन बेरहमी से बेदखल कर रहा है, जबकि कई परिवारों के पास ज़मीन के पट्टे भी मौजूद हैं।
राम बाई ने कहा, “ये आदिवासी किसान पिछले 50 साल से ज़्यादा समय से इन ज़मीनों पर काबिज़ हैं। यहीं खेती करके अपने परिवार का पेट पालते आए हैं। अब प्रशासन कह रहा है कि यह शासकीय भूमि है। सरकार का दावा कुछ और है, लेकिन हकीकत ज़मीन पर कुछ और दिखाई दे रही है।”
उन्होंने आगे कहा कि जयस संगठन विकास के विरोध में नहीं है, लेकिन विकास की आड़ में आदिवासियों को उजाड़ना स्वीकार्य नहीं है। “अगर मेडिकल कॉलेज बनाना ही है, तो सरकार आदिवासी किसानों को कहीं और उपजाऊ खेती की ज़मीन उपलब्ध कराए, ताकि उनका और उनके परिवार का पालन-पोषण चलता रहे। बिना वैकल्पिक व्यवस्था के बेदखली अन्याय है,”
आदिवासी परिवारों द्वारा लगाए गए आरोपों पर द मूकनायक के प्रतिनिधि ने पन्ना के अनुविभागीय अधिकारी संजय नागवंशी से बातचीत की। इस दौरान उन्होंने स्पष्ट किया कि जनवार गाँव में जिन जमीनों पर बुलडोज़र की कार्रवाई की गई है, वह राजस्व की शासकीय भूमि है। उनके अनुसार, उस भूमि पर किसी भी आदिवासी के नाम न तो कोई पट्टा है और न ही कभी पट्टा जारी किया गया है।
एसडीएम संजय नागवंशी ने कहा कि आदिवासियों द्वारा लगाए जा रहे सभी आरोप निराधार हैं। “यदि किसी के पास जमीन से जुड़े वैध दस्तावेज या कागजात हैं, तो वे प्रशासन के सामने प्रस्तुत करें,”
उन्होंने आगे कहा, कि संबंधित आदिवासी किसानों ने राजस्व की शासकीय भूमि पर अतिक्रमण किया था और प्रशासन ने उसी अतिक्रमण को हटाने की कार्रवाई की है। उनके मुताबिक यह पूरी प्रक्रिया नियमों के तहत की गई है और इसमें किसी प्रकार की मनमानी नहीं की गई।
पन्ना में मेडिकल कॉलेज की योजना हाल ही में अस्तित्व में आई है। राज्य सरकार ने वर्ष 2024–25 के दौरान पन्ना में मेडिकल कॉलेज खोलने का प्रस्ताव तैयार किया, जिसके बाद 2025 में भूमि चयन, सीमांकन और निर्माण से जुड़ी प्रशासनिक प्रक्रिया तेज की गई। इसी प्रस्तावित मेडिकल कॉलेज के लिए चिन्हित जमीन को लेकर अब विवाद सामने आ रहा है। जनवार गाँव सहित आसपास के इलाकों में वर्षों से खेती कर रहे आदिवासी परिवारों की जमीन पर प्रशासनिक कार्रवाई शुरू होने से उनकी रोज़ी-रोटी और भविष्य पर संकट खड़ा हो गया है।
घोषणा के बाद प्रशासन ने प्रस्तावित मेडिकल कॉलेज के लिए भूमि सर्वे और सीमांकन की प्रक्रिया शुरू की। इसी दौरान जनवार गाँव की वह ज़मीन भी सर्वे के दायरे में आ गई, जिस पर वर्षों से आदिवासी परिवार काबिज होकर खेती करते आ रहे थे। सर्वे के बाद जब प्रशासन ने इस भूमि को कॉलेज के लिए चिन्हित किया, तो अचानक आदिवासी किसानों को अपनी पुश्तैनी रोज़ी-रोटी छिन जाने का डर सताने लगा। खेतों में लहलहाती फसल के बीच प्रशासनिक कार्रवाई शुरू होते ही जनवार गाँव के आदिवासी परिवारों की चिंता और असुरक्षा और गहरी हो गई।
जनवार गाँव की यह कहानी सिर्फ़ पन्ना ज़िले तक सीमित नहीं है, बल्कि मध्यप्रदेश के कई आदिवासी इलाकों की सच्चाई को उजागर करती है। यह मामला सीधा-सीधा यह सवाल खड़ा करता है कि क्या विकास योजनाओं की रूपरेखा बनाते समय आदिवासियों की ज़मीन, उनके संवैधानिक अधिकार और उनकी सहमति को सच में महत्व दिया जाता है, या उन्हें विकास की कीमत चुकाने के लिए सबसे पहले चुना जाता है?
असल सवाल यह है कि क्या सरकार वैकल्पिक ज़मीन, पुनर्वास और सम्मानजनक आजीविका जैसे विकल्पों पर गंभीरता से विचार करेगी, या फिर आदिवासी समुदाय एक बार फिर विकास के नाम पर हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे। जनवार गाँव आज इसी जवाब का इंतज़ार कर रहा है।
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