नई दिल्ली: अंडमान और निकोबार द्वीप समूह प्रशासन पर गंभीर आरोप लगा है कि उसने केंद्र सरकार को यह गलत जानकारी दी कि वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act), 2006 के तहत आदिवासियों के अधिकारों की पहचान और निपटारा कर दिया गया है। इसी आधार पर 72,000 करोड़ रुपये के विशाल बुनियादी ढांचा प्रोजेक्ट के लिए वन स्वीकृतियां जारी कर दी गईं। यह आरोप लिटिल निकोबार और ग्रेट निकोबार की आदिवासी परिषद ने जनजातीय कार्य मंत्री जुएल ओराम को की गई शिकायत में लगाया है।
द हिन्दू की रिपोर्ट के अनुसार, ग्रेट निकोबार द्वीप पर प्रस्तावित इस मेगा प्रोजेक्ट में एक ट्रांसशिपमेंट पोर्ट, हवाई अड्डा, बिजली संयंत्र और एक टाउनशिप शामिल है। इसके लिए लगभग 13,075 हेक्टेयर वनभूमि को परियोजना हेतु डायवर्ट करने की योजना है। स्थानीय आदिवासियों ने इसके पर्यावरण और अपनी आजीविका पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर गहरी चिंता जताई है।
जुएल ओराम ने वर्ष 2024 में पदभार संभालने के तुरंत बाद कहा था कि मंत्रालय इस मामले की समीक्षा करेगा। इस वर्ष की शुरुआत में भी उन्होंने स्पष्ट किया था कि संबंधित मुद्दों पर विचार किया जा रहा है, हालांकि उन्होंने विस्तार से नहीं बताया कि कौन से बिंदु जांच के दायरे में हैं।
परिषद का कहना है कि हाल ही में उन्हें जानकारी मिली कि अगस्त 2022 में निकोबार जिले के उपायुक्त ने एक प्रमाण पत्र जारी किया था, जिसमें दावा किया गया कि FRA के तहत अधिकारों का निपटारा कर दिया गया है और वनभूमि हस्तांतरण की सहमति भी मिल चुकी है। परिषद ने 21 जुलाई को मंत्री को लिखे पत्र में स्पष्ट किया कि उसने ऐसी कोई सहमति नहीं दी है। परिषद का कहना है कि "वन अधिकारों के निपटारे की प्रक्रिया अब तक शुरू ही नहीं हुई है, ऐसे में सहमति का सवाल ही नहीं उठता।"
इस प्रमाण पत्र में प्रशासन ने दावा किया था कि 121.87 वर्ग किलोमीटर संरक्षित वन और 8.8 वर्ग किलोमीटर ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ क्षेत्र में अधिकारों की पहचान और निपटान पूरा कर लिया गया है।
प्रशासन पहले भी अपनी मासिक रिपोर्टों में मंत्रालय को बता चुका है कि FRA लागू करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यहां पहले से ही 1956 के Protection of Aboriginal Tribes Act (PAT56) के तहत जंगल सुरक्षित हैं। जबकि FRA की शर्तों के अनुसार, किसी भी वनभूमि का हस्तांतरण तभी संभव है जब ग्राम सभाओं से सहमति ली जाए और अधिकारों का निपटारा हो। फिलहाल स्पष्ट नहीं है कि इस प्रोजेक्ट के लिए वनभूमि का डायवर्जन FRA के तहत हुआ या PAT56 के प्रावधानों के अंतर्गत।
यह प्रोजेक्ट 2022 में प्रारंभिक मंजूरी मिलने के बाद से ही विवादों में है। पहले कहा गया था कि स्थानीय आदिवासियों की सहमति मिल चुकी है, लेकिन बाद में आदिवासी परिषद ने इस सहमति को वापस ले लिया। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने भी प्रक्रिया और पर्यावरणीय प्रभाव को लेकर सवाल उठाए थे।
दस्तावेजों के अनुसार, 12 अगस्त 2022 को लक्ष्मीनगर, गांधी नगर और कैंपबेल बे पंचायतों की विशेष ग्राम सभा में वनभूमि डायवर्जन के पक्ष में प्रस्ताव पास हुआ। चार दिन बाद, 16 अगस्त 2022 को, उप-मंडलीय समिति की बैठक में शोम्पेन जनजाति की ओर से प्रशासनिक संस्था अंडमान आदिम जनजाति विकास समिति (AAJVS) के जरिए ‘अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC)’ जारी किया गया।
परिषद का कहना है कि जिन ग्राम सभाओं की सहमति का हवाला दिया जा रहा है, उनमें निकोबारी समुदाय के वे गांव शामिल नहीं थे जो सीधे तौर पर प्रभावित होंगे, जैसे चिंगेन्ह, इन हेंग लोई, पुलो बहा, कोकेओन, पुलो पक्का आदि। साथ ही, शोम्पेन जनजाति, जो कि विशेष रूप से संवेदनशील जनजातीय समूह (PVTG) है, उनकी सहमति किसी सरकारी अधिकारी के जरिए नहीं ली जा सकती।
परिषद के एक सदस्य ने बताया कि उन्होंने 30 जुलाई को डाक द्वारा भेजी शिकायत की डिलीवरी रिपोर्ट प्राप्त कर ली है और ईमेल भी किया है, लेकिन अभी तक मंत्री कार्यालय से कोई जवाब नहीं मिला। उनका कहना है, “अगर हमें जवाब नहीं मिलता तो हम अन्य विकल्प तलाशेंगे।”
परिषद ने मंत्री से अपील करते हुए कहा कि उनका उद्देश्य निकोबारी और शोम्पेन समुदायों के “अधिकार, परंपरा, संस्कृति और जंगल” की रक्षा करना है। परिषद का स्पष्ट कहना है कि वे अपने आरक्षित क्षेत्रों या शोम्पेन के उपयोग वाले इलाकों में इस प्रोजेक्ट को किसी भी कीमत पर नहीं चाहते।
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