नेपाल की राजधानी काठमांडू की सुलगती सड़कों पर 8 September में हुए जनाक्रोश ने न केवल सरकारी इमारतों को आग के हवाले किया, बल्कि एक प्रधानमंत्री को सत्ता से बेदखल भी कर दिया। इस उथल-पुथल के बीच, जहां युवा-नेतृत्व वाले प्रदर्शनों ने देश को हिलाकर रख दिया, कानूनी विशेषज्ञ एक गहरे और अक्सर अनदेखे कारक पर प्रकाश डाल रहे हैं: ब्राह्मणवाद और जातिवाद का व्यापक प्रभाव।
सामाजिक न्याय के समर्थक और सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता बलराज सिंह मलिक और मानवाधिकार वकील व कार्यकर्ता कार्तिक नावायन दोनों ने इस बात पर जोर दिया है कि ये प्राचीन सामाजिक संरचनाएं न केवल असमानता को बढ़ावा देती हैं, बल्कि हाल की हिंसा के लिए एक बारूद की तरह काम करती हैं। ऐतिहासिक विरासत और समकालीन आंकड़ों के आधार पर, दोनों की अंतर्दृष्टि एक ऐसी कहानी बयान करती है जहां नेपाल के सरकारी तंत्र में ब्राह्मणों का वर्चस्व ने नाराजगी, भाई-भतीजावाद और अंततः Gen Z आबादी में क्रांतिकारी विद्रोह को जन्म दिया। दोनों विशेषज्ञ इस बात पर बल देते हैं कि जातिवाद और आर्थिक संकटों का मेल हिंसा को भड़काने में कैसे सहायक रहा।
अधिवक्ता मलिक ने "द जनता लाइव" के हालिया एपिसोड में जोर देकर कहा कि नेपाल में कुल आबादी का लगभग 12% हिस्सा ब्राह्मण समुदाय का है, लेकिन सत्ता और प्रशासन पर उनका दबदबा कहीं अधिक था। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली से लेकर तमाम संवैधानिक पदों पर ब्राह्मणों का वर्चस्व था। ब्राह्मण और क्षत्रिय (खस आर्य) मिलाकर कुल आबादी का लगभग 28% हैं, लेकिन देश के संसाधनों और सत्ता पर इन्हीं दो वर्गों का कब्जा रहा है।
एडवोकेट बलराज सिंह मलिक के अनुसार, नेपाल की घटनाएं केवल एक सरकार के खिलाफ विद्रोह नहीं, बल्कि सदियों से चले आ रहे "मनुवाद और वर्णवाद" के खिलाफ एक जनाक्रोश था। उन्होंने कहा, "जिन देशों में सो-कॉल्ड हिंदूइज़्म है, वहां दरअसल मनुवाद और वर्णवाद की मानसिकता ने बेड़ा गर्क किया है। यह सिर्फ ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक ऐसा कुचक्र है जिसने हर धर्म में अपनी जड़ें जमा ली हैं।"
मलिक ने आगे कहा कि इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए एक "अवैज्ञानिक और अयथार्थिक" नैरेटिव का सहारा लिया जाता है, जो लोगों को यह विश्वास दिलाता है कि उनकी स्थिति उनके पुराने कर्मों का फल है, ताकि वे दमन को चुपचाप सहन करते रहें।
नेपाल में युवाओं के इस आंदोलन को उन्होंने एक सकारात्मक कदम बताया। उनका मानना है कि युवा पीढ़ी आदर्शवादी होती है और जाति, धर्म, भाषा के बंधन तोड़कर पूरी दुनिया के साथ तालमेल से रहना चाहती है। नेपाल की अदालतों पर भी उन्होंने सवाल उठाए, यह कहते हुए कि यदि न्यायपालिका ने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की होती और सत्ता की तानाशाही को न रोकने दिया होता, तो स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती।
भारत के संदर्भ में उन्होंने चिंता जताई कि यहां भी लोगों को "510 किलो राशन" जैसी योजनाओं के जरिए चुप कराया जा रहा है, ताकि वे असली मुद्दों पर बोल न सकें। उन्होंने भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हो रहे प्रतिबंधों, सोशल मीडिया को बंद करने, और विरोध प्रदर्शनों को रोकने की कोशिशों को "तानाशाही" और "दमनकारी नीति" करार दिया।
उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि यदि भारत की सत्ता और न्यायपालिका नेपाल जैसा व्यवहार जारी रखती है, तो यहां भी "जज चोर, गद्दी छोड़" और "न्याय चोरों, गद्दी छोड़ो" जैसे नारे गूंज सकते हैं। उनके अनुसार, देश की युवा पीढ़ी लुटियन ज़ोन जैसे "राजशाही प्रतीकों" को खाली करने की मांग कर रही है और यदि समय रहते सुधार नहीं हुआ, तो जनता इनसे यह छीन सकती है।
दूसरी ओर एडवोकेट कार्तिक नावायन ने नेपाल के अशांति से जातिगत संबंध को ठोस सबूतों के साथ विश्लेषित किया। वे कहते हैं नेपाल में युवा-नेतृत्व वाले व्यापक विरोध प्रदर्शनों के पीछे ऐतिहासिक और वर्तमान जाति-आधारित सत्ता की सघनता एक प्रमुख कारण रही है। तथ्य दर्शाते हैं कि ब्राह्मण (नेपाल में अक्सर बाहुन कहे जाने वाले) और उनसे निकटता से जुड़े छेत्रियों ने ऐतिहासिक रूप से और वर्तमान में नेपाल की राज्य व्यवस्था पर प्रभुत्व बनाए रखा है। इस प्रभुत्व ने व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा दिया है, जिसने व्यापक युवा आक्रोश को हवा दी है।
नावायन कहते हैं, " नेपाल की आबादी में ब्राह्मण लगभग 12.2% और छेत्री 16.6% हैं, यानी इन पहाड़ी उच्च जाति के समूहों की कुल हिस्सेदारी लगभग 28-30% है। इसके बावजूद, सरकार, नौकरशाही, सेना और न्यायपालिका में शीर्ष पदों पर इनका कब्जा 70-80% तक है।
सिविल सेवा की भर्ती के आंकड़े इस अति-प्रतिनिधित्व की पुष्टि करते हैं: वित्तीय वर्ष 2017-18 में, सरकारी नौकरियों में भर्ती होने वालों में ब्राह्मण 33.3% और छेत्री 20% थे। 2018-19 में, लोक सेवा आयोग की सिफारिशों में ब्राह्मणों का हिस्सा 38.9% था, और ब्राह्मणों व छेत्रियों ने मिलकर सिविल सेवा में नए प्रवेशकों का 55% हिस्सा बनाया।"
ब्राह्मण राजनीति, मीडिया और अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों में भी हावी हैं। यह पैटर्न 2007 में दलितों, जनजातियों, मधेसियों और स्वदेशी समुदायों जैसे हाशियाकृत समूहों के समावेश को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों के बावजूद बना हुआ है। यह प्रभुत्व ऐतिहासिक कारकों से उपजा है, जिसमें राणा शासन और राजशाही (2008 से पहले) की विरासत शामिल है, जहां सत्ता इन जातियों के बीच केंद्रित थी। इससे ऐसे जमे-जमाए नेटवर्क बने जो नियुक्तियों और पदोन्नति में अपने लोगों को तरजीह देते हैं।
ब्राह्मण-छेत्री अभिजात वर्ग के बीच सत्ता की सघनता ने भाई-भतीजावाद को बढ़ावा दिया है, जहां पदों और संसाधनों का आवंटन योग्यता के बजाय परिवार और जाति के संबंधों के आधार पर किया जाता है, जिससे भ्रष्टाचार और बढ़ता है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में नेपाल 180 देशों में 107वें स्थान पर है। पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा परियोजना में 71 मिलियन डॉलर के गबन जैसे उदाहरण सामने आए हैं। जनता का आक्रोश "नेपो किड्स"– राजनेताओं, नौकरशाहों और न्यायाधीशों (जो प्रमुखतः इन्हीं जातियों से हैं) के बच्चों पर केंद्रित है, जो सोशल मीडिया पर लुई विटॉन के सामान या मर्सिडीज कारों के साथ शानोशौकत भरी जिंदगी दिखाते हैं, जबकि आम नेपाली गरीबी और खराब सार्वजनिक सेवाओं का सामना करते हैं।
प्रदर्शनकारियों ने इसे "एक राजनीतिक मुखौटे वाला ब्राह्मणवाद" करार देते हुए, जातिगत विशेषाधिकार को सीधे संस्थागत भ्रष्टाचार और आर्थिक बहिष्कार से जोड़ा है।
कार्तिक नावायन के मुताबिक, " इस व्यवस्थागत असमानता ने नेपाल के युवाओं, जो लगभग 20% बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं और घर पर सीमित अवसरों के कारण विदेशी रोजगार और रेमिटेंस (जो सकल घरेलू उत्पाद का एक-तिहाई है) पर निर्भर हैं, में गहरी निराशा पैदा की है।
8 सितंबर को सरकार द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लगाए गए प्रतिबंध (जिसे भ्रष्टाचार विरोधी आलोचना को दबाने का प्रयास माना गया) के जवाब में विरोध शुरू हुए जो तेजी से भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और राजनीतिक ठहराव के खिलाफ एक व्यापक विद्रोह में बदल गए। "
हालांकि सभी कवरेज स्पष्ट रूप से जाति को केंद्र में नहीं रखता, कुछ विश्लेषणों ने इस आंदोलन को "ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ विद्रोह" बताया है, जहां जातिगत भेदभाव ने आर्थिक grievances और निचली जातियों व जातीय समूहों के बहिष्कार को और बढ़ा दिया है।
प्रमुख घटनाओं में प्रदर्शनकारियों का सरकारी भवनों पर कब्जा, पुलिस के साथ झड़पें (जिसमें कम से कम 19 लोगों की मौत और सैकड़ों घायल हुए), और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का इस्तीफा शामिल है। प्रतिबंध को कुछ ही दिनों में हटा लिया गया, लेकिन जवाबदेही की मांग को लेकर आक्रोश बना रहा, जो जाति-आधारित विशेषाधिकारों को खत्म करने की व्यापक मांगों से जुड़ा हुआ है।
पत्रकार प्रतिमा मिश्रा के अनुसार , "यह केवल भ्रष्टाचार या सेंसरशिप के बारे में नहीं है। यह ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ एक विद्रोह है।"
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