"अनकहे शब्द भी हैं खतरनाक" - व्हाट्सएप मैसेज को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिया ये आदेश, कहा FIR रद्द नहीं होगी!

जस्टिस जे.जे. मुनीर एवं प्रमोद कुमार श्रीवास्तव की पीठ ने कहा कि संदेश के शब्द स्वयं धर्म के बारे में नहीं बोलते, लेकिन एक अंतर्निहित और सूक्ष्म संदेश देते हैं।
Allahabad High Court
अदालत ने स्पष्ट किया कि संदेश के सीधे शब्द भले ही धर्म की बात न करते हों, लेकिन उसका असर खतरनाक है।
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 इलाहाबाद- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि एक व्हाट्सएप संदेश, जो सतही तौर पर साधारण लगता है, उसमें सांप्रदायिक नफरत फैलाने और धार्मिक भावनाओं को आहत करने की "छिपी हुई" क्षमता हो सकती है। अदालत ने एक मामले में भाई की गिरफ्तारी के विरोध में दूसरे भाई द्वारा भेजे गए ऐसे ही एक व्हाट्सएप मैसेज को लेकर दर्ज एफआईआर को रद्द करने की याचिका खारिज कर दी, जिससे पुलिस को मामले की जांच जारी रखने की इजाजत मिल गई।

मामला बिजनौर जिले के चंदपुर थाने (क्राइम नंबर 421/2025) का है। याचिकाकर्ता अफाक अहमद के भाई आरिफ पर 23 जुलाई को एक मामला दर्ज किया गया था। बाद में इसमें धर्म परिवर्तन विरोधी कानून सहित अन्य गंभीर धाराएं जोड़ी गईं और आरिफ को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।

इस गिरफ्तारी के विरोध में अफाक अहमद ने एक व्हाट्सएप संदेश तैयार कर कई लोगों के मोबाइल पर भेजा। इस संदेश में उन्होंने भाई की गिरफ्तारी को "एक झूठी कहानी" और "तथ्यों को जांचे बिना फैलाया गया मामला" बताया। संदेश में यह भी कहा गया कि इससे उनके परिवार की "छवि धूमिल हुई है और व्यवसाय प्रभावित हुआ है।" हालांकि, संदेश के अंत में उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास जताते हुए लिखा, "हमें भरोसा है कि न्यायालय न्याय करेगा।"

थाना प्रभारी उपनिरीक्षक प्रशांत सिंह ने इस संदेश को सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने और धार्मिक भावनाएं आहत करने का प्रयास मानते हुए बीएनएस की धारा 299 और 353(3) के तहत एफआईआर दर्ज की।

याचिकाकर्ता के वकील श्री सय्यद शहनवाज शाह ने तर्क दिया कि:

उनके भाई आरिफ के खिलाफ धर्म परिवर्तन का आरोप "बिल्कुल तुच्छ" था क्योंकि एफआईआर में किसी भी महिला का नाम उल्लेखित नहीं था।

व्हाट्सएप पोस्ट में कोई भड़काऊ सामग्री नहीं है और यह सिर्फ भाई की गिरफ्तारी पर नाराजगी जताने तक सीमित है।

पोस्ट से साबित होता है कि याचिकाकर्ता को न्यायिक प्रक्रिया में पूरा भरोसा है।

एफआईआर कोई अपराध प्रकट नहीं करती।

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याचिका पर सुनवाई कर रखी जस्टिस जे.जे. मुनीर एवं जस्टिस प्रमोद कुमार श्रीवास्तव की पीठ ने अपने फैसले में महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं।

"अनकहे शब्दों में छिपा था जहर": अदालत ने स्पष्ट किया कि संदेश के सीधे शब्द भले ही धर्म की बात न करते हों, लेकिन उसका असर खतरनाक है। पीठ ने कहा, "एफआईआर में उद्धृत पोस्ट के शब्द स्वयं धर्म के बारे में नहीं बोलते, लेकिन निश्चित रूप से एक अंतर्निहित और सूक्ष्म संदेश (underlying and subtle message) देते हैं कि उसके भाई को एक विशेष धार्मिक समुदाय से संबंधित होने के कारण निशाना बनाया गया है।"

"धार्मिक भावनाएं आहत होने की संभावना": अदालत ने माना कि इस संदेश से एक वर्ग विशेष के लोगों की भावनाएं आहत हो सकती हैं। पीठ ने लिखा, "इन अनकहे शब्दों के संदेश से प्राथमिक तौर पर (prima facie) एक विशेष समुदाय से आने वाले नागरिकों के धार्मिक भावनाएं आहत होंगी, जिन्हें लग सकता है कि उन्हें एक विशेष धार्मिक समुदाय से संबंधित होने के कारण निशाना बनाया जा रहा है।"

"सांप्रदायिक दुश्मनी फैलाने वाला संदेश": अदालत ने आगे कहा कि यह संदेश समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा कर सकता है। पीठ ने कहा, "यह निश्चित रूप से एक ऐसा संदेश है, जो अपने अनकहे शब्दों के कारण, धार्मिक समुदायों के बीच शत्रुता, घृणा और दुर्भावना की भावनाएं पैदा करने या बढ़ावा देने की संभावना रखता है।" अदालत ने समझाया कि इससे एक समुदाय के लोग यह सोच सकते हैं कि दूसरे समुदाय के लोग कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करके उन्हें निशाना बना रहे हैं।

"यह धारा 353(2) बीएनएस के दायरे में आता है": अदालत ने माना कि मामला शायद धारा 353(3) बीएनएस के तहत नहीं बनता, लेकिन यह एक गंभीर अपराध है। पीठ ने अपने निर्णय में लिखा, "यह कार्य धारा 353(3) की शरारत के दायरे में नहीं आ सकता, लेकिन प्राथमिक तौर पर (prima facie) धारा 353(2) बीएनएस को आकर्षित करेगा।" यह धारा धार्मिक समुदायों के बीच दुश्मनी और नफरत फैलाने से संबंधित है।

"जांच जारी रखना आवश्यक": अंत मेंअदालत ने इस निष्कर्ष पर पहुंची कि यह मामला गहन जांच का हकदार है। पीठ ने कहा, "संपूर्ण परिस्थितियों को देखते हुए, हम इस राय में हैं कि यह एक ऐसा मामला है, जिसे जांच की आवश्यकता है और इसे प्रारंभिक चरण (incipient stage) में ही रोका नहीं जा सकता।"

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