
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक ऐतिहासिक टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर अदालतों में मुकदमेबाजी काफी लंबे समय से लंबित है, तो पार्टियों और समाज के सर्वोत्तम हित में यही है कि ऐसे रिश्तों को खत्म कर दिया जाए। इसी के साथ, शीर्ष अदालत ने 22 साल से तलाक के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे एक दंपती के विवाह को भंग कर दिया।
कागजों पर शादी को जीवित रखने का कोई औचित्य नहीं
जस्टिस मनमोहन और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने इस शादी को यह कहते हुए खत्म कर दिया कि यह रिश्ता "पूरी तरह से टूट चुका है" (Irretrievably broken down)। पीठ ने अपनी टिप्पणी में कहा, "हमारा यह भी मानना है कि लंबी अवधि तक वैवाहिक मुकदमेबाजी का लंबित रहना केवल कागजों पर शादी को जीवित रखने की ओर ले जाता है। पार्टियों को राहत दिए बिना मामले को अदालत में लटकाए रखने से कोई सार्थक उद्देश्य पूरा नहीं होता।"
2000 में हुई थी शादी, 2001 से रह रहे अलग
इस मामले की पृष्ठभूमि काफी लंबी है। इस जोड़े की शादी साल 2000 में हुई थी, लेकिन वे 2001 से ही अलग रह रहे थे। इस शादी से उनकी कोई संतान नहीं है। पति ने सबसे पहले 2003 में शिलांग में तलाक के लिए मुकदमा दायर किया था, जिसे अदालत ने 'समय से पहले' (Premature) बताकर खारिज कर दिया था। इसके बाद पति ने 2007 में दोबारा कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिस पर 2010 में उन्हें तलाक मिल गया। हालांकि, 2011 में हाई कोर्ट ने अपील पर सुनवाई करते हुए निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया था।
पति ने हाई कोर्ट के इस आदेश को जुलाई 2011 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। करीब 14 साल के लंबे अंतराल के बाद, मंगलवार को इस पर अंतिम फैसला आया।
'सही-गलत का फैसला करना समाज या कोर्ट का काम नहीं'
पीठ की ओर से फैसला लिखते हुए जस्टिस मनमोहन ने कहा, "मौजूदा मामले में, वैवाहिक जीवन के प्रति पति-पत्नी के दृष्टिकोण बेहद सख्त हैं और उन्होंने लंबी अवधि तक एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाने से इनकार किया है। नतीजतन, उनका यह व्यवहार एक-दूसरे के प्रति 'क्रूरता' के समान है। इस कोर्ट का मानना है कि दो व्यक्तियों से जुड़े वैवाहिक मामलों में, यह तय करना समाज या अदालत का काम नहीं है कि किस जीवनसाथी का दृष्टिकोण सही है या नहीं। यह उनके दृढ़ विचार और एक-दूसरे को स्वीकार करने से इनकार करना ही है, जो एक-दूसरे के लिए क्रूरता बन जाता है।"
अदालत ने पुराने फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि जहां अलगाव की अवधि बहुत लंबी हो, वहां यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वैवाहिक बंधन मरम्मत से परे है। ऐसे मामलों में कानून के लिए इस तथ्य को नजरअंदाज करना अवास्तविक होगा और यह समाज तथा पार्टियों के हितों के लिए हानिकारक होगा।
'शादी में अब कोई पवित्रता नहीं बची'
पीठ ने कहा कि वह इस विचार के प्रति सचेत है कि अदालतों का दृष्टिकोण शादी की पवित्रता को बनाए रखने का होना चाहिए और केवल किसी एक पक्ष के कहने पर शादी को भंग करने में संकोच करना चाहिए। लेकिन, वर्तमान मामले में दोनों पक्ष बहुत लंबे समय से अलग रह रहे हैं और शादी में अब कोई पवित्रता नहीं बची है। साथ ही, सुलह की भी कोई संभावना नहीं है। चूंकि इस शादी से कोई बच्चे नहीं हैं, इसलिए तलाक देने से किसी तीसरे पक्ष पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा।
अदालत ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 142(1) के तहत 'पूर्ण न्याय' करने की अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए, 'रिश्ते के पूरी तरह टूटने' (Irretrievable breakdown) के आधार पर इस विवाह को भंग करने का विवेकपूर्ण निर्णय लिया।
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