पटना। स्त्रीकाल की पहल पर गठित एक नागरिक जांच समिति ने पटना में आयोजित 'नई धारा' राइटर्स रेज़िडेंसी कार्यक्रम में हुए यौन उत्पीड़न के कथित प्रकरण पर अपनी अंतरिम रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट में आयोजक संस्था 'नई धारा' के रवैये, निर्णायक मंडल की भूमिका और साहित्यिक संगठनों की चुप्पी को गंभीर माना गया है। यह मामला न केवल एक व्यक्तिगत आरोप का है, बल्कि साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की संरचनात्मक जवाबदेही और पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े करता है।
यह पूरा मामला 25 जून 2025 को शुरू हुआ, जब एक महिला लेखक ने सोशल मीडिया पर आरोप लगाया कि पटना में आयोजित 'नई धारा' की राइटर्स रेज़िडेंसी के दौरान वरिष्ठ लेखक कृष्ण कल्पित ने उनके साथ अनुचित व्यवहार किया।
आरोपों के बाद, साहित्यिक जगत में तीखी बहस छिड़ी। 27 जून को, जनवादी लेखक संघ ने इस घटना की निंदा की और आयोजक संस्था को ज़िम्मेदार ठहराया। अगले ही दिन, प्रगतिशील लेखक संघ, राजस्थान ने आरोपी लेखक को संगठन से निष्कासित कर दिया, हालांकि, कई बड़े लेखक और संस्थाएं लंबे समय तक चुप रहीं।
नागरिक जांच समिति, जिसकी अध्यक्ष एडवोकेट अल्का वर्मा हैं, ने कई महत्वपूर्ण अवलोकन दर्ज किए हैं। रिपोर्ट के अनुसार:
नई धारा की भूमिका: समिति ने पाया कि संस्था ने घटना के बाद अस्पष्ट और बिना हस्ताक्षर वाले बयान जारी किए।
जूरी की जिम्मेदारी: निर्णायक मंडल (ममता कालिया, जी एन देवी और प्रियदर्शन) ने जवाबदेही से दूरी बनाई, जबकि प्रतिभागियों की सुरक्षा भी उनकी साझा ज़िम्मेदारी होनी चाहिए थी।
सोशल मीडिया पर हमले: पीड़िता पर अफवाहों और चरित्रहनन के प्रयास हुए, जिसे समिति ने "दूसरे स्तर का उत्पीड़न" कहा है। यह भी पाया गया कि पटना के साहित्यिक समाज में पीड़िता को लेकर कई अफवाहें फैलाई गईं।
संगठनों की प्रतिक्रिया: रिपोर्ट के अनुसार, कुछ संगठनों (जैसे जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ) ने तुरंत कार्रवाई की, जबकि अधिकांश बड़े साहित्यिक समूह चुप रहे।
साहित्य की सत्ता: समिति ने पाया कि साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में यौन और जाति उत्पीड़न की घटनाएं आम हैं। यह क्षेत्र यश और हैसियत के बंटवारे का क्षेत्र बन गया है, जहां "क्विड-प्रो-क्वो की प्रवृत्ति" साफ दिखाई देती है।
समिति को कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं भी मिलीं। विकास नारायण राय ने कहा कि "निर्णायक मंडल केवल प्रतिभागियों के चयन तक सीमित नहीं रह सकता। साहित्यिक आयोजनों में निर्णायकों को भी अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी तय करनी चाहिए।"
उन्होंने यह भी कहा कि 'नई धारा' का रवैया टालमटोल वाला रहा है और इससे संस्था की साख को नुकसान हुआ है। अन्य लेखकों, जैसे अनिल पुष्कर और नवनीत पांडेय, ने भी माना कि इस घटना ने साहित्यिक संस्थाओं में पितृसत्तात्मक रवैये और स्त्रियों की सुरक्षा के प्रति असंवेदनशीलता को उजागर किया है।
समिति ने साहित्यिक संगठनों और संस्थाओं में संरचनात्मक सुधार के लिए कई सिफारिशें की हैं:
जिन संगठनों/संस्थाओं में 10 से ज्यादा महिलाएं कार्यरत या सदस्य हैं, उन्हें यौन या जाति उत्पीड़न के खिलाफ एक जांच समिति बनानी चाहिए, जिसकी अनिवार्य अध्यक्ष महिला हो।
सरकार द्वारा आर्थिक मदद प्राप्त संस्थाओं के लिए सरकार जाति और जेंडर विभेद की रोकथाम की प्रक्रिया सुनिश्चित करे।
विभिन्न संगठनों द्वारा एक सार्वजनिक नियामक समिति भी गठित की जा सकती है।
किसी भी मामले का निपटान या तो आंतरिक समिति या लोकल कंप्लेंट कमेटी के माध्यम से हो।
लेखक या संस्कृति के अन्य संगठनों को ज़िम्मेवार और समावेशी होने की पहल करनी चाहिए।
समिति की अध्यक्ष अलका वर्मा ने कहा, "हमारा जनादेश साहित्यिक संस्थाओं में संरचनात्मक सुधार की दिशा में ठोस सुझाव देना है।" वहीं, सदस्य मनोरमा ने इस घटना को "साहित्यिक दुनिया की असंवेदनशीलता का सबूत" बताया।
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