
मुंबई- बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता धर्मेंद्र के स्वास्थ्य को लेकर अफवाहों का दौर गरम है, वे ब्रीच कैंडी हॉस्पिटल में एडमिट हैं जहाँ उनकी हालत सोमवार रात को नाजुक हो गयी थी, हालाँकि उनके परिवार ने अब उनकी हालत स्थिर बताई है।
परिवार, दोस्तों और लाखों फैंस की दुआओं के बीच इस चुनौतीपूर्ण समय में, 'द मूकनायक' धर्मेंद्र के फ़िल्मी सफ़र को याद कर रहा है, जिन्होंने सिर्फ़ बॉक्स ऑफिस पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, जातिगत भेदभाव और व्यवस्था के अन्याय जैसे गहरे विषयों पर भी अपनी छाप छोड़ी।
वे न सिर्फ एक्शन के बादशाह थे, बल्कि सामाजिक अन्याय, जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने वाले कलाकार भी। उनकी कई फिल्में समाज के आईने की तरह रहीं, जहां उन्होंने दलितों, गरीबों और शोषितों की पीड़ा को स्क्रीन पर उतारा। ऐसे में, हम उनकी पांच ऐसी फिल्मों का विशेष स्मरण कर रहे हैं, जो जातिवाद, भेदभाव और सामाजिक अन्याय को उजागर करती हैं। ये फिल्में आज भी प्रासंगिक हैं और समाज को सोचने पर मजबूर करती हैं।
इस फिल्म में धर्मेंद्र ने जुड़वां भाइयों की भूमिका निभाई, जहां एक भाई आदिवासी होकर रंगभेद और भेदभाव का शिकार है। फिल्म रंगभेद और जातिगत पूर्वाग्रह को बेनकाब करती है, दिखाती है कि कैसे समाज इंसान को उसके रंग और जन्म से आंकता है। हलचल मचाने वाली यह कहानी आज भी जातिवादी मानसिकता पर करारा प्रहार है। आदिवासी किरदार में धर्मेन्द्र (शेखर) को पता चलता है कि उसकी मां सावली का निधन हो गया है। उसे मालूम होता है कि उसकी माँ रामगढ़ के धनी ठाकुर प्रताप सिंह के साथ प्रेम करती थी और दोनों के बीच संबंध था। लेकिन ठाकुर ने उसे गर्भवती जानकर भी उससे शादी करने से इनकार कर दिया था। शेखर अपने अपमान का बदला लेने का फैसला करता है और ठाकुर को बेनकाब करने के लिए निकल पड़ता है।
रामगढ़ पहुंचने पर वह पाता है कि उसका सौतेला भाई, दिलीप और साथ ही एक बहन, नीलू है। दिलीप उससे मिलता है और उसे कर्मचारी के रूप में काम पर रखता है। वह उसे अमीर विनोदबाबू की इकलौती बेटी दीपा से दीलिप के रूप में मिलने के लिए कहता है। शेखर ऐसा करने के लिए सहमत हो जाता है। शेखर दीपा से मिलता है और दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। शेखर उसे अपने बारे में सच बताने का फैसला करता है और रामगढ़ लौट जाता है। एक बार वहां पहुँच कर, वह इतिहास को दोहराता हुआ पाता है क्योंकि दिलीप आदिवासी लड़की झुमकी से प्यार करता है लेकिन उससे शादी करने से इंकार कर रहा है।
हृषिकेश मुखर्जी की इस क्लासिक में धर्मेंद्र एक ईमानदार इंजीनियर बने, जो भ्रष्टाचार और सामाजिक पाखंड के खिलाफ खड़ा होता है। फिल्म नैतिकता, गरीबी और उच्च वर्ग की क्रूरता को उजागर करती है। यह दिखाती है कि कैसे सिस्टम शोषितों को कुचलता है, और एक व्यक्ति की सत्यनिष्ठा समाज बदल सकती है।
यह फिल्म सामाजिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर तीखा प्रहार करती है। धर्मेंद्र ने 'सत्यप्रिय' नामक ऐसे आदर्शवादी युवक का किरदार निभाया जो स्वतंत्रता के बाद देश में फैले झूठ और दोगलेपन के आगे भी अपने उच्च नैतिक मूल्यों पर अडिग रहता है। यह फिल्म व्यवस्था के पतन के सामने एक व्यक्ति के आदर्शों की लड़ाई को दर्शाती है।
यह फिल्म प्रमोद चक्रवर्ती द्वारा निर्मित और निर्देशित थी, और इसमें धर्मेंद्र के साथ हेमा मालिनी, अशोक कुमार, महमूद और प्राण जैसे दिग्गज कलाकार थे। धर्मेंद्र ने इस फिल्म में अनूप का किरदार निभाया, जो एक संघर्षरत, ईमानदार और आदर्शवादी लेखक (Struggling, Idealistic Writer) है। वह गरीब पृष्ठभूमि से आता है और समाज में फैले अन्याय और अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण के खिलाफ़ अपनी कलम का इस्तेमाल करता है।
अनूप की मुलाकात अमीर और खूबसूरत सीमा चौधरी (हेमा मालिनी) से होती है, और दोनों में प्रेम हो जाता है। सीमा का परिवार, विशेष रूप से उसका भाई राजन चौधरी (प्राण), इस रिश्ते के सख्त खिलाफ़ है क्योंकि अनूप एक गरीब लेखक है। यह अमीरों और गरीबों के बीच के गहरे सामाजिक भेदभाव को दिखाता है। अनूप ने "नया ज़माना" नामक एक किताब लिखी है, जिसमें उसने गरीबों के शोषण और समाज की सच्चाई को उजागर किया है। चालाक राजन चौधरी धोखे से इस किताब को अपने नाम से प्रकाशित करवा लेता है और वह तुरंत एक बड़ी हिट बन जाती है। यहाँ गरीब की प्रतिभा का शोषण दिखाया गया है।
जब राजन चौधरी, अनूप और उसकी माँ के साथ रहने वाले गरीब लोगों को बेदखल करने की कोशिश करता है, तो अनूप और सीमा इसका विरोध करते हैं। गुस्से में आकर राजन के गुंडे, उन गरीब बस्तियों में आग लगा देते हैं। इस विनाश के लिए अनूप को दोषी ठहराया जाता है और उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है। अनूप तब व्यवस्था और अमीर पूँजीपतियों के खिलाफ़ गरीबों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करता है।
यह फिल्म दिल्ली सल्तनत की एकमात्र महिला शासिका रजिया सुल्तान (1205-1240) के जीवन पर आधारित है, जो हेमामालिनी ने निभाई। कहानी 13वीं शताब्दी की दिल्ली से शुरू होती है, जहां इल्तुतमिश (प्रकाश राज) की बेटी रजिया को उनके उत्तराधिकारी के रूप में चुना जाता है। इल्तुतमिश की मौत के बाद, रजिया सुल्तान बन जाती हैं, लेकिन उनके फैसले – जैसे हिंदू-मुस्लिम एकता और महिलाओं के अधिकार – दरबार के अमीरों और उलेमाओं को नागवार गुजरते हैं। वे रजिया को एक 'विद्रोही' मानते हैं, क्योंकि एक महिला का सिंहासन संभालना उनके रूढ़िवादी विचारों के खिलाफ है।
फिल्म का केंद्र बिंदु रजिया का याकूत जमालुद्दीन (एबिसिनियाई दास) नामक एक अबीसीनियन (इथियोपियन) गुलाम से प्रेम है जो भूमिका धर्मेन्द्र ने अदा की । याकूत को रजिया ने अपने दरबार में एक सैनिक के रूप में ऊंचा स्थान दिया है। याकूत, जो काले रंग का होने के कारण भेदभाव का शिकार है, रजिया का वफादार सिपाही और प्रेमी बन जाता है। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे याकूत की गुलामी की जंजीरें टूटती हैं जब रजिया उसे अपना साथी चुनती हैं। लेकिन यह प्रेम सामाजिक और नस्लीय भेदभाव की दीवारों से टकराता है। दरबार के अमीर, जैसे मलिक अल्तुनिया (राज बब्बर), रजिया के प्रेम को 'निचली जाति' के साथ 'अनैतिक' बताकर विद्रोह भड़काते हैं। उलेमा रजिया को 'इस्लाम विरोधी' ठहराते हैं, क्योंकि उन्होंने एक गुलाम को ऊंचा स्थान दिया।
कहानी में तनाव तब चरम पर पहुंचता है जब मंगोल आक्रमणकारियों का खतरा मंडराता है। रजिया याकूत को अपनी सेना का प्रमुख बनाती हैं, लेकिन साजिशों के चलते याकूत को हत्या कर दी जाती है। रजिया को कैद कर लिया जाता है, और अल्तुनिया से जबरन विवाह करवाया जाता है। अंत में, रजिया विद्रोहियों के खिलाफ लड़ती हुईं मारी जाती हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स भावुक है, जहां रजिया की मौत के साथ सत्ता, प्रेम और भेदभाव की विडंबना उभरती है। यह फिल्म नस्लीय गुलामी, लिंग भेदभाव और प्रेम की स्वतंत्रता पर करारा प्रहार करती है। धर्मेंद्र का याकूत रोल जहां उन्हें काला मेकअप कर गुलाम बनाया गया, उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण है।
जे.पी. दत्ता की इस एपिक में धर्मेंद्र ने जमींदारों के जुल्म के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। राजस्थान के सामंती ढांचे में बंधी किसानों की दासता, जातिगत शोषण और विद्रोह की यह कहानी दिल दहला देती है। मिथुन चक्रवर्ती के साथ उनकी जोड़ी ने सामाजिक असमानता को इतनी गहराई से दिखाया कि फिल्म आज भी प्रासंगिक लगती है।
फिल्म राजस्थान में जाति और सामंती व्यवस्था पर केंद्रित है । धर्मेन्द्र का किरदार रणजीत सिंह चौधरी एक किसान का बेटा है, जो एक गाँव में रहता है जहाँ एक अमीर ज़मींदार ठाकुर परिवार का दबदबा है । गाँव के स्कूल में पढ़ते हुए एक किशोर के रूप में, रणजीत विद्रोही है और गहरी जड़ें जमाए हुए जातिगत पूर्वाग्रहों और भेदभावपूर्ण प्रथाओं के खिलाफ है। उसे जमींदार के दो बेटों द्वारा धमकाया जाता है, जो उसकी ही उम्र के हैं। अपने आस-पास के शोषण से तंग आकर, रणजीत शहर भाग जाता है।
कई साल बाद, रंजीत के पिता की मृत्यु पर वह लौटता है, और पाता है कि गाँव में कुछ भी नहीं बदला है। उसे यह भी बताया जाता है कि उसके पिता ने अपनी दवाइयों और स्वास्थ्य सेवा के लिए ज़मींदार से कर्ज़ लिया था, और अब रंजीत को वह कर्ज़ चुकाना होगा, या फिर अपनी ज़मीन और घर, जो कर्ज़ के लिए ज़मानत थे, ज़ब्त करना होगा। रंजीत को लगता है कि यह बहुत बड़ा अन्याय है। उसका तर्क यह है कि किसान कई पीढ़ियों से ज़मीन जोतते और कड़ी मेहनत करते आ रहे हैं, ज़मींदार सिर्फ़ ज़मीन का मालिक है और कोई काम नहीं करता, इसलिए, अगर ज़मींदार ने किसी किसान को कर्ज़ दिया है, तो कर्ज़ चुकाने की ज़रूरत नहीं है।
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