दलित हिस्ट्री मंथ विशेष: -" हम हरिजनों को हजारों सालों से यह अपमान ओढ़ने बिछाने की आदत सी हो गई है..."

यूं तो 'सौतन' का कथानक दलित संघर्ष या सामाजिक बदलाव नहीं है बल्कि किसी टिपिकल बॉलीवुड मसाला फिल्म की तरह प्रेम त्रिकोण, दांपत्य जीवन में गलतफहमी से उपजे रार पर आधारित कहानी है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इस फिल्म में भारतीय समाज और उच्च वर्गीय परिवार के लोगों का दलितों के प्रति नजरिया, उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार, तिरस्कार को समानतर रूप से रेखांकित किया गया है जो बहुत प्रभावी और सशक्त रूप से उभरकर सामने आया है। फिल्म का उपरोक्त डायलॉग बहुत कुछ कहता है।
फिल्म में डॉ. श्रीराम लागू और पद्मिनी कोल्हापुरे द्वारा चित्रित गोपाल और राधा के किरदार दलित हैं, और कहानी उनके प्रति समाज के व्यवहार के इर्द-गिर्द घूमती है।
फिल्म में डॉ. श्रीराम लागू और पद्मिनी कोल्हापुरे द्वारा चित्रित गोपाल और राधा के किरदार दलित हैं, और कहानी उनके प्रति समाज के व्यवहार के इर्द-गिर्द घूमती है।

बात जब वंचित और शोषित वर्ग के संघर्षों के सिनेमाई चित्रण की हो तो आम तौर पर ये मान लिया जाता है कि कोई आर्ट मूवी होगी। हिन्दुस्तान में व्यवसायिक फिल्मों की सफलता का फार्मूला सिंपल है - मारधाड़, मेलोड्रामा और रोमांस। वर्ग संघर्ष, जातिवाद और वंचित समूहों की पीड़ा का कमर्शियल सिनेमा में क्या काम ?- ये ख्याल मन में उठना लाजिमी है।

लेकिन अस्सी के दशक में रिलीज हुई फिल्म सौतन बॉलीवुड की उन चंद मूवीज में एक है जो ना केवल व्यवसायिक रूप से सुपरहिट थी बल्कि वंचित वर्ग विशेषकर दलित (हरिजन) तबके के साथ समाज में व्याप्त भेदभाव, तिरस्कार का सटीक चित्रण करती है।

यूं तो सौतन का कथानक दलित संघर्ष या सामाजिक बदलाव नहीं है बल्कि यह किसी टिपिकल बॉलीवुड मसाला फिल्म की तरह प्रेम त्रिकोण, दांपत्य जीवन में गलतफहमी से उपजे दरार पर आधारित मूवी है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इस फिल्म में भारतीय समाज और उच्च वर्गीय परिवार के लोगों का दलितों के प्रति नजरिया, उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार, तिरस्कार को समानतर रूप से रेखांकित किया गया है जो बहुत प्रभावी और सशक्त रूप से उभरकर सामने भी आया है।

दरअसल, 'सौतन' बॉलीवुड के भीतर एक दुर्लभ उदाहरण के रूप में सामने आता है जहां जातिगत भेदभाव का विषय मनोरंजन के तत्वों के साथ-साथ फिल्म की मुख्य कथा में सहजता से एकीकृत है।

फिल्म के शुरुआती दृश्य में ही सहायक किरदार गोपाल ( डा श्रीराम लागू) फिल्म के नायक श्याम मोहित (राजेश खन्ना) के दफ्तर के बाहर उनकी प्रतीक्षा में खड़े दिखाई देते हैं। श्याम के आते ही वे अखबार में छपे एक इश्तिहार का हवाला देते हुए अकाउंटेंट की नौकरी देने के लिए आग्रह करते हैं।

श्याम उन्हें अगले दिन आज को बोलते हैं क्योंकि इंटरव्यू अगले दिन तय है। लेकिन गोपाल कहते हैं कि " अगर मैं कल आया तो नौकरी मुझे नही किसी और को मिलेगी क्योंकि मैं एक हरिजन हूं..." फिल्म के इस दृश्य से ये दिखाने का प्रयास किया है कि पढ़ा लिखा और काम में दक्ष होने के बावजूद किस तरह एक हरिजन व्यक्ति काम के लिए दर दर भटकता है और उसका परिवार जिसमे एक बेटी कई दिनों से भूखी होने के कारण निढ़ाल हो चुकी है।

" मेरी एक बेटी है उसने कई दिनों से खाना नही खाया.. आज भी अगर काम न मिला तो सांस लेने की भी ताकत नहीं रहेगी..." गोपाल की यह बात सुनकर श्याम का दिल पिघल जाता है और इस तरह गोपाल को नौकरी मिल जाती है ।

फिल्म का नायक सामाजिक न्याय की अवधारणा में विश्वास करता है और भेदभाव, ऊंच नीच से परे हैं और यही वजह है कि होनहार मेहनती गोपाल बाबू से श्याम का एक दिल का रिश्ता जुड़ जाता है और वो उनमें अपने पिता की छवि देखने लगता है लेकिन श्याम की प्रेमिका रुक्मिणी (टीना मुनीम) दलितों को हिकारत भरी निगाहों से देखती हैं और उनसे घृणा करती हैं क्योंकि उसे बचपन में उसकी सौतेली मां द्वारा सिखाया जाता है कि " हरिजन बहुत गंदे लोग हैं, उनके साथ कभी नही खेलना"। मां की यह बात नन्ही रुक्मिणी के बालमन में ऐसा असर छोड़ती है कि युवा होने के बाद भी उसके भीतर छुआछूत की भावना गहरी पैठ बना चुकी होती है।

फिल्म में डॉ. लागू के चरित्र को गहरे रंग के साथ दर्शाया गया है, जो गहरे रंग की त्वचा से जुड़ी हीनता की सामाजिक धारणा का प्रतीक है।
फिल्म में डॉ. लागू के चरित्र को गहरे रंग के साथ दर्शाया गया है, जो गहरे रंग की त्वचा से जुड़ी हीनता की सामाजिक धारणा का प्रतीक है।

फिल्म में होली का एक दृश्य बहुत प्रभावी बन पड़ा है जिसके रुक्मिणी श्याम के दफ्तर में पहली बार गोपाल बाबू से रूबरू होती है लेकिन ज्यों ही उसे मालूम होता है की वो एक हरिजन है, रुक्मिणी बिना कुछ कहे अपने चेहरे के भाव से जाहिर कर देती है कि उसे हरिजन सख्त नापसंद है। गोपाल बाबू बहुत सहज भाव से कहते हैं , " हम हरिजनों को हजारों सालों से यह अपमान ओढ़ने बिछाने की आदत सी हो गई है..." फिल्म के हरेक डायलॉग में दलित समुदाय के प्रति बरते जाने वाले भेदभाव, त्योहारों पर उनसे मेलमिलाप में परहेज, उनके साथ सामाजिक रिश्ता बनाए रखने में संकोच आदि को बहुत मार्मिकता से प्रस्तुत की गया है जो केवल एक दृश्य नही, पूरे फिल्म में समानांतर कथानक के रूप में कई बार परिलक्षित होती है।

फिल्म के एक सीन में फ्रांस की टीम के साथ एक डील क्रैक होने की खुशी में श्याम गोपाल बाबू को अपने घर में डिनर के लिए लाता है। दोनो श्याम के बेडरूम में खाना मंगवा लेते हैं और खा ही रहे होते हैं की रुक्मिणी घर लौटती है और गोपाल को अपने बिस्तर पर बैठे देख गुस्से में बेकाबू हो जाती है।

वो श्याम को कहती है " इसकी हिम्मत कैसे हुई मेरे बेडरूम में आने की, अगर तुम इसे ले भी आए श्याम, ये बिस्तर पर कैसे बैठ गया, इसे ये क्यों नही याद रहा की ये मेरा बिस्तर है और ये एक अछूत है.." रुक्मिणी के व्यवहार से श्याम स्तब्ध रह जाता है लेकिन गोपाल उसे समझाते हैं कि ये गलती उसकी ही है, "छींके का मुंह खुला रह भी जाए तो कम से कम घर के कुत्ते को तो याद रखना चाहिए कि वो उसमे मुंह ना डाले.." इस प्रकार के इमोशनल और द्रवित कर देने वाले दमदार सीन और डायलॉग दोनो के ही जरिये निर्देशक सावन कुमार टांक ने समाज में वंचित वर्ग के प्रति उच्च वर्ग के लोगों के सोच और नजरिए का प्रभावी चित्रांकन किया है।

गोपाल बाबू की बेटी राधा (पद्मिनी कोल्हापुरी) का पहली सैलरी मिलने पर श्याम और रुक्मिणी को घर पर खाने के लिए आमंत्रित करने पर रुक्मिणी का कहना, " उस अछूत के घर जाना होगा, उसकी रोटियां खानी होगी जिसे मैं स्टैंड नही कर सकती..." और जब श्याम कहता है की "मैने तुमसे कोई बड़ी चीज नही मांगी" रुक्मिणी का जवाब कि " मुझे उम्मीद नहीं थी कि तुम इतनी छोटी चीज मांगोगे ...! " फिल्म के एक एक संवाद में हरिजन समुदाय के प्रति तत्कालीन भारतीय समाज की सोच और उनके साथ किए जाने वाले अपमानजनक व्यवहार को बाखूबी चित्रित किया गया है जो उस दौर के किसी अन्य फिल्म में इतनी मार्मिकता से नहीं दिखाई गई.

एक सीन में 'अछूत ' सह नायिका राधा द्वारा दिया जाने वाला गुलदस्ता भी रुक्मिणी अपने हाथों से स्वीकार नहीं करती और नौकर को बुलाकर फूल रखने को कहती है जो अस्पृश्यता की कड़वाहट उजागर करता है।

1983 में रिलीज हुई मूवी सौतन अपने स्टार कास्ट, सुमधुर संगीत, एक से बढ़कर हिट गीत और दमदार डायलॉग के कारण उस दौर की हिट फिल्मों में एक थी जिसे विभिन्न वर्गों में फिल्मफेयर पुरस्कारों के लिए नामित भी किया गया था। फिल्म की स्टार कास्ट भव्य थी जिसमे सुपर स्टार राजेश खन्ना, खूबसूरत तारिकाएं टीना और पद्मिनी, दमदार खलनायक प्रेम चोपड़ा के अलावा चरित्र भूमिका में प्राण और डॉ श्रीराम लागू जैसे मंझे हुए कलाकारों ने अपने सशक्त अभिनय का लोहा मनवाया। खलनायक प्रेम चोपड़ा का डायलॉग - मैं वो बला हूँ जो शीशे से पत्थर को तोड़ता हूँ- इतना लोकप्रिय हुआ कि ये लाइन उनकी रील शख्सियत की पहचान ही बन गई.

इन सबके बावजूद 'सौतन' फिल्म पति- पत्नी के बीच गलत फहमी और अहंकार के कारण उपजी रार पर केंद्रित एक फैमिली ड्रामा के रूप में जानी जाती है. समाज में दलित और शोषित वर्ग के साथ हो रहे भेदभाव को उजागर करने और उसे मिटाने का प्रयास करने का सामाजिक संदेश समाहित होने के बावजूद इस सफल फिल्म को अस्पृश्यता सरीखे सामाजिक मुद्दे पर प्रहार करने वाली एक सीरियस मूवी का कद प्राप्त नही हो सका था।

हरिजन शब्द पर बाबा साहेब को थी आपत्ति, किया था बोम्बे विधानसभा से वाकआउट

सुप्रीम कोर्ट ने हरिजन लिखने बोलने को आपराधिक माना है . हरिजन कहने लिखने पर सजा. हो सकती है. भारत सरकार ने वर्ष 1982 में ही दलितों के लिए हरिजन शब्द के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा चुकी थी लेकिन सार्वजनिक जीवन में इस शब्द का इस्तेमाल आज भी दलितों के लिए होता रहा आ रहा है।

दलितों के संदर्भ में 'हरिजन' शब्द को लेकर विवाद की जड़ें 1930 के दशक से चली आ रही हैं।

हरिजन, या 'भगवान के बच्चे' शब्द, भक्ति परंपरा के गुजराती कवि-संत नरसिंह मेहता द्वारा जाति, वर्ग या लिंग के बावजूद कृष्ण के सभी भक्तों को संदर्भित करने के लिए गढ़ा गया था। मेहता के काम के प्रशंसक महात्मा गांधी ने पहली बार 1933 में दलितों की पहचान के संदर्भ में इस शब्द का इस्तेमाल किया था।

दलितों को देवत्व के साथ जोड़कर उनके उत्थान के गांधी के इरादे के बावजूद, इस शब्द को बाबा साहब बीआर अंबेडकर और कई लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा, जिन्होंने इसे अंतर्निहित मुद्दों को संरक्षण देने और टालने के रूप में देखा।

हरिजन शब्द के प्रयोग से जहाँ गांधी का लक्ष्य 'अछूत' या 'भंगी' जैसे कलंकित शब्दों को बदलना था, अंबेडकर और अन्य लोगों ने तर्क दिया कि 'हरिजन' ने जातिगत भेदभाव को संबोधित करने के बजाय सामाजिक पदानुक्रम को कायम रखा है।

डॉ. बी.आर.अंबेडकर ने 1938 में इसके प्रयोग के विरोध में बंबई विधानमंडल से बाहर चले गये।

समय के साथ, भारत सरकार ने 'हरिजन' के समस्याग्रस्त अर्थों को पहचाना और आधिकारिक दस्तावेजों में इसके उपयोग को हतोत्साहित किया। 1982 में ही जारी निर्देशों के बावजूद, इसका प्रचलन कायम रहा। संसदीय सिफ़ारिशों और विभागीय परिपत्रों सहित हाल के प्रयासों के बावजूद इस शब्द का उल्लेख आज भी होता है।

हालाँकि, इस शब्द की आक्रामक प्रकृति के बारे में जागरूकता सीमित है, जैसा कि समकालीन मीडिया में चल रही बहस और चर्चाओं से ज्ञात होता है।

फिल्म में डॉ. श्रीराम लागू और पद्मिनी कोल्हापुरे द्वारा चित्रित गोपाल और राधा के किरदार दलित हैं, और कहानी उनके प्रति समाज के व्यवहार के इर्द-गिर्द घूमती है।
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