दलित हिस्ट्री मंथ: बॉम्बे की चॉल में रहकर जब जाना मजदूरों का दर्द, बाबा साहब ने ठान लिया देश में नए श्रम कानून लाएंगे

दलित हिस्ट्री मंथ ज्यों-ज्यों अपने समापन की ओर बढ़ रहा है, द मूकनायक अपने पाठकों के लिए बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा देश के विभिन्न तबकों और आम जन के हित में बनी असंख्य कल्याणकारी योजनाओं की शृंखला प्रस्तुत कर रहा है। श्रमिक कानून सुधार में उनका योगदान अद्वितीय है।
दलित हिस्ट्री मंथ: बॉम्बे की चॉल में रहकर जब जाना मजदूरों का दर्द, बाबा साहब ने ठान लिया देश में नए श्रम कानून लाएंगे

एक असाधारण विद्वान से लेकर वायसराय की कार्यकारी परिषद (1942 से 1946) में भारत के पहले श्रम मंत्री बनने तक, बाबा साहब अम्बेडकर का सफर संघर्षों से भरा हुआ है। आज लोग उन्हें लेबर लॉज के लिए याद करते हैं, लेकिन जिस बात को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है वह यह है कि उन्होंने स्वयं गरीबी और भेदभाव को इतने करीब से देखा और उन्हें इतने कटु अनुभव हुए कि उन्होंने श्रमिकों के जीवन में बदलाव लाने के जुनून को अपना मकसद बना लिया।

कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से ऊंची डिग्रीयों के साथ अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद बाबा साहब भारत लौट आए और अंततः बॉम्बे में गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के प्रोफेसर और प्रिंसिपल बन गए। उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियों के बावजूद, अस्पर्श्य जाति से संबंधित इस बैरिस्टर को रहने के लिए उपयुक्त जगह नहीं मिली और उन्हें चॉल में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अपने ओहदे के अनुरूप एक सम्मानजनक आवास नहीं मिलने के कारण दो दशकों से अधिक समय तक इस प्रतिष्ठित बैरिस्टर और प्रोफेसर को परेल में बॉम्बे डेवलपमेंट डिपार्टमेंट के एक चॉल में रहना पड़ा। चॉल सबसे निचले स्तर के श्रमिकों के लिए थी। प्रत्येक मंजिल में नहाने और बर्तन साफ ​​करने के लिए केवल एक शौचालय और एक नल था जिसे सभी किरायेदारों के बीच साझा किया जाना था। उनमें से अधिकांश मिल मजदूर थे और डॉ. अम्बेडकर उनके दैनिक संघर्षों को अग्रिम पंक्ति में बैठकर देखने वाले दर्शक बने।

ऐतिहासिक बीबीडी चॉल नंबर 1 में 80 कमरे हैं और इस क्षेत्र की छह चालों में से एक है। इस चॉल के 50 और 51 नबरों के दो कमरों में देश के पहले श्रम और कानून मंत्री 1912 से 1934 तक रहे, यह यकीन करना मुश्किल है। इन दो कमरों ने बाबा साहब के निवास और कार्यालय के रूप में कार्य किया। प्रत्येक कमरा केवल 180 वर्ग फुट का था। इस समय के दौरान, उन्होंने कई सामाजिक सुधार आंदोलनों की शुरुआत की और उनके संदेश को फैलाने के लिए पाक्षिक समाचार पत्रों बहिष्कृत भारत और मूकनायक के कई संस्करण प्रकाशित किए। इसके अतिरिक्त, इस निवास से ही उन्होंने ऐतिहासिक गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और जाति व्यवस्था के विरोध में मनुस्मृति दहन किया। वर्तमान समय में, कई शिक्षाविदों, इतिहासकारों और अम्बेडकर अनुयायियों ने उनकी विरासत को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इस स्थल का दौरा किया है। 2019 में पूर्व सीएम उद्धव ठाकरे ने डॉ. अंबेडकर और उनके परिवार के इस निवास को एक स्मारक में बदलने की योजना की घोषणा भी की।

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इस चाल में रहने के दौरान श्रमिकों की दुर्दशा और उनकी दयनीय जीवन स्थितियों को प्रत्यक्ष रूप से देखकर उनके भीतर एक आग प्रज्वलित हुई, और उन्होंने अपना जीवन उनके कल्याण के लिए समर्पित करने का संकल्प लिया। उन्होंने मिलों का दौरा किया और देखा कि मजदूरों को अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बाबा साहब जल्द ही भारत के इस बड़े मजदूर तबके के जीवन में आशा की किरण बन गए।

द्वितीय विश्व युद्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था में जबरदस्त परिवर्तन आया, विभिन्न उद्योगों के विस्तार के लिए कई अवसर प्रस्तुत हुए। उद्यमियों और प्रबंधकों के बीच उनकी भविष्य की समृद्धि के लिए आशावाद के बावजूद, श्रम बल को वह उचित हिस्सा नहीं दिया गया जिसके वह हकदार थे। इसी दौरान डॉ. अम्बेडकर ने नेतृत्व किया और श्रमिक समुदाय के कल्याण के लिए कई ठोस कवायदों की शुरुआत हुई।

द इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी

इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (ILP) 15 अगस्त 1936 को भीम राव अम्बेडकर के नेतृत्व में गठित एक महत्वपूर्ण राजनीतिक संगठन था। इसे भारत में जाति और पूंजीवादी संरचनाओं को चुनौती देने के लिए बनाया गया था, जो जाति व्यवस्था को खत्म करने और भारतीयों के अधिकारों का समर्थन करने की दिशा में काम कर रहा था। कम्युनिस्ट नेता ILP के गठन के समर्थन में नहीं थे, अम्बेडकर का तर्क था कि कम्युनिस्ट गुट ने केवल श्रमिकों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित किया, दलित श्रमिकों के मानवाधिकारों के लिए नहीं।

1937 के प्रांतीय चुनावों में, ILP कुल 17 में से 14 सीटों पर जीती, जिसमें पारंपरिक रूप से उत्पीड़ित समुदायों के लिए आरक्षित 13 सीटों में से 11 सीटें शामिल थीं। कम समय में व्यापक समर्थन प्राप्त होना पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।

1938 में, ILP ने कोंकण क्षेत्र से बॉम्बे तक 20,000 काश्तकारों का एक मार्च आयोजित करने के लिए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ सहयोग किया, जिसे इस क्षेत्र में स्वतंत्रता-पूर्व किसानों की सबसे बड़ी लामबंदी माना जाता है।

कुल मिलाकर, ILP भारत के इतिहास में एक आवश्यक राजनीतिक संगठन था और इसने श्रमिक वर्ग के अधिकारों की वकालत करने और जाति व्यवस्था का विरोध करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई।

औद्योगिक विवाद विधेयक: बुरा, रक्तरंजित और रक्त पिपासु

डॉ. अम्बेडकर अपनी बात पर टिके रहने वाले और हमेशा सही के लिए खड़े होने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने 1938 में जब कांग्रेस सरकार ने औद्योगिक विवाद विधेयक पेश किया, तो उन्होंने तत्काल इसकी आलोचना की। विधेयक में कई श्रमिक विरोधी प्रावधान जैसे हड़ताल और विरोध को अवैध ठहराना, नियोक्ताओं के लिए बजट का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं होना ताकि मजदूर अपने उचित हिस्से के लिए मांग नहीं रख सके -आदि प्रावधानों का बाबा साहब ने विरोध किया। लेबर पार्टी ने बिल के विरोध में बंबई के कपड़ा मजदूरों को लामबंद करने के लिए कम्युनिस्टों के साथ सहयोग किया। डॉ॰ अम्बेडकर ने विधेयक को "खराब, रक्तरंजित और रक्तपिपासु" होने का आरोप लगाया। वह जानते थे कि यदि पारित हो जाता है तो विधेयक के परिणाम भयंकर होंगे और यह भारतीय श्रम शक्ति के लिए एक करारा झटका होगा। उन्होंने सरकार पर और अधिक दबाव बनाने के लिए एक दिन की हड़ताल के साथ बिल के खिलाफ एक उग्र अभियान का नेतृत्व किया। डॉ. अम्बेडकर का रुख अटूट, साहसी और एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। आखिरकार, सरकार को अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करना पड़ा, और बिल को अधिक श्रम-अनुकूल बनाने के लिए संशोधित किया गया।

1938 में, मनमाड में जीआईपी रेलवे दलित मजदूर सम्मेलन को संबोधित करते हुए, डॉ. अम्बेडकर ने घोषणा की कि ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दो दुश्मन हैं जिनका दलितों को सामना करना है। उन्होंने इन व्यवस्थाओं के प्रभाव और भारत के सीमांत समुदायों पर उनके प्रभाव को समझा।

भारत के पहले श्रम मंत्री के रूप में

डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर एक दूरदर्शी नेता थे जिनका समाज के लिए योगदान बहुत बड़ा है। हालाँकि, एक श्रमिक नेता के रूप में उनकी भूमिका को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। नवंबर 1937 में श्रम विभाग की स्थापना के बाद, डॉ. अम्बेडकर ने जुलाई 1942 में श्रम विभाग संभाला। उन्होंने भारतीय मजदूरों के अधिकारों को सुरक्षित किया। उनके बिना संभवतः भारतीय श्रमिकों का भविष्य अंधकारमय हो जाता।

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27 नवंबर, 1942 को नई दिल्ली में भारतीय श्रम सम्मेलन के 7वें सत्र के दौरान, उन्होंने भारत में श्रमिकों के लिए निर्धारित दैनिक 14 घंटे के कार्य समय को घटाकर 8 घंटे प्रतिदिन किया।

डॉ. अंबेडकर ने भारत में महिला श्रमिकों के लिए कई कानून भी बनाए, जैसे "खान मातृत्व लाभ अधिनियम", "महिला श्रम कल्याण कोष", "महिला और बाल श्रम संरक्षण अधिनियम", "महिला श्रम के लिए मातृत्व लाभ" और "कोयला खदानों में भूमिगत कार्य पर महिलाओं के रोजगार पर प्रतिबंध की बहाली" आदि शामिल हैं।

कर्मचारी राज्य बीमा (ESI) भी बाबा साहब की देन है जो चिकित्सकीय देखभाल, चिकित्सा अवकाश, शारीरिक अक्षमता पर मुआवजा, कामगार मुआवजा, और विभिन्न अन्य सुविधाएं प्रदान करता है, जिसे डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा भारतीय श्रमिकों के लाभ के लिए अधिनियमित किया गया। कर्मचारियों के कल्याण के लिए बीमा अधिनियम लागू करने वाला भारत पहला पूर्वी एशियाई देश था।

भारतीय श्रम अधिकारों में डॉ. अम्बेडकर का योगदान विशाल और महत्वपूर्ण है। उन्होंने श्रम को समवर्ती सूची में रखा, श्रम विभाग में मुख्य आयुक्त और श्रम आयुक्तों की नियुक्ति की और श्रम जांच समिति का गठन किया। उनके द्वारा श्रमिकों को सशक्त बनाने के लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम भी पेश किया गया था। भारत में रोजगार कार्यालयों की उपस्थिति का श्रेय डॉ. अम्बेडकर की दूरदर्शिता को दिया जा सकता है।

इसके अलावा डॉ. अम्बेडकर ने श्रमिकों द्वारा हड़ताल के अधिकार को मान्यता दी और 8 नवंबर, 1943 को, वे ट्रेड यूनियनों की अनिवार्य मान्यता के लिए भारतीय ट्रेड यूनियन (संशोधन) विधेयक लेकर आए। उनका मानना ​​था कि दलित वर्गों को देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए।

डीए से लेकर छुट्टी के लाभ तक बाबा साहब की देन

'महंगाई भत्ते' में समयबद्ध वृद्धि, 'लीव बेनिफिट', और समय-समय पर 'वेतनमान में संशोधन' हमें भारतीय श्रम अधिकारों में डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के योगदान की याद दिलाती है। इसलिए, यदि आप अपनी कंपनी द्वारा दिए जाने वाले स्वास्थ्य बीमा, या कोई अन्य लाभ से खुश हैं, तो याद रहे कि ये सभी डॉ. अम्बेडकर की ही देन हैं।

डॉ. अम्बेडकर के पास एक निष्पक्ष और लोकतांत्रिक समाज बनाने के लिए एक साहसिक और दूरदर्शी विचार था। उन्होंने माना कि असमानता की जड़ें बहुत गहरी हैं और उन्हें संबोधित करने के लिए महत्वपूर्ण परिवर्तनों की आवश्यकता है। मई 1947 में प्रकाशित अपने ज्ञापन में, "राज्य और अल्पसंख्यक: उनके अधिकार क्या हैं और स्वतंत्र भारत के संविधान में उन्हें कैसे सुरक्षित किया जाए" शीर्षक से, उन्होंने सिफारिश रखी कि महत्वपूर्ण उद्योगों को सरकार द्वारा प्रबंधित किया जाना चाहिए, और सभी कृषि भूमि को राज्य द्वारा अधिग्रहित कर एक मानक आकार के साथ छोटे खेतों में विभाजित किया जाना चाहिए। इन खेतों को सामूहिक रूप से खेती करने के लिए गांव के निवासियों को किराए पर दिया जाए।

डॉ. अम्बेडकर का मत था कि निजी उद्यम को औद्योगीकरण की ओर ले जाने की व्यवस्था से भारत में आर्थिक असमानताएँ और बढ़ जाएंगी पैदा जैसा कि यूरोप में हुआ था। उनका यह प्रबल पूर्वाभास था कि ऐसी असमानताएँ लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल नहीं हैं। उनके विचार में, धन असमानताओं के बढ़ने से निर्धन लोगों को मौलिक अधिकारों में समझौते करने पड़ेंगे जो उन्हें कदापि स्वीकार नहीं था।

अपने जीवन के अंतिम दिनों की ओर बढ़ते हुए, डॉ. अम्बेडकर ने पूंजीवाद के लिए वैकल्पिक प्रणालियों की खोज शुरू की और यहां तक ​​कि साम्यवाद को एक संभावित समाधान के रूप में देखा। हालांकि वे सक्रिय रूप से कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं बने, लेकिन उनकी राजनीतिक विचारधारा ने मजदूर वर्ग के संघर्षों को शामिल करने की अनुमति दी। वास्तव में, राजनीतिक व्यवहार में अंबेडकर द्वारा तैयार ढांचे ने ही मजदूर वर्ग के उत्थान और आर्थिक उत्पीड़न के खिलाफ उनके संघर्षों को सशक्त करने के लिए एक ठोस आधार प्रदान किया।

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