कहा जाता है कि अगर किसी को नागमणि मिल जाए, तो उसको अपार धन दौलत उपलब्ध होगा। और इतना उपलब्ध होगा कि मतलब आप इसका अंदाजा भी नहीं कर पायेंगे। तो एक राजा था उसको यह मणि मिला। लेकिन न जाने क्यों इस मणि को वह पुरे दुनिया से छुपाके रखता था। किसी को ना पता चले कि इसका जो अपार धन दौलत जो इसको मिल रहा है, वो कहाँ से और कैसे आ रहा है।
परन्तु एक ऐसा टाइम आता है कि उसका पर्दाफाश होने वाला है। एक छोटा बच्चा था। उसको वह मणि मिल गया। राजा बोला नहीं, नहीं, मेरा नहीं है, मेरा बिल्कुल नहीं है। यह मणि मेरा हो ही नहीं सकता है । राजा उस मणि से दूर भागने लगा।
यानी कि जो चीज सब कुछ आपको दे रहा है और आपको पता है कि उसके बिना आपका कुछ नहीं है और वही सब कुछ मूल्यवान का स्रोत है, तो आप उसको नकारते हैं। क्योंकि पता ना चले…।
अगर यह मणि एक मृत चीज नहीं होके, इंसान होता, सोचिए! ये इंसान आपको सब कुछ दे रहा है पर आप उसको अवंचनीय ढंग से प्रताड़ीत करेंगे, उसको लज्जित करेंगे, सताएंगे और यह बोलेंगे कि यार यह तो हमारा साथ नहीं, मैं इनको नहीं जानता,यह तो बाहर का चीज है। यह तो पिछलग्गु है। यह हमारा है ही नहीं। आप उसको अलग कर देंगे। और अगर ये लोग आपका वर्चस्व और दमन को कुचलने या प्रतिरोध का सहस रखता है तो उसको डराके धमका के रखना होगा।
यही हाल आज हम देखते हैं मजदूरों के साथ हो रहा है, जो आपको सब कुछ दे रहा है, परंतु उसको आप दुश्मन मान रहे हैं। बल्कि आपको उससे दुशमन मानना ही होगा । अनिवार्य है । नहीं तो सारा खेल बिगड़ जायेगा। ये कोई व्यक्तिगत नैतिकता का सवाल नहीं। संरचना का मामला है। पर वह भी कैसे? समानता और सांविधानिक न्याय के मीठे मीठे बातें करते हुए।
या तो दुश्मन मानेंगे नहीं तो छुपायेंगे। या कभी छुपाएंगे, कभी दुश्मन मानेंगे। ये मणि ऐसा है।
दरअसल, इसलिए कार्ल मार्क्स ने उत्पादन प्रणाली को छुपा हुआ ("secret abode of production") बताया है। विनिमय (exchange) खुला, और उत्पादन गुप्त। श्रम का मणि-तुलिय शक्ति सिर्फ और सिर्फ उत्पादन प्रक्रिया में ही सृजन होता है। इसलिए पूंजीबाद को विनिमय (exchange) के दृष्टिकोण से बुर्जुआ अर्थविद समझना चाहते हैं, ताकि श्रम का मणितुल्य चरित्र छुपाया जा सके। श्रम का शक्ति श्रमिक को पता नहीं चलना चाहिए। नहीं तो सब गड़बड़ हो जायेगा। भारत के न्यायलय को इसका बड़ा फ़िक्र है की कैसे इस राज़ को राज़ रहने दिया जाए। वर्ग संगर्ष को धूमिल रख्खा जाए।
मारूती-सुजुकी कार कंपनी पर गुड़गाँव लेवर कोर्ट का दिनांक ७/११/२०२५ का फैसला इसका विशुद्ध उदहारण है। ये मारूती में 2012 का संघर्ष जिसमें 546 श्रमिकों को बर्खास्त किया था, उसमें एक श्रमिक रामनिवास के ऊपर फैसला है। मैनेजमेंट, मैनेजमेंट, करके बार बार शब्द इस्तेमाल हुआ है, और वर्कर, मजदूर भी। रामनिवास को वर्कमैन (workman) करके चिन्हीत किया है। पूँजीपति का कोई जिक्र नहीं। पूंजीपति करके दुनियाँ में कुछ होता भी है या नहीं, आप सोचते ही रहे जायेंगे.
खैर, कोर्ट का कहना है की पूंजीपति, यानिकि मारुती-सुजुकी मैनेजमेंट, अगर गलत भी है, तो भी उनका गलती जायज होगी! अगर कंपनी ने गलती से वर्कमैन (workman) को नौकरी से निकाला, और वो सही में बेकसूर था, तो भी मैनेजमेंट का ये एरर (error, गलती), को उन्होंने सही (bonafide) ठहराया है। “Bonafide error”: यानी कि मैनेजमेंट को दस खून माफ। सौ खून माफ। क्योंकि वो कुछ ईश्वरीय चीज है।
अब देखिये, कहानी पलट गया है। मणि मजदूर नहीं है। मणि पूंजी है। श्रम से दुनिया बनती है पर ईश्वरीय मणि बोलके तो पूंजी को ही स्थापित किया जा रहा है। ऐसा कोर्ट नहीं करता तो क्या होता? यही समझने वाली बात है। पूरा खेल गड़-बड़ हो जायेगा.
कोर्ट हमें सोचने मैं मजबूर करना चाह रहा है की, पूंजी ही खत्म कर देंगे तो कैसे होगा फिर? फिर “राष्ट्र निर्माण” कैसे होगा? मतलब वह कत्लेआम भी करता है तो भी उसको सजा नहीं मिलना है, क्योंकि वह तो सर्वे सर्वा है। वही सब कुछ है। जननी है। फिर श्रम क्या है?
तो बस कोर्ट का यह कहानी हमें स्वीकार्य है की नहीं बस ये अपना व्यक्तिगत या वर्गीय झुकाव के मुताविक तय करना है। इस भाष्य, इस कहानी, को स्थापित करने के लिए पूरा एक मुहीम चलाया जा रहा है।
मजदूर अगर बारगेनिंग कर रहा है, बारगेनिंग का पावर छीना जा रहा है। उसका यूनियन बनाने का हक छीना जा रहा है। मजदूर क्या चाह रहे थे? उन्होंने बोला कि हम पॉकेट यूनियन, मैनेजमेंट का चापलूस यूनियन, नहीं मानेंगे। हमको किसी की गुलामी नहीं करना है, तलवे नहीं चाटना है। हमको आप दबाओगे, अस्मिता पर चोट करोगे, हमारे साथ कुछ भी बर्ताव करेंगे। यह हम नहीं मानेंगे। हम अपना (अलग) यूनियन बनाएंगे।
2011 में एक अस्मिता में जीने वाला मजदूर वर्ग का शुरूआत मारुति कंपनी में हो रहा था। एक खुली प्रक्रिया का प्रयास और अभ्यास, पूंजीवादी प्रजातान्त्रिक जड़ और रूढ़िवाद (dogma) से परे। इसका पूरा घटनाक्रम आपको यहाँ सुनने को मिलेगा। और इसका विश्लेषण यहाँ पर।
परंतु इस अभ्यास में तो फिर मणि का राज का खुलासा होने का डर था। पूंजी को यह डर सताना शुरू किया । साम-दाम-दंड-भेद, छल कपट अपनाने लगे।
फिर मारूती-सुजुकी ले आता है अच्छे आचरण का प्रचार। मजदूर को अच्छे आचरण (Good conduct) का अस्वासन देना होगा। Good conduct bond पर हस्ताक्षर करना होगा।
इसका मतलब और मनसाय समझिये। तुम पहले से गुनाहगार जो हो, तुम को अच्छा होने का वादा करना पड़ेगा। पूंजीपति यहां चोरी फिर सीनाजोरी करते हुए साफ दिखाई पड़ रहे थे । परन्तु “गुड कंडक्ट” बॉन्ड साइन करेंगे मजदूर। बिल्कुल सही.
कायदे से तो कोर्ट कह सकता था कंपनी को, कि तुम गुड कंडक्ट बॉन्ड साइन करो। पूरे हिंदुस्तान में जितने भी कंपनी, मैनेजमेंट है उनके ऊपर एक गुड कंडक्ट बॉन्ड साइन करने का एलान भी कर सकता था, कि मजदूरों के साथ वो गुड कंडक्ट करेंगे। मजदूरों के ऊपर ही गुड कन्डक्ट बाॅन्ड क्यूँ? क्या छुपा रहे हो?
एक बड़ा राज को छुपा रहे हैं ये लोग। नहीं तो क्या था एक फैक्टरी मजदूर को अस्मिता से जीने का हक दे ही देते। चलो कोई बात नहीं है। होने दो, क्या जाता है। बल्कि मजदूर अपने भोलेपन पे आजाते और बड़चढ़ के उत्पादन करके देते। हर एक सेकंड में एक चमकता कार जिसका नाम होगा डिजायर! हाँ, हो ही सकता था। लेकिन इनको वही डर है। एक फैक्ट्री में करेंगे, तो दूसरा फैक्ट्री होगा, तीसरा चौथा फैक्ट्री होगा। फिर तो सारा भंडाफोड़ हो जायेगा। इसको यहीं कुचल दो। पुरे गुडगाँव, मानेसर, फरीदाबाद में मैसेज जाना चाहिए। मजदूर वर्ग को डरा के रखो। न माने तो उनको क्रिमिनलाइज कर दो, मर्डर केस दे दो। खुनी होने का सजा दो, फसाओ।
“राष्ट्र निर्माण” का बात करके किसी ओर ध्यान केंद्रित करो। कोर्ट ने कहा है आज हम ट्रंपियन दुनिया (Trumpian world) में जी रहे हैं , जिस में गलाकाटू प्रतियोगिता देशको झेलना पड़ रहा है। तो इस लिए मजदूर का गला घोटना लाजिम है और पूंजी का आरती उतारना वेहद जरुरी। मतलब इंडिगो एयरलाइन पूंजी के चलते उड़ान नहीं भर रहा है , वो ठीक है, लेकिन पायलट और मजदूर को ही राष्ट्र निर्माण के लिए गला कटवाना पड़ेगा। हवाई जहाज उड़ाने वाला पायलट को कोई आराम, विश्राम नहीं चाहिए। इसमें सरकार भी चुप बैठ गया।
लेकीन दूसरा पक्ष ये भी है। राष्ट्र निर्माण और ट्रंपियन दुनिया के बड़ी बड़ी बातें करके यह क्या दिखाना चाहा रहे? ऐसा दिखाना कि कुछ सूक्ष्म बातें हैं, जो मजदूर के समझ के बहार है । मजदूर तो नीचे के लोग हैं और उनको क्या पता यह सब। हम ऊपर हैं। हम जानते हैं राष्ट्र क्या होता है। हम जानते हैं कि दुनिया आज कौन सा दौर से गुजर रहा है। अभी तो कट थ्रोट कंपटीशन है, वगैरह वगैरह। यह ना सिर्फ गलत ढंग से ट्रंपियन दुनिया की व्याख्या कर रहे हैं बल्कि यह अपना महत्ता दिखाना चाह रहा है।
मजदूर वर्ग तो बस निचले लेवल का, बस उसको थोड़ा पैसा चाहिए, उनको बस खाना खिला दो। यह थोड़ा और छुटटी मांगते हैं। इनका चिंता, फिक्र ही ऐसे ही निचला लेवल का है और हम ऊपर के। हम तो सरकार है , सबके माई-बाप। देश को परिभाषित सिर्फ हम ही करेंगे। हमारा हैसियत है, मजदूर का नहीं। मजदूर को कुचलने से कुछ नहीं होगा। कोर्ट कचेरी अपना ही है। इनके साथ हम कुछ भी कर सकते हैं।
गुडगाँव लेबर कोर्ट का जजमेंट से यह ज्ञात होता है। यह तो पूरा ही क्लास-वार (class war) का एलान कर रहे हैं। यह बोल रहे हैं कि पूंजीपति और मजदूर का कोई भी, कहीं भी, किसी भी एक बिंदु में साझा सामांजस्यता नहीं बन सकता है।
यानिकि रामनिवास जैसे सचेत मजदूर जो खुला प्रक्रिया चाहता है, गुलाम नहीं बनना चाहता, वह राष्ट्र का दुश्मन ठहराया जायेगा। वह कुछ बाहरी ताकतों के जकड़ में हैं, वगैरह, वगैरह। पर विडम्बना ये की कोर्ट खुद मजदूर को सीखा रहे हैं, कि वर्ग संघर्ष के अलावा तुम्हारा पास कोई रास्ता नहीं है। वर्ग संघर्ष के अलावा तुम्हारा कोई चारा नहीं है। मजदूर समझ रहे हैं, भली भांति समझ रहें हैं, आगे क्या करना है। गजब हो गया। कोर्ट ने हमारा काम कर दिया। आपको बहुत बहुत धन्यवाद!!
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