लेख- अजय कसबे
जहाँ न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी बंधी होती है ताकि सबको समान दृष्टि से देखा जा सके, उसी सर्वोच्च न्यायालय में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) भूषण गवई पर एक राकेश किशोर नामक जातिवादी वकील “सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेंगे” चिल्लाते हुए जूता फेंकता है।
जूता फेंकने का कारण बताया जा रहा है कि 16 सितंबर को, मुख्य न्यायाधीश ने टूटी हुई मूर्ति के जीर्णोद्धार की मांग करने वाली याचिका को खारिज करते हुए कहा था, “जाओ और भगवान से खुद ही इसे करने के लिए कहो। तुम दावा करते हो कि तुम भगवान विष्णु के कट्टर भक्त हो, तो जाओ और उनसे प्रार्थना करो।”
यह सिर्फ़ एक अदालत की घटना नहीं है, बल्कि यह भारत के समाज में अब भी मौजूद उस जातीय मानसिकता का चेहरा है, जो दलितों की ऊँचाई बर्दाश्त नहीं कर पा रही। दूसरी तरफ़, उत्तर प्रदेश के रायबरेली में वाल्मीकि समाज के दलित युवक हरिओम को चोरी के झूठे आरोप में सिर्फ़ इसलिए पीट-पीट कर मार डाला गया क्योंकि वह दलित था। उसे मारने वाले कहते थे कि “हम बाबावाले हैं”, और उसे जान से मार देते हैं।
एक घटना देश की राजधानी में न्याय के मंदिर में होती है, दूसरी उत्तर प्रदेश के एक छोटे ज़िले में, लेकिन दोनों की जड़ एक ही है - जाति का ज़हर। एक दलित का सम्मान आज भी खतरे में है।
मुख्य न्यायाधीश भूषण गवई, जो देश के सर्वोच्च न्यायिक पद पर हैं और जिन्होंने संविधान की शपथ लेकर न्याय देने का संकल्प लिया है, जब उन्हीं को “अपमान” का प्रतीक बना दिया जाता है, तो यह सिर्फ़ एक व्यक्ति पर हमला नहीं, बल्कि उस संविधान पर हमला है जिसने उन्हें वहाँ तक पहुँचने का अधिकार दिया।
CJI पर हमला करने वाले वकील के शब्द थे, “सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेंगे।” यह वाक्य इस समाज की गहराई में छिपे उस भय को उजागर करता है, जो हर उस दलित से है जो अपनी सीमाएँ तोड़कर ऊपर उठना चाहता है; जो मनुस्मृति से नहीं, बल्कि संविधान से अपनी पहचान बनाना चाहता है।
मूर्तियों पर की गई टिप्पणी पर लोगों की भावनाएँ आहत हो जाती हैं, लेकिन जब ज़िंदा इंसान हरिओम को पीट-पीटकर मार दिया जाता है, तब किसी की “भक्ति” नहीं जागती। यही वह विरोधाभास है जो भारत के सामाजिक ढाँचे को सालों से तोड़ रहा है।
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था, “जाति मनुष्य की आत्मा को कुचल देती है। जब तक जाति रहेगी, समानता और बंधुता केवल शब्द रहेंगे।”
आज वही बात हरिओम की मौत में दिखाई देती है। एक ज़िंदा दलित की जान चली जाती है, और समाज खामोश रहता है, क्योंकि उनके लिए इंसानियत से ज़्यादा जाति महत्वपूर्ण है।
संविधान के निर्माण के समय डॉ. आंबेडकर ने चेतावनी दी थी, “हम राजनीतिक रूप से समान हैं, लेकिन सामाजिक और आर्थिक रूप से असमान। यह असमानता लोकतंत्र के लिए खतरा है।” CJI गवई और हरिओम की घटनाएँ इसी चेतावनी का जीवंत उदाहरण हैं।
एक ओर संविधान दलितों को न्याय, समानता और अवसर का अधिकार देता है, वहीं समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी “जाति के चश्मे” से देखता है।
जब एक दलित न्यायाधीश बनता है, तो “मर्यादा” की बात होती है।
जब दलित बारात में आंबेडकर का गाना बजाता है, तो “परंपरा” को ठेस पहुँचती है।
जब दलित मूंछ बढ़ाता है, तो “अहंकार” कहा जाता है।
यह वही समाज है जो भगवान की मूर्ति में भक्ति देखता है, पर दलित में भगवान का अंश नहीं।
एनसीआरबी (NCRB) की रिपोर्ट बताती है कि 2022 में दलितों के खिलाफ़ अपराधों में 13% की वृद्धि हुई। हर साल 50,000 से ज़्यादा मामले दर्ज होते हैं, लेकिन न्याय कितनों को मिलता है, इसका कोई ठोस आँकड़ा नहीं है। कानून तो है, लेकिन दिलों में अब भी मनुस्मृति ज़िंदा है।
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था, “जो समाज समानता को स्वीकार नहीं करता, वह न्याय को कभी कायम नहीं रख सकता।”
हरिओम की हत्या और CJI भूषण गवई पर हुआ हमला हमें याद दिलाते हैं कि जाति सिर्फ़ शब्द नहीं, बल्कि सत्ता का औज़ार है, जो जब चाहे “अपमान” का बहाना बनाकर हिंसा में बदल जाता है। आज सवाल सिर्फ़ “सनातन का अपमान” या “धर्म की भावना” का नहीं है। सवाल यह है:
क्या इस देश में दलित का सम्मान, उसकी ज़िंदगी, उसकी पहचान कभी सुरक्षित होगी?
दलित होना आज भी अपराध क्यों है?
क्यों किसी की मूंछ, किसी का गाना, किसी का ओहदा समाज की नींव हिला देता है?
अगर सर्वोच्च न्यायालय में बैठे दलित न्यायाधीश को भी असहिष्णुता का शिकार बनना पड़ता है, तो एक आम दलित की सुरक्षा की कल्पना भी भयावह है।
लेखक अजय कसबे, एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत/निजी हैं.
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