डॉ. ए. के. बिस्वास: विभाजन की त्रासदी के बावजूद कडे संघर्ष से बनी एक असाधारण प्रतिभा
1947 मे भारत विभाजन की त्रासदी का सबसे बड़ा दंश देश की ‘अछूत’ कही जाने वाली आबादी ने झेला। बंगाल और पंजाब इसका सबसे बड़े शिकार थे। पंजाब में बाल्मीकि, चूड़ा और चमार जातियां इसकी विभीषिका से प्रभावित हुए और बंगाल में नामशूद्र समुदाय। इसी नामशूद्र समुदाय मे फरवरी 6, 1946 को अविभाजित भारत के बंगाल प्रांत के जेसोर जिले के मागुरा नामक कस्बे मे पैदा हुए थे जिन्हें उनके माता पिता ने अतुल कृष्ण नाम दिया और आज जिन्हें हम सभी आदर के साथ डॉ. ए. के. बिस्वास के नाम से जानते हैं। डाक्टर बिस्वास का गत 28 फरवरी 2025 को एक स्वास्थ्य खराब होने के कारण, कोलकाता में निधन हो गया। उनके परिवार में पत्नी के अलावा उनके दो पुत्र, बहुएं और पोता हैं।
डाक्टर अतुल कृष्ण बिस्वास बिहार सरकार में गृह सचिव के पद से रिटायर होने से पहले अनेकों मंत्रालयों के सचिव पद पर रह चुके थे। 1973 में भारतीय प्रसासनिक सेवा में आने से पहले वह बंगाल राज्य की प्रांतीय सेवा के अंतर्गत डिप्टी कलेक्टर के पद पर कार्य कर रहे थे। वह बिहार कैडर से आते थे इसलिए बिहार के प्रति उनमें बहुत लगाव भी था क्योंकि उनकी प्रशासनिक सेनाओं का पूरा जीवन बिहार में ही गुजरा। इसी अनुभव से उन्होंने मुजफ्फरपुर में डाक्टर बाबा साहब अंबेडकर विश्व विद्यालय की स्थापना करवाने में महती योगदान दिया फलस्वरूप उन्हे इस विश्व विद्यालय के पहले कुलपति के तौर पर नामित किया गया। 2007 में वह प्रसासनिक सेवा से सेवानिवृत हुए और फिर लेखन के कार्य में जुट गए। उनके शोधपरक आलेख देश की प्रमुख शोध पत्र पत्रिकाओ जैसे इकनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, मैनस्ट्रीम, countercurrents.org आदि। देश के प्रमुख अखबारों जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, आउट्लुक मैगजीन आदि उनके लेखों को छाप चुकी हैं। आज कल वह बंगाल में दलितों की स्थिति पर ही अपने आपको केंद्रित किये हुए थे और अंग्रेजों के समय के दस्तावेजों का अध्ययन करके बेहद सहज तरीके से अपनी बात को शोध पत्र के जरिए लिखते थे। उन्हे मै वर्तमान समय के सर्वश्रेष्ठ विश्लेषकों में मानता हूँ। बाबा साहब अंबेडकर से प्रेरणा लेकर वह भी अपनी बातों को बिना तर्कों और साक्ष्यों के नहीं रखते थे। ये दुर्भाग्य था कि वह हिन्दी भाषी समाज में अपना जीवन गुजार देने के बाद भी अधिक लोगों तक नहीं पहुँच पाए क्योंकि या तो अंग्रेजी में लिख रहे थे या थोड़ा बहुत बांग्ला में। इसके अलावा जो महत्वपूर्ण बात है वह यह कि डाक्टर विश्वास सोशल मीडिया पर नहीं थे। वह विस्तारपूर्वक लिखने के आदी थे और आज के फास्ट फूड जर्नलिज़म के दौर में अपने को अनफ़िट पाते थे इसलिए उनके आलेख शोध पत्रिकाओ में ही छपते थे क्योंकि वो 5000 शब्दों से कम नहीं होते थे हालांकि मेरा यह मानना है कि मैन्स्ट्रीम और countercurrents.org में छपे उनके आलेखों का संग्रह कर उसे हिन्दी में अनुदित किया जाना चाहिए। बिहार के संदर्भ में उनकी एक पुस्तक का अनुवाद पटना के अंबेडकरवादी मित्र मुसाफिर बैठा ने किया है लेकिन आज तक प्रकाशकों के अभाव में छप नहीं पाई।
डाक्टर ए के बिस्वास स्वभाव से बहुत ही विनम्र थे और इतने ऊंचे पदों पर रहने के बावजूद बहुत आत्मीयता से मिलते थे। हालांकि मै तो 1990 के दशक से उन्हे पढ़ रहा था लेकिन उनके साथ व्यक्तिगत संबंध 2016 से हुए जब मैंने उन्हे एक साक्षात्कार हेतु अनुरोध किया। 1995 के बाद से ही मै बाबा साहब अंबेडकर को जानने वाले अम्बेडकरवादियों के संपर्क में आया तो उनके अनुभवों का दस्तावेजीकरण भी करने लगा। पिछले 30 वर्षों में ऐसे अम्बेडकरवादियों से मुलाकात हुई जिन्होंने बाबा साहब के साथ काम किया, उनके आंदोलन का हिस्सा थे और उन्हे पढ़कर समाज को जागृत क्या था। बंगाल के दलित आंदोलन के विषय में बहुत कम जानकारी थी और क्योंकि मैंने बंगाल में मानव मल धोने के छुपे हुए सवाल को उस समय उठाया जब सी पी एम की सरकार थी तो मेरी उत्सुकता बंगाल में दलितों की स्थिति को लेकर और अधिक थी और मुझे लगा डाक्टर ए के विश्वास से अच्छा कोई नहीं बताया सकता। उनसे मुलाकात के बाद एक ऐसी मित्रता हुई कि वह कही भी होते तो फोन करते और लंबी लंबी बात करते। उनका कोई भी काल 1 घंटे से नीचे नहीं होता था क्योंकि वह बेहद अपनेपन से और विस्तार में जाकर बात करना चाहते थे। उनके अंदर एक टीस थी। वह ब्राह्मणवादी ताकतों के षड्यंत्रों का पर्दाफास करना चाहते थे और उसके लिए मूल दस्तावेजों का सहारा लेते थे। मैन्स्ट्रीम में लिखे उनके बहुत से आलेख हमें बंगाल और वहा के घटनाक्रमों की एक बेहद महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं।
ऐसा नहीं है कि डाक्टर विश्वास को सभी सफलताए आसानी से मिल गई। हकीकत यह है कि उनका जीवन अत्यधिक संघर्षपूर्ण था और उनकी कहानी सुनकर हमारा सिर स्वयं ही आदर में झुक जाता है। वह भारत विभाजन के दौर में दलितों के साथ हुए घटनाक्रम के गवाह थे हालांकि उम्र में बहुत छोटे थे क्योंकि विभाजन के समय उनकी उम्र 2 वर्ष की थी और लगभग 13-14 वर्ष बाद उन्हे पूर्वी बंगाल छोड़ना पड़ा क्योंकि मा बाप दोनों ही बचपन में गुजर गए थे। ये कैसे हुआ इस संदर्भ में मुझे कोई जानकारी नहीं लेकिन उस समय के हालातों से आप अंदाज लगा सकते हैं कि कैसे एक छोटा बच्चा बचपन में ही अपने मा बाप खो देता है। हालांकि अतुल कृष्ण ने अपनी मैट्रिक की परीक्ष अपने गाँव के स्कूल से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी लेकिन इसी समय लगभग 15-16 वर्ष की आयु में वह जेसोर (आज के बांग्लादेश) में अपने गाँव से पैदल चल कर बोनगांव ( अब भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के चौबीस परगना जिले का हिस्सा) पहुंचे जहा उनकी बड़ी बहिन रहती थी। उनके पैरों में छाले पड़् गए थे और उनकी बहिन ने गरम पानी से उनके पैरों के धोकर दर्द कम करने की कोशिश की। जैसोंर से बोनगांव की दूरी लगभग 77 किलोमीटर की थी और यह जैसोंर जिले का हिस्सा था लेकिन बिभाजन के बाद रेडक्लिफ अवॉर्ड के अंतर्गत जेसोर और खुलना पूर्वी पाकिस्तान, अब बांग्लादेश का हिस्सा बने और बोनगांव और आस पास के कुछ क्षेत्र भारत में शामिल कर लिए गए। खुलना जैसोंर इसलिए भी प्रसिद्ध हैं क्योंकि यहा बाबा साहब के सहयोगी जोगेन्द्र नाथ मण्डल की जन्मस्थली भी रही है और बाबा साहब अंबेडकर खुलना जैसोंर के प्रतिनिधि बनकर ही पहली बार संसद (संविधान सभा) में प्रवेश किये थे। बाद में यह सीट पाकिस्तान में चले जाने के बाद वह फिर बंबई के निर्वाचित प्रतिनिधि के तौर पर संविधान सभा में आए। भारत विभाजन की त्रासदी का असर बंगाल के दलितों पर जीवन पर्यंत रहा है और ऐसी ही मुश्किल हालातों ने अतुल कृष्ण को अपना मूल निवास छोड़ भारत आने पर मजबूर किया होगा।
उनकी आगे की शिक्षा अपनी बहिन के यहा ही हुई क्योंकि अब उसके अलावा और कोई सहारा देने वाला नहीं था। ऐसे कठिन हालातों में उन्होंने उन्होंने अपनी स्नातक ठाकुरनगर से किया जो मातुआ महासंघ के संस्थापक गुरु हरिचन्द्र ठाकुर दवरा स्थापित के प्रपौत्र प्रमाथ रंजन ठाकुर के नाम पर बनाया गया है। डाक्टर बिस्वास के एक मित्र अमर कृष्ण बिस्वास बताते हैं कि वह कालेज के दिनों में अतुल कृष्ण बिस्वास के सीनियर थे। ठाकुरनगर से अमर कृष्ण ने बी काम और अतुल कृष्ण ने बी ए की परीक्षा पास की। ये दिन बेहद कठिन थे क्योंकि उनके पास अपना कुछ नहीं था और वह हॉस्टल के खाना खा रहे थे जो बेहद खराब क्वालिटी का होता था। बी ए पास करने के बाद उन्होंने एक स्कूल में पढ़ाना शुरू किया और फिर उनका चयन पश्चिम बंगाल प्रांतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में हो गया और पहली बार वह उत्तर बंगाल में प्रशासनिक अधिकारी के रूप में नियुक्त किये गए।
इसी दौर में उनकी मुलाकात एस के बिस्वास से हुई जो भारतीय प्रशासनिक सेवाओ के लिए तैयारी कर रहे थे। यह बात मै यहा इसलिए लिख रहा हूँ कि 1990 के दशक में जब देश में अंबेडकरवादी बौद्धिक आंदोलन एक नए सिरे से मजबूत हो रहा था तो उसमें डाक्टर एस के बिस्वास की बहुत बड़ी भूमिका थी और इसी दौर में मैं उनसे मिला था। डाक्टर एस के बिस्वास ने दलित इतिहास के सिलसिले में बहुत बड़ा काम किया और इतिहास को नए सिरे से अम्बेडकरवादी नजरिए से विश्लेषित करने का काम किया। असल में अधिकांश लोग डाक्टर एस के बिस्वास और डाक्टर ए के बिस्वास को भाई ही समझते थे। डाक्टर ए के बिस्वास की मृत्यु के बाद जब मैंने उनसे फोन पर बात की तो उन्होंने मुझे बताया : हम दोनों भाई तो नहीं थे परंतु वह मेरे भाई से भी अधिक थे। श्री एस के बिस्वास बताते हैं कि दोनों में 1970 के बाद से ही पत्र मित्रता हो गई जो बाद में एक दूसरे के परिवारों के अभिन्न अंग की तरह हो गई। असल में हमारे जैसे साथी दोनों लोगों को भाई ही समझते थे लेकिन जैसे डाक्टर एस के बिस्वास ने बताया की ए के उनके लिए भाई से भी अधिक थे। डाक्टर अतुल बिस्वास के विवाह में दो गवाहों में से एक वह भी थे। ए के बिस्वास 1973 में आई ए एस बने और एस के बिस्वास 1975 में लेकिन दोनों के संबंध बहुत गहरे होते चले गए। श्री एस के बिस्वास बताते हैं कि मान्यवर कांशीराम भी उनकी विद्वता और ईमानदारी से प्रभावित थे।
1973 में आई ए एस की नौकरी जॉइन करने पर उन्हे बिहार के अनेकों जिलों में जाने का अवसर मिला। अपने स्वभाव के कारण नेताओ के बहुत प्रिय नहीं थे। उनकी पढ़ने में इतनी दिलचस्पी थी कि आई ए एस में आने के बाद भी वह उसे जारी रखना चाहते थे। बिहार में अपनी सेवाओ के दौरान ही उन्होंने अर्थशास्त्र में एम ए किया और फिर मुजफ्फरपुर के आयुक्त रहते हुए उन्होंने पी.एच.डी. की। उनकी पी एच डी की थीसिस थी — Inland and Overseas Emigration of Working Classes in the Nineteenth Century from Bihar.
डाक्टर अंबेडकर विश्व विद्यालय मुजफफफरपुर की स्थापना के लिए उन्होंने निजी तौर पर भी बहुत प्रयास किये और अंततः उसमें सफलता भी मिली और इसके बनने के बाद डॉ. बी.आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के पहले कुलपति के रूप में भी कार्य किया। 2007 में उन्होंने सरकारी सेवा से निवृति के बाद वह लगातार लिख रहे थे और अपनी आत्मकथा के ऊपर भी काम कर रहे थे।
डाक्टर ए के बिस्वास के बेहद कर्मनिष्ठ और ईमानदार अधिकारी थे जिन्होंने पद पर रहते हुए अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े वर्ग के कर्मचारियों के लिए बहुत काम किया लेकिन उनके शोधपूर्ण आलेखों से भविष्य में बंगाल में दलितों की स्थिति को लेकर बहुत महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है। आज की युवा पीढ़ी उनके शोधपूर्ण लेखों से बहुत लाभान्वित होगी।
पिछले वर्ष डाक्टर बिस्वास ने बोध गया महाबोधि विहार के सवाल पर एक बेहद महत्वपूर्ण लेख मैन्स्ट्रीम में लिखा था और ये इसलिए क्योंकि इसमें उन्होंने अपने अनुभव की बात भी रखी है। 5 जून 2005 को राष्ट्रपति के सचिव श्री पी एम नायर ने बिहार सरकार को बोध गया के संबंध में एक पत्र लिखा। चूंकि डाक्टर बिस्वास बिहार के गृह सचिव थे इसलिए वह पत्र उनके पास आया जिसमें राष्ट्रपति डाक्टर अबुल कलाम ये बोध गया महाबोधि विहार के विषय में पूरी जानकारी चाहते थे। पी एम नायर के पत्र में जो मुख्य बात थी वह यह है: बुद्धिस्ट लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता, अपने धार्मिक संस्थानों को स्वयं मैनेज करने के अधिकार, पूजा करने के अधिकार, आदि अधिकारों के उल्लंघन की बात कही गई थी। डाक्टर बिस्वास ने इस संदर्भ में सरकारी दस्तावेजों को खंगाल कर जो देखा वह उन्होंने इस लेख में लिखा है। आज बोधगया महाबोधि विहार के प्रश्न पर काम करने वाले लोगों को डाक्टर बिस्वास का यह लेख जरूर देखना चाहिए।
डाक्टर अंबेडकर संविधान सभा में बंगाल के जैसोंर से चुने गए थे लेकिन इस संदर्भ बहुत ही कम लोगों को जानकारी है कि वह बंगाल से चुने कैसे गए। ये सत्य है कि उन्हे शेड्यूल कास्ट फेडरैशन के श्री जोगेन्द्रनाथ मण्डल ने बंगाल आमंत्रित किया और उन्होंने ही अन्य दलित विधायकों को उन्हे वोट देने के लिए राजी किया जिसमें से दो तो काँग्रेस पार्टी के थे। मुझसे अपनी बातचीत में वह बताते हैं,
उस समय डॉ. अम्बेडकर भारत के गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद के सदस्य थे । जब स्वतंत्रता निकट आ रही थी, तो उन्हें स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाने या संविधान लिखने की आवश्यकता थी। पूरे देश में चुनाव आयोजित किये गये, ताकि सदस्य नये राष्ट्र के लिए संविधान का मसौदा तैयार कर सकें। कांग्रेस पार्टी अंबेडकर के खिलाफ थी और उन्होंने निर्णय लिया कि संविधान सभा में उनके प्रवेश को रोका जाना चाहिए। सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि हमने संविधान सभा के दरवाजे और खिड़कियां बंद कर दी हैं, और हम देखेंगे कि वह इस सदन में कैसे प्रवेश करते हैं। वह अपने गृह प्रांत, बॉम्बे प्रेसीडेंसी से निर्वाचित नहीं हो सके, इसलिए वह बंगाल राज्य विधानसभा के एंग्लो-इंडियन सदस्यों की मदद से बंगाल से निर्वाचित होने के बारे में सोच रहे थे। चुनाव से कुछ महीने पहले, जब वे कलकत्ता आये और उनका समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया, तो उन्हें बताया गया कि एंग्लो-इंडियन सदस्यों ने सबसे पहले तो चुनाव में भाग न लेने का निर्णय लिया है, तथा दूसरी बात यह कि वे चुनाव में किसी को भी वोट नहीं देंगे। अतः अम्बेडकर बहुत निराश हुए और दिल्ली वापस चले गये। इस समय जोगेन्द्रनाथ मंडल ने अंबेडकर को बंगाल आकर चुनाव लड़ने का निमंत्रण दिया । वह डॉ. अम्बेडकर द्वारा स्थापित भारतीय अनुसूचित जाति संघ के एमएलसी थे । और वह बंगाल विधानसभा के एकमात्र सदस्य थे। चुनाव से ठीक 21 दिन पहले अंबेडकर कलकत्ता आये और वहां उन्होंने अनुसूचित जाति समाज के समर्थकों और स्वयंसेवकों के साथ बैठक की और फिर वे चुनाव लड़ने के लिए राजी हो गये। नियत दिन पर चुनाव हुए और 7 एमएलसी ने अंबेडकर के पक्ष में मतदान किया। वास्तव में , किसी भी व्यक्ति को संविधान सभा का सदस्य चुने जाने के लिए 5 एमएलसी की आवश्यकता होती है। पहले चरण के परिणाम घोषित किये गये और पाया गया कि अंबेडकर को बंगाल से सबसे अधिक वोट मिले थे। संयोगवश, सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई शरत चंद्र बोस को 6 वोट मिले, जो डॉ. अंबेडकर से 1 कम था। इस प्रकार, दलित आंदोलन के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया और अंबेडकर द्वारा जीवन भर किया गया संघर्ष तार्किक निष्कर्ष के करीब पहुंच गया, और इससे उन्हें संविधान सभा में पहुंचने और इस देश के 'अछूत' लोगों के हित के लिए लड़ने का अवसर मिला।
इस संदर्भ में डाक्टर बिस्वास ने अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘मैन्स्ट्रीम’ में एक विस्तृत लेख भी लिखा था। डाक्टर बिस्वास का ये लेख हिन्दी में अनुवाद किया जाना चाहिए ताकि लोगों को इसकी जानकारी हो। मैन्स्ट्रीम पत्रिका के दिसंबर 24, 2016 के अंक का लिंक यहा दिया जा रहा है।
बंगाल में ईश्वर चंद्र विद्यासागर का नाम बहुत सम्मान से लिया जाता है लेकिन डाक्टर बिस्वास का एक लेख जरिए ये भी पूछते हैं कि आखिर बंगाल ‘दुनिया’ को ‘ज्ञान’ का संदेश देने वाला बंगाल आखिर अपनी ही बड़ी आबादी ‘दलितों’ को शिक्षा नहीं दे पाया और इस संदर्भ में वे ‘महापुरुषों’ के पाखंड और जातिवादी नजरिए का भी भंडाफोड़ते हैं। ये लेख यहा पढ़ा जा सकता है।
ऐसे ही उन्होंने बंगाल के एक बहुत बड़े नाम सुरेन्द्र नाथ बनर्जी की कहानी भी बताई जो अभी तक लोगों को पता नहीं थी। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी आई सी एस थे और उन्हे नौकरी से बर्खास्त किया गया था। उनकी बर्खास्तगी की जांच करती ये रिपोर्ट भी पढ़ने लायक है।
नामशूद्र हिस्ट्री काँग्रेस में उन्होंने इस समुदाय के राजनैतिक संघर्षों पर एक बहुत विस्तृत पत्र प्रस्तुत किया और ये भी बताया कि गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर 1926 में कोमिला (अब बांग्लादेश में है) में नांम शूद्रों के एक सम्मेलन में भाग लेने गए और वहा लोगों को संबोधित भी किया। ये विस्तृत लेख भी यहा देखा जा सकता है।
कुछ वर्षों पूर्व मेरे साथ की गई बातचीत को आप यहा देख सकते हैं।
उन्होंने 40 से अधिक शोधपत्र लिखे और अंग्रेजी और बंगाली में 10 से अधिक पुस्तकें भी लिखी।
उनकी पुस्तक नामशुद्रास ऑफ बंगाल : प्रोफाइल ऑफ ए परसीक्यूटेड कम्युनिटी ब्लूमून पब्लिकेशन सन 2000 में प्रकाशित हुई है। इसके अलावा उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकों में सोशल एण्ड कल्चरल विज़न ऑफ इंडिया: फैक्ट्स अगैन्स्ट फिक्शनस, अन्डर्स्टैन्डिंग बिहार, 1998, सेपोय म्यूटनी एण्ड इंडियन पर्फिडी, 1999, सती: सागा ऑफ ए गोरी सिस्टम, 1999, ए स्टडी ऑफ फ्यूडलिज़म इन ईस्टर्न इंडिया विद स्पेकल रेफ्रन्स टू बिहार।
डाक्टर ए के बिस्वास का निधन अंबेडकरवादी समाज के लिए एक बहुत बड़ा आघात है क्योंकि वह पूरी तन्मयता से ऐसे विषयों पर शोध कर रहे थे जो अधिकांश लोगों की नजर से ओझल है। हम आशा करते हैं के उनके विस्तृत विश्लेषणात्मक लेखों का संग्रह अवश्य ही निकलेगा और साथ ही साथ हिन्दी भाषी समाज के प्रकाशक भी उनके आलेखों को हिन्दी में छापेंगे। ये भी उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके परिवार के लोग उनके प्रकाशकों के साथ संपर्क कर ऐसी पुस्तकों को छपने में सहयोग करेंगे और उन प्रकाशकों से संपर्क करेंगे जिनके साथ वह अपनी आत्मकथा और कुछ अन्य विषयों के लेकर काम कर रहे थे। मैं उन्हे ऐड्वकेट भगवान दास, श्री एल आर बाली, श्री के जमनादास जैसे अम्बेडकरवादियों की श्रेणी में रखूँगा जिनके पास अनुभव के अलावा ज्ञान का भंडार था और ऐसे लोगों से बातचीत करके आप हमेशा ही अपने आपको वैचारिक और सोच के स्तर पर मजबूत बनाते हैं। आज ये अंबेडकरवादी युवाओ को डाक्टर अतुल कृष्ण बिस्वास के शोधपूर्ण आलेखों को अवश्य पढ़ना चाहिए।
डाक्टर अतुल कृष्ण बिस्वास को हमारी श्रद्धांजलि।
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