स्त्रीलेखन और साम्प्रदायिकता: हंगामा है क्यों बरपा

स्त्रीलेखन और साम्प्रदायिकता: हंगामा है क्यों बरपा
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आलोचक शंभुनाथ की एक टिप्पणी पिछले दिनों सोशल मीडिया की सुर्खियों में थी। समकालीन लेखिकाओं को लक्षित करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘‘आजकल स्त्री रचनाकार आमतौर पर सांप्रदायिक हिंसा को विषय क्यों नहीं बनाती हैं? आखिर धार्मिक कट्टरता पर अधिकांश चुप क्यों हैं?’’

उनकी इस टिप्पणी को लेकर हिन्दी के कुछ तोपवीर सोशल मीडिया की रणभूमि में उनसे गुत्मगुत्था हैं। बड़ी संख्या में स्त्री रचनाकारों ने भी इस मसले पर हस्तक्षेप किया और उनके इस आरोप को निराधार बतलाया। अभी तक यह जोर आजमाइश जारी है। कई समकालीन स्त्री रचनाकारों की कहानियों और उपन्यासों का उदाहरण दिया गया है,जो साम्प्रदायिकता विरोध पर लिखी गई हैं। बहुत सारी लेखिकाओं ने अपनी खुद की रचनाओं की सूचना साझा की है और शंभूनाथ की इस टिप्पणी को सरासर बकवास करार दिया है। इस बहस में बहुत सारे पुरुष लेखकों ने भी हस्तक्षेप किया है और इस सवाल की परिधि में महिला ही नहीं पुरुष कहानीकार और कवि की भी सीमाओं को चिह्नित किया है।

कुछ इसी तरह का सवाल दशकों पूर्व हिन्दी के वरिष्ठ लेखक शानी ने उठाया था। लेकिन उनका सवाल बहुत वास्तविक और सही वस्तुस्थिति में किया गया सवाल था। हिन्दी में मुस्लिम जीवन और चरित्रों पर लिखने वाले लोगों के अभाव की ओर उन्होंने सवाल उठाया था। तब इस सवाल से हिन्दी में एक महत्वपूर्ण बहस खड़ी हुई थी, जिसकी अनुगूंज वर्षों तक हिन्दी विमर्शों पर छाया रहा। क्या शंभुनाथ की यह टिप्पणी भी शानी की टिप्पणी की तरह हिन्दी विमर्शों को दूर तलक प्रभावित करेगी या यह यूं ही दम तोड़ देगी?

मुझे ऐसा लगता है कि यह बहस ज्यादा दूर तक नहीं जाएगी, क्योंकि वर्तमान हिन्दी स्फियर पर जिन यथास्थितवादी और एकांगी लोगों का कब्जा है, वह इसे किसी भी हाल में मूल कारणों की शिनाख्त तक नहीं ले जाना चाहेंगे, क्योंकि इससे उनकी ही चिंदिया उड़ सकती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि इस चर्चा में शामिल लोगों में अधिसंख्य वैसे हैं जो कहीं-न-कहीं चेतन-अवचेतन रूप में साम्प्रदायिक हैं, जाहिर है कोई भी विमर्श चाहे वह स्त्री विमर्श ही क्यों न हो, वह तबतक अधूरा है, जबतक वह धार्मिक कट्टरता पर मुखर विरोधी रुख न अख्तियार करे।

फिर हिन्दी फेमिनिज्म पर जिन द्विज महिलाओं का कब्जा है वह हिन्दू धर्म की जिस संकीर्णता को धारण करने को अभ्यस्त रही हैं, उनसे इस तरह की अपेक्षा पालना ही निरी मूर्खता कहलाएगी। उनसे किसी भी तरह की अपेक्षा इसलिए बेमानी है क्योंकि उन्होंने अपने व्यवहार से यह सिद्ध किया है कि किसी भी हालत में इसके मूल तक नहीं पहुँच सकतीं। बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर ने जिस हिन्दू कोड बिल पर नेहरू मंत्रिमंडल से महिलाओं के हक के लिए इस्तीफा किया था, इनमें से अधिकांश के लिए बाबा साहब आज भी खलनायक ही हैं। इसकी बानगी जाननी हो तो आप बाबा साहब के जन्म या निर्वाण दिवस पर इनके टयूटर या फेसबुक पर जाइए अपवाद स्वरूप ही इनमें से कुछ महिलाएं आपको मिलेंगी जो बाबा साहब को आदर से याद करने का कभी कोई पोस्ट लिखा या साझा किया हो।

इस पूरे परिप्रेक्ष्य में जिस तरह के सवाल खड़े किये जाने चाहिए थे, वह नहीं हो पाये। एक सवाल तो स्वयं शंभुनाथ से ही बनता है कि उन्होंने सांप्रदायिकता के जिन सवालों के घेरे में हिन्दी की समकालीन स्त्री लेखिकाओं को लिया है उन्होंने स्वयं हिन्दी के कितने समकालीन दलित, आदिवासी लेखिकाओं को कितना पढ़ा है? वे जिस मासिक ‘वागर्थ’ पत्रिका का सम्पादन करते रहे हैं उसमें कुछेक अपवादों को छोड़कर इन बहुजन लेखिकाओं को उन्होंने कितना स्पेस दिया है? जिस हिन्दू सांप्रदायिकता और हिन्दू धर्म की अमानवीयता के कारण इस देष का बेड़ा गर्क हुआ है, उसकी अमानवीयता पर उन्होंने कितना लिखा है?

शंभुनाथ स्वयं हिन्दी, हिन्दू नवजागरण के पैरोकार रामविलास शर्मा के घोर प्रशंसक रहे हैं जिनके आदर्श वर्णव्यवस्था का समर्थन करनेवाले तुलसीदास रहे हैं। ऐसे में यह सवाल सहज ही बनता है कि जो व्यक्ति स्वयं ही हिन्दू धर्म की अमानवीयता का समर्थन करनेवाले लोगों का हिमायती हो, और साहित्य में ब्राह्मण बनिया गठजोड़ का प्रतिनिधि चेहरा हो, वह भला दूसरे पर साम्प्रदायिकता का सवाल चस्पां क्यों करे? एक ऐसे दौर में जब हिन्दू धर्म की अमानवीयता पर लगातार चिंतन-मनन का क्रम जारी है यह शंभूनाथ ही हैं जो हिन्दू धर्म की उपलब्धियों के गायन में लगे हैं।

शंभुनाथ जैसे लोग, जो स्वयं ही नाना प्रकार की संकीर्णताओं और चंद द्विज लेखकों से घिरे हों, और उनके ही लेखन के शोर में डूबें हों, वे हिन्दी के वास्तविक लेखन और उसमें स्त्रियों के लेखन को समझ भी नहीं सकते। यह बात जो उन्होंने स्त्री लेखिकाओं पर चस्पां किया है इसका शिकार हिन्दी का पूरा समकालीन लेख नही है। यह अकारण नहीं कि हिन्दी में न कोई पेरुमल मुरुगन हुआ, न नरेंद्र दाभोलकर, न गोविंद पानसारे, न गौरी लंकेश और न अरूंधती राय जैसा लेखक, क्योंकि साम्प्रदायिकता से टकराने के लिये जिस धार्मिक कट्टरता से लोहा लेने की दरकार है वह हिन्दी लेखन में सीधे से नदारद है। वह इसलिए नदारद है क्योंकि उससे टकराने के लिए जो मानसिक चेतना और साहस चाहिए वह हिन्दी समाज में कभी रहा ही नहीं।

दक्षिण में यह सब इसलिए रहा कि वहां फुले, अम्बेडकर और पेरियार जैसी शख्सियतों ने कड़े संघर्ष से वहां के लोगों की चेतना को वैज्ञानिकता के निकष पर कसा। हिन्दी में ले देकर दयानंद सरस्वती और आर्य समाज का आंदोलन प्रभावी रहा जिसने वेदों की ओर लौटने को ही अपना क्रांतिकारी लक्ष्य माना। जाहिर है यह चेतना अभी भी यहां इतने गहरे जमी हुई है कि वह तब तक खत्म न होगी जबतक हम रामस्वरूप वर्मा की परंपरा में खड़ी की गई विरासत को आत्मसात नहीं करेंगे।

कभी डॉ. राममनोहर लोहिया ने बांग्ला लेखन को लक्षित करते हुए कहा था कि चूंकि इस भाषा और उस लेखन में एक खास जातियों के लोगों का ही बहुतायत है और एक बहुत बड़ी आबादी इस क्षेत्र में आयी ही नहीं है इसलिए समाज की जो विविधता है वह यहां आयी ही नहीं है। यह तब आएगी जब इन वर्गों और जातियों से आनेवाले लोगों का लेखन में प्रवेश होगा। लोहिया की बात इस संबंध में आज भी मौजूं है, क्योंकि जबतक आप हिन्दी में डाइवर्सिटी नहीं लाएंगे, अलग-अलग क्षेत्रों और अस्मिताओं का सम्मान नहीं करेंगे, हिन्दी का कभी भी अपना वृहतर सरोकार अभिव्यक्त नहीं होगा।

शंभुनाथ जी, हिन्दी कविता में आपलोगों ने दशकों में विभाजन करके चंद द्विज कवियों को जिस तरह से हीरो बनाने की परिपार्टी कायम की हुई है, क्या आपको नहीं लगता कि उनके समानांतर हिन्दी में बड़ी संख्या में स्त्री कवयित्रियां और उसमें भी आदिवासी कवयित्रियां आई हैं, जिनके लेखन में एक अलग तरह की आग है, और इनमें से अधिसंख्य का अपीयरेंस आप जैसे संपादकों और द्विज प्रकाशकों के कारण नहीं अपितु सोशल मीडिया के कारण बढ़ा है जिसको आप जैसे लोग और ये प्रकाशक आज इग्नोर करने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए शंभू जी हमारी आपसे दर्खावस्त है कि अपने सरोकार अज्ञेय, नागार्जुन और ज्ञानेन्द्रपति से उपर कीजिए, अपने यहां इन बहुजन आवाजों को स्पेस दीजिए तब आपको इनसे इस तरह की शिकायत नहीं रहेगी। वरना उन चंद सुविधाभोगी स्त्रियों से यह उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं जिन्होंने न भीशण गरीबी देखी, न संघर्ष देखा न साम्प्रदायिकता की भीषणता का दंश सहा।

सीधी-सी बात यह है कि अगर आपको हिन्दी लेखन को इसके अनुकूल बनाना है तो आप अपने यहां मुस्लिम, दलित और आदिवासी लोगों को स्पेस दीजिए। इन समूहों से आनेवाले लेखकों ने सांप्रदायिकता को जिस तरह से जिया है वह आप उनके लेखन में भी पाएंगे।

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