बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर को बौद्धों को सौंपे बिहार सरकार

बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर
बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर
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बौद्ध भिक्षु, कार्यकर्ता और विभिन्न संगठन बोधगया में महाबोधि बुद्ध विहार के पवित्र मंदिर का प्रबंधन भारत के बौद्धों को सौंपने की मांग को लेकर धरना दे रहे हैं। यह बेहद दुखद और शर्मनाक है कि हमारे गणतंत्र के 75 साल बाद भी, दुनिया भर मे बौद्धों के लिए  उनके सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र स्थान मे आज भी उनका अपना नियंत्रण नहीं है और शासकीय संचालन के नाम पर ब्राह्मणवादी तंत्र उस पर हावी है।  बौद्ध स्थल के रूप में इस मंदिर की प्रामाणिकता या ऐतिहासिकता के बारे में कभी भी कोई संदेह नहीं रहा  है।  इस मंदिर को  सम्राट असोक महान ने विकसित किया था, लेकिन बाद में गुप्त और पाल वंश काल के दौरान इसका जीर्णोद्धार किया गया। पाल वंश के के समाप्ति के बाद स्थिति खराब हो गई। 18 वी शताब्दी के बाद बर्मा के राजाओं द्वारा इसका जीर्णोद्धार या पुनर्निर्माण करने की प्रयास किये गये। 16 वी शताब्दी के बाद से इस स्थान पर एक हिन्दू महंत ने, जो शैव संप्रदाय का होने का दावा करते हैं, अपना मठ बनाकर रहना शुरू किया।  यह एक तथ्य है कि 12 वी सदी के बाद के वर्षों में जब पाल वंश के शासकों ने बंगाल के सेना वंश के हाथों अपनी शक्ति खो दी तो मंदिरों की उपेक्षा की गई और साथ ही उन पर हमला किया गया। बौद्धों का सबसे बड़ा विरोध राजा शशांक के शासन के दौरान हुआ। बाद मे बख्तियार खिलजी और बहुत से अन्य मुगल शासकों और उनके स्थानीय सहयोगियों ने भी जी चाह कर उन्हे खत्म किया और उनके संरक्षण और पुनर्निर्माण मे कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और इस तरह ये बड़े स्थल खंडहर मे बदल गए।

अंग्रेजों के भारत मे शासन काल के बाद से भले ही बाकी जो भी काम किये हों जिन पर हमारे सवाल जायज हैं, लेकिन उन्होंने भारत की ऐतिहासिक सांस्कृतिक विरासतों को विशेषकर भारत में बौद्ध धर्म के महान पुततात्विक स्थलों के संरक्षण और पुनर्निर्माण के लिए बहुत कार्य किया ही और इसके लिए उनकी  सराहना की जानी चाहिए। ब्राह्मणवादियों और मुग़ल शासकों खत्म करने के पूरे प्रयास किये।  ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत काम करने वाले अनेकों अधिकारियों मे महान ब्रिटिश सर्वेक्षक मेजर जनरल ए. कनिंघम, भारतीय पुरातत्वविद् डॉ. राजेंद्रलाल मित्रा आदि के महत्वपूर्ण योगदान को याद रखना जरूरी है। आज भारत के सभी पुरातत्व स्थलों के खुदाई, रख रखाव और उनके डाक्यूमेन्टैशन के लिए जनरल कनिंघम और उनके अन्य सहयोगीयो ने आज हमे इन स्थलों मे मौजूद भारत की वैभवशाली सांस्कृतिक विरासत को याद दिलाया है।

बोधगया महाबोधि मंदिर
बोधगया महाबोधि मंदिर

इस बात पर कभी किसी को संदेह नहीं रहा कि बोधगया विश्व भर मे  बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए सबसे बड़ा तीर्थस्थल है और अतीत में कई विद्वानों ने कहा कि जैसे मुसलमानों के लिए मक्का, हिंदुओं के लिए बद्री-केदार और ईसाइयों के लिए यरुशलम जैसा तीर्थस्थलो का महत्व है वैसे ही बोध गया का महत्व है। शुरू से ही लगभग सभी दस्तावेजों और शोधों से केवल एक ही निष्कर्ष निकला है कि यह एक बौद्ध मंदिर है और बोधि वृक्ष दुनिया के सबसे पुराने वृक्षों में से एक है।यह इस तथ्य के बावजूद भी कि इसे कई बार नष्ट किया गया और उखाड़ा गया लेकिन इसे फिर से स्थापित किया गया।

हम इस महाविहार के विषय मे  प्रामाणिकताओं के बारे में ज़्यादा विस्तार से नहीं बता रहे हैं क्योंकि यह एक बुद्धिस्ट महाविहार है सभी लेखकों और इतिहासकारों ने निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। भारत में अन्य धार्मिक 'विवादों' के विपरीत, महाबोधि विहार को बौद्ध मंदिर के रूप में स्थापित करने का मुद्दा  असल मे इसलिए ‘सुलझा’ हुआ है क्योंकि ब्रिटिश विद्वानों से लेकर ब्रिटिश भारतीय विशेषज्ञों, इतिहासकारों, विद्वानों, राजनेताओ  तक ने इसे बौद्ध स्थल माना है। अंग्रेजों ने इस मुद्दे को बहुत सावधानी से संभाला और उस समय की वार्ता में भी शंकर मठ द्वारा ‘दावा की गई’ भूमि के 'स्वामित्व' पर सवाल नहीं उठाए गए थे। मठ की भूमिका की इसलिए सराहना की गई क्योंकि इसने स्थल को हिंदू मंदिर में नहीं बदला और बौद्धों को वहां पूजा करने की अनुमति दी। इसलिए हिंदू और बौद्ध दोनों ही उस परिसर के आसपास पूजा करते थे जहां मठ ने हिंदू मंदिर भी बनाया है।

बोधगया और महाबोधि विहार के बारे में बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ़ गया, 1906 मे बताया गया है:

'यह मंदिर मूल रूप से एक बौद्ध तीर्थस्थल था, लेकिन पिछले काफी समय से यह बौद्ध धर्म के कट्टर शत्रुओं द्वारा स्थापित एक संप्रदाय से संबंधित एक हिंदू महंथ के कब्जे में है। यह पूरी तरह से खंडहर हो चुका है और जल्द ही गायब हो जाता अगर सरकार ने इसे अपने खर्च पर बहाल नहीं किया होता। अब सरकार इमारत की देखभाल और रख रखाव के लिए एक संरक्षक रखते हैं। महंथ पूजा को नियंत्रित करता है और बौद्धों और हिंदू तीर्थयात्रियों द्वारा दिए गए प्रसाद को स्वीकार करता है। सरकार तीर्थस्थल को प्रभावित करने वाले सभी धार्मिक प्रश्नों पर निष्पक्षता का रवैया बनाए रखती है। बौद्ध लोग तीर्थस्थल पर और बोधि वृक्ष के नीचे अपने धर्म के अनुष्ठान करते हैं, जैसा कि विभिन्न देशों के बौद्ध सदियों से करते आ रहे हैं और हिंदू भी वृक्ष के नीचे प्रसाद चढ़ाते हैं क्योंकि इसे उन 45 स्थानों में से एक माना जाता है जहाँ हिंदू अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए धार्मिक अनुष्ठान करते समय जाते हैं जो पवित्र शहर गया के आसपास केंद्रित है। हालांकि वृक्षों के प्रति हिंदुओं की यह श्रद्धा बहुत पुरानी है, लेकिन जो संप्रदाय अभी हाल मे ही खड़ा हुआ है, उसने जिसे   नकली और अपरंपरागत चरित्र घोषित किया गया है, उसकी ही पूजा यहा  मंदिर में की जाती है।

ऐतिहासिक बोधि वृक्ष के बारे में कहा गया है, 'यह वृक्ष दुनिया का सबसे पुराना ऐतिहासिक वृक्ष है और इसका इतिहास बहुत ही घटनापूर्ण है। इसे सबसे पहले असोक महान ने बुद्ध धम्म ग्रहण करने से पूर्व के दिनों में कटवाया था, लेकिन बुद्ध के नियमों में आस्था रखने के बाद, उन्होंने इस पर अत्यधिक श्रद्धा व्यक्त की। उनकी रानी को इस लगाव से ईर्ष्या हुई और असोक द्वारा वृक्ष को अर्पित किए गए रत्न से ईर्ष्या हुई, इसलिए उन्होंने इसे फिर से कटवा दिया, लेकिन दूसरी बार यह वृक्ष चमत्कारिक रूप से  पुनर्जीवित हो गया।'

बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर्स, गया, एलएसएस ओ'मैली, आईसीएस, कलकत्ता, द बंगाल सेक्रेटेरिएट बुक डिपो, 1906, पृ. 50-51

दिलचस्प बात यह है कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने जनवरी 1922 में बोधगया का दौरा किया था और इस बौद्ध मंदिर को देखकर अभिभूत हो गए थे। उन्होंने कहा, "मुझे यकीन है कि सभी हिंदू जो अपने आदर्शों के प्रति सच्चे हैं, वे यह स्वीकार करेंगे कि भगवान बुद्ध को जिस स्थान पर ज्ञान प्राप्त हुआ था, उस स्थान पर बने मंदिर को एक विपरीत मतावलंबी संप्रदाय के नियंत्रण में रहने देना एक असहनीय अन्याय है, जिसे न तो बौद्ध धर्म और उसकी पूजा-अर्चना के बारे में गहन ज्ञान है और न ही उसके प्रति सहानुभूति है। मैं इसेस्वतंत्रता और न्याय में विश्वास रखने वाले सभी व्यक्तियों का एक पवित्र कर्तव्य मानता हूं कि जो इस महान ऐतिहासिक स्थल को उन लोगों के समुदाय को समर्पित करें जो आज भी अपने जीवंत विश्वास से इतिहास की उस विशेष धारा को श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ा रहे हैं।"

महाबोधि मंदिर
महाबोधि मंदिर

ब्रिटिश भारतीय सरकार इस मुद्दे को सावधानीपूर्वक संभालने की कोशिश कर रही थी ताकि उस पार पक्षपात का आरोप न लगे और सांप्रदायिक उन्माद न हो लेकिन बोध गया के पुनरुत्थान और जीर्णोद्धार मे सबसे बड़ा योगदान श्रीलंका के बौद्ध भिक्षु और विद्वान अनागरिक धर्मपाल का महति प्रयास था, जिन्होंने इसके लिए अभियान चलाया और इसे अंतर्राष्ट्रीय बनाया। हालाँकि चीनी यात्री और विद्वान जैसे ह्वेन थ्सांग, फ़ाहियान ने सदियों पहले ही बोध गया और महाबोधि विहार और बोधि वृक्ष के बारे में बताया था और बाद मे सम्राट असोक, गुप्त और पाल वंश के राजाओ ने इसका संरक्षण किया। 16 वी शताब्दी के बाद बर्मा के  राजा इसके जीर्णोद्धार में शामिल थे लेकिन यह अनागरिक धर्मपाल ही थे जिन्होंने वास्तव में इस मुद्दे को संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान तक पहुँचाया। हालांकि ब्रिटिश विद्वान, उत्खननकर्ता और पुरातत्वविद् पहले से ही भारत में विभिन्न बौद्ध स्थलों को बनाए रखने और जीर्णोद्धार करने के लिए अपना काम कर रहे थे लेकिन अनागरिक धर्मपाल दवरा जापान को भी इसमे शामिल करने के बाद ब्रिटिश सरकार के लिए इस प्रश्न से ध्यान हटाना मुश्किल था क्योंकि  जापान उन दिनों एक प्रमुख विश्व शक्ति था और इसकी भागीदारी ने वास्तव में यह मदद की कि ब्रिटिश अधिकारियों ने तब इसे अधिक गंभीरता से लिया। दुर्भाग्यवश, वे स्थानीय भावनाओं को 'चोट' नहीं पहुँचाना चाहते थे क्योंकि स्थल की ऐतिहासिकता के बारे में तो कोई संदेह नहीं था लेकिन कोई स्थानीय आबादी नहीं थी जो इसके लिए लड़ सके। अगर डॉ बाबा साहेब अंबेडकर उस समय इस प्रश्न पर सक्रिय या शामिल होते तो चीजें अलग होतीं। दुर्भाग्य से, सक्रिय स्थानीय समर्थन के बिना, कोई इस तरह के बड़े मुद्दे से नहीं लड़ सकता। भारत में ब्राह्मणवादी अभिजात वर्ग द्वारा बौद्ध तीर्थस्थलों पर कब्ज़ा  12 वीं शताब्दी में पाल वंश की शक्ति के खत्म होने के कारण बौद्ध धर्म में लगातार गिरावट के साथ-साथ सेन वंश के उदय के कारण हुआ, विशेष रूप से राजा ससंक, जो बौद्ध धर्म के कट्टर विरोधी थे। इसके बाद, कई कहानियों में इन ऐतिहासिक स्थलों के विनाश के लिए विभिन्न मुगल शासकों और उनके स्थानीय सरदारों को जिम्मेदार ठहराया गया है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और हिंदू महासभा ने बाबू राजेंद्र प्रसाद को संयोजक बनाकर एक समिति बनाई । 21 जनवरी 1923 को एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया, 'बाबू राजेंद्र प्रसाद को बोधगया मंदिर की देखरेख बौद्धों के हाथों में सौंपने के प्रस्ताव की जांच करने और इस समिति को रिपोर्ट देने का अधिकार दिया जाता है। बाबू राजेंद्र प्रसाद को जांच में उपयुक्त व्यक्तियों को शामिल करने का भी अधिकार दिया गया है।'

बिहार प्रदेश हिन्दू महासभा ने  6 अप्रेल 1925 को निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किया:

'भगवान बुद्ध हिंदुओं के दस अवतारों में से एक हैं और एकमात्र ऐसे देव हैं जिनकी बौद्ध पूजा करते हैं। इसलिए बोधगया का मंदिर दोनों धर्मों के अनुयायियों के लिए एक पवित्र स्थान (तीर्थ ) है। इसलिए दोनों समुदायों की ओर से इस पवित्र स्थान को अपने कब्जे में रखना पूरी तरह से स्वाभाविक है। वर्तमान समय में दोनों समुदाय पूजा और प्रार्थना के लिए इस स्थान का सहारा लेते हैं। दोनों समुदायों के लोग चाहते हैं कि उनमें से प्रत्येक को अपनी-अपनी रीति-रिवाजों और धार्मिक आदेशों के अनुसार अपनी-अपनी विशिष्ट विधि से पूजा और प्रार्थना करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और ऐसा करने में उनके मार्ग में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। इसलिए यह सम्मेलन इस राय का है कि भारत के बौद्धों को मंदिर के प्रबंधन और उसमें पूजा की व्यवस्था में उचित हिस्सा दिया जाना चाहिए। यह सम्मेलन निम्नलिखित समिति की नियुक्ति करता है जो हिंदुओं और बौद्धों दोनों के सामान्य अधिकारों की रक्षा के लिए उठाए जाने वाले कदमों के बारे में तीन महीने के भीतर प्रांतीय हिंदू सभा को एक रिपोर्ट देगी। इसमें बोधगया के महंत से भी अनुरोध किया गया है कि वे समिति को हर संभव सहायता प्रदान करें तथा अपने कर्तव्यों का उचित निर्वहन करें। इस प्रस्ताव का बोधगया मठ से जुड़ी संपत्तियों से कोई लेना-देना नहीं होगा।

दुर्भाग्य से, बाबू राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व वाली समिति द्वारा किए गए तमाम शोर-शराबे के बावजूद, यह महसूस किया गया कि मंदिर का प्रबंधन बौद्धों और हिंदुओं दोनों की एक संयुक्त समिति द्वारा किया जाना चाहिए। एक और मुद्दा था, जो महत्वपूर्ण था, हिंदू महासभा ने संपत्ति के 'स्वामित्व' के मुद्दे को प्रबंधन के दायरे से बाहर रखने का सुझाव दिया था।

समिति ने हिंदू महासभा के सुझाव के आधार पर सुझाव दिया कि 'मंदिर का प्रबंधन हिंदू और बौद्ध दोनों ही करें और महंत 'कुछ समय' के लिए पदेन सदस्य हों। साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि मठ की संपत्ति का मुद्दा इन सब से कोई लेना-देना नहीं है, यानी संपत्ति महंत के पास ही रहेगी। हालांकि महंत का दावा है कि उनके पास शाह आलम का फरमान है, लेकिन वे समिति के सामने कुछ भी पेश नहीं कर पाए। महादेव गिर 1642 से 1682 तक महंत रहे और शाह आलम का शासन समय बहुत बाद का है।

आज़ादी के बाद बिहार सरकार ने बोधगया मंदिर प्रबंधन अधिनियम 1949 पारित करके इसे विशेष प्रबंधन के नियंत्रण में ले लिया। इस अधिनियम के तहत, बोधगया मंदिर का प्रबंधन वस्तुतः ब्राह्मणों के हाथों में है, क्योंकि 'हिंदू' समुदाय  से चार और बौद्ध समुदाय से चार सदस्यों की नियुक्ति की जाती है। जिला मजिस्ट्रेट समिति के पदेन अध्यक्ष होते हैं। आज बहुत से सामाजिक कार्यकर्ता ये आरोप लगते हैं कि देश भर मे बड़े बड़े मंदिरों के अधिकांश समितियों मे ब्राह्मण बनियों का दबदबा बना रहता है। अधिकतर स्थानों पर जिलाधिकारी भी ब्राह्मण ही नियुक्त किये जाते हैं। क्या दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल पर इस प्रकार की राजनीति उचित है ?

 29 जून 2002 को यूनेस्को ने बोध गया महाबोधि विहार को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया। इसके उद्धरण में कहा गया है,

मानदंड (i): 5वीं-6वीं शताब्दी का भव्य 50 मीटर ऊंचा महाबोधि मंदिर अत्यधिक महत्व रखता है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में मौजूद सबसे शुरुआती मंदिर निर्माणों में से एक है। यह उस युग में पूरी तरह से विकसित ईंट मंदिरों के निर्माण में भारतीय लोगों की वास्तुकला प्रतिभा के कुछ प्रतिनिधित्वों में से एक है। मानदंड (ii) महाबोधि मंदिर, भारत में शुरुआती ईंट संरचनाओं के कुछ जीवित उदाहरणों में से एक है, जिसका सदियों से वास्तुकला के विकास में महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है।

मानदंड (iii): महाबोधि मंदिर का स्थल बुद्ध के जीवन और उसके बाद की पूजा से जुड़ी घटनाओं के लिए असाधारण रिकॉर्ड प्रदान करता है, खासकर तब से जब सम्राट अशोक ने पहला मंदिर, बालस्ट्रेड और स्मारक स्तंभ बनवाया था। मानदंड (iv) वर्तमान मंदिर गुप्त काल के अंत में पूरी तरह से ईंटों से निर्मित सबसे प्रारंभिक और सबसे भव्य संरचनाओं में से एक है। नक्काशीदार पत्थर के बालस्ट्रेड पत्थर में मूर्तिकला राहत का एक उत्कृष्ट प्रारंभिक उदाहरण हैं।

मानदंड (vi): बोधगया में महाबोधि मंदिर परिसर का भगवान बुद्ध के जीवन से सीधा संबंध है, क्योंकि यह वह स्थान है जहां उन्होंने सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति की थी।

अब सवाल यह है कि जब इस मामले से जुड़े हर व्यक्ति और पक्ष को बोधगया महाविहार की ऐतिहासिकता पर कोई संदेह नहीं है, तो इसे बौद्धों को सौंपने में क्या बाधा है, जो कि वहां का अधिकार है। जहां तक हिंदू मंदिर या मठ का सवाल है, बिहार से बाहर किसी को भी इस तथाकथित हिंदू मंदिर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। हिंदुओं के महत्वपूर्ण तीर्थस्थल और मंदिर हैं। बोधगया से 10 किलोमीटर दूर गया को एक महत्वपूर्ण हिंदू स्थल माना जाता है और इस पर कोई सवाल नहीं उठाता। यह शुरू से ही स्पष्ट था कि महंत ने मुगल राजाओं से जागीर या जमींदारी हासिल करने का दावा किया था और दोनों मंदिरों के अलावा यह उनकी आय और शक्ति का मुख्य स्रोत था। हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि ब्राह्मणवादी लॉबी ने जमींदारी उन्मूलन की सभी कोशिशों को कैसे विफल कर दिया, जो कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के लिए बहुत प्रिय मुद्दा था लोग यह भ्रम में रहते हैं कि केवल राजपूतों के पास ही जमींदारी थी, लेकिन बिहार बंगाल में जमींदारी केवल राजपूतों के ही पास नहीं था बल्कि उनसे बड़ी भी जमींदारिया थी। ब्राह्मण-भूमिहार-कायस्थों के पास बंगाल और बिहार में बड़ी-बड़ी जमींदारियां थीं।

यह अनुमान लगाया गया था कि बोधगया मठ के पास 18000 एकड़ से अधिक भूमि थी (कई लोगों ने अनुमान लगाया कि यह 30,000 एकड़ से अधिक थी) और यह उनकी 'शक्ति' का मुख्य स्रोत था जिसके उत्पीड़न के मुख्य शिकार  गरीब भूमिहीन लोग थे जो बेगारी और बंधुआ मजदूरी करते थे,  खासकर मुशहर, डोम, भुइयां और अन्य पिछड़े समुदाय के लोग। लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने 18 अप्रैल 1975 को भूमिहीन किसानों और अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं की एक ऐतिहासिक सभा को संबोधित किया और भूमि के पुनर्वितरण की मांग की। इसके बाद ये आंदोलन और मजबूत हुआ लेकिन मंजिल तक पहुँचने मे करीब 12 वर्ष लगे। बोध गया का  भूमि आंदोलन 1987 तक जारी रहा जब बिहार सरकार ने 11000 भूमिहीन किसानों के बीच 18000 एकड़ जमीन वितरित की, जिनमें से अधिकांश भूमिहीन महिलाएं और दलित थे। गया, भोजपुर, आरा, जहानाबाद भूमिहीन समुदायों के भूमि अधिकारों के आंदोलन का केंद्र बने रहे और बड़ी संख्या मे महिलाओ को भूमि का आवंटन हुआ। एक प्रकार से महियायालों के भूमि अधिकारों की मांग को लेकर ये सबसे बड़ा जनआन्दोलन कहा जा सकता है।

19 वी और 20 वी सदी मे  बौद्ध धर्म के लिए जापान, चीन, थाईलैंड, बर्मा और अन्य देशों जैसे बाहरी देशों से आने वाले समर्थन को छोड़कर, स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त समर्थन नहीं मिला क्योंकि बुद्धिस्ट अस्मिता के आंदोलन मजबूत नहीं थे। हालांकि नेहरू के नेतृत्व मे देश के सभी राजनेताओ ने भारत के ऐतिहासिक बौद्ध अतीत पर गर्व महसूस किया है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पंचशील में विश्वास करते थे लेकिन ये भी हकीकत है कि ब्राह्मणवादी तंत्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा शायद मठ की विशाल भूमि के अधिग्रहण के डर उसको पूर्णतः बौद्ध लोगों को सौंपने के पक्ष मे नहीं थे और इसलिए आनन फानन मे तथाकथित समिति  बनाकर नियंत्रण को ब्राह्मणों के हाथ मे रखा। आज स्थितिया बदल चुकी हैं। 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहब द्वारा लाखों लोगों को दीक्षा देने के बाद भारत मे बुद्ध धर्म दोबारा से खड़ा हुआ है। आज लोग बौद्धहो के सबसे बड़े और पवित्र स्थल को उन्हे सौंपने की मांग कर रहे हैं जो बिल्कुल जायज है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भगवान बुद्ध के बारे में बहुत श्रद्धा से बोलते रहे हैं और बौद्ध त्योहारों और कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। उनकी सरकार ‘लुक ईस्ट’ की पॉलिसी पर चल रही है। दक्षिण पूर्व एशिया मे हमारे अधिकांश पड़ोसी बौद्ध देश हैं और भारत के प्रति बहुत सम्मान रखते हैं क्योंकि यह वास्तव में बुद्ध की भूमि है। कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं होगा जो बौद्ध दुनिया के सबसे बड़े तीर्थस्थलों को बौद्ध समुदाय को सौंपने का विरोध करेगा ताकि वे इसका प्रबंधन और भली प्रकार से  रखरखाव कर सकें।

यह हम स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती द्वारा 1 फरवरी, 1926 को महाबोधि पत्रिका में प्रकाशित इस विचारोत्तेजक पत्र को जोड़ना चाहता हूँ । कोई व्यक्ति उनके बहुत से विचारों से सहमत या असहमत हो सकता है, लेकिन जो बात समझना महत्वपूर्ण है, वह है उनकी मुख्य बात यह कि क्यों हिन्दुओ का बौद्धहो की भावनाओ का सम्मान करते हुए महाबोधि विहार बौद्धों को सौंपने का समर्थन करना चाहिए।

'यह सभी हिंदुओं के लिए बहुत शर्म की बात है कि वे एक व्यक्तिगत शैव महंत को सबसे बड़े बौद्ध मंदिर पर नियंत्रण करने की अनुमति देते हैं। क्या यह न्यायसंगत और सही है? यह बहुत आश्चर्य की बात है कि कुछ हिंदू भगवान बुद्ध की याद में बनाए गए मंदिर पर एक व्यक्तिगत सांप्रदायिक गैर-बौद्ध महंत द्वारा जबरन कब्जे के खिलाफ आपत्ति नहीं उठाते हैं, जो 500 मिलियन बौद्धों के एकमात्र शिक्षक और पूरे बौद्ध जगत के पूज्य हैं। कोई भी हिंदू इस तरह के अवांछनीय तरीके से किसी ईसाई या मुस्लिम मंदिर को नियंत्रित नहीं कर सकता। यह बुद्ध, बौद्ध धर्म और बुद्ध और बौद्ध धर्म का पालन करने वाली दुनिया की एक तिहाई आबादी के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। जब तक हिंदू, एक व्यक्तिगत गैर-बौद्ध महंत की बात तो दूर, सबसे बड़े बौद्ध मंदिर पर नियंत्रण रखेंगे, तब तक पूरा बौद्ध जगत हिंदुओं को नीची निगाह से देखेगा और कहेगा कि भारत में बहुत बड़ा अन्याय हो रहा है। इसलिए, मैं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और हिंदू महासभा के प्रत्येक सदस्य से प्रार्थना करता हूं कि वे इस मामले में गहरी दिलचस्पी लें और बुद्ध और बौद्धों के साथ न्याय करें। जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ब्रिटिश सरकार से पूर्ण स्वराज की मांग करती है, जो भारतीयों का हक है, तो कांग्रेस को भी बौद्ध मंदिर को बौद्धों को सौंपकर न्याय क्यों नहीं करना चाहिए? हम अपने हिंदू धर्मग्रंथों में पाते हैं कि भारत न्याय और सत्य का एक महान स्रोत था, लेकिन वर्तमान में मैं इस महानतम बौद्ध मंदिर के पूर्ण प्रबंधन को इसके वैध संरक्षकों को सौंपने के ईमानदार और न्यायपूर्ण प्रयास में निराधार बाधाओं को देखकर खेद व्यक्त करता हूँ। यदि कोई दूसरों से न्याय चाहता है तो उसे पहले दूसरों के साथ न्याय करना चाहिए। खिलाफत आंदोलन के दिनों में हिंदुओं ने खिलाफतियों की मदद की, अकाली आंदोलन के दिनों में उन्होंने अकालियों की मदद की, हिंदुओं को बौद्धों को उनके सबसे पवित्र मंदिर को वापस पाने में मदद क्यों नहीं करनी चाहिए?

सवाल विशुद्ध न्याय का है। अगर हिंदू महासभा बौद्धों के साथ न्याय करने में विफल रहेगी तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि बौद्ध नैतिक रूप से प्रभावित होंगे और इससे बहुत दूर हो जाएंगे। अगर अखिल भारतीय हिंदू महासभा का उद्देश्य है कि सभी धर्मों के लोग एक दूसरे के साथ समान व्यवहार करें और एक दूसरे के साथ सौहार्दपूर्ण तरीके से रहें तो उसे बौद्ध धर्म और बौद्धों के साथ भी न्याय और समान व्यवहार करना चाहिए और बौद्धों को उनके पवित्रतम मंदिर का पूरा प्रबंधन करने देना चाहिए।

इसलिए, हम हिंदू अपने हमेशा की तरह ईमानदार और न्यायप्रिय हृदय से बौद्धों को अपनी सर्वसम्मत राय से आश्वस्त करते हैं कि हम बौद्ध मंदिर का पूरा हस्तांतरण उन्हें सौंप देंगे। हमें यह भी आश्वस्त होना चाहिए कि वे हिंदुओं को बुद्ध की पूजा करने की अनुमति देंगे जैसा कि उन्हें बुद्ध की पूजा करनी चाहिए और न तो बौद्ध और न ही हिंदू बौद्ध मूर्तियों के सामने मछली या मांस चढ़ाएंगे। मैं सभी ईमानदार हिंदुओं से यह भी अपील करता हूं कि वे रिपोर्ट की आलोचना करें और बौद्ध मंदिर के पूर्ण प्रबंधन के लिए बौद्धों के दावे का निष्पक्ष रूप से समर्थन करें जो कि बौद्धों का उचित हक है।

स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती,  कलकत्ता, 1 फरवरी , 1926

कुछ साल पहले जब मैं आदरणीय भंते नागार्जुन सुरई ससाई से मिला, जो जन्म से जापानी हैं, लेकिन अब भारतीय हैं और नागपुर मे रहते हैं। उन्होंने बोध गया मुक्ति का आंदोलन भी चलाया था। मैंने  उनसे बोधगया के बारे में पूछा, तो उन्होंने मुझे बताया कि ‘यह भगवान बुद्ध की जन्मस्थली है’। मैं हैरान और स्तब्ध था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा। उन्होंने मुझे समझाया, लुम्बिनी राजकुमार सिद्धार्थ की जन्मस्थली है, लेकिन यह गया ही है जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था, इसलिए बोधगया महाबोधि विहार दुनिया भर के बौद्धों के लिए सबसे पवित्र तीर्थस्थल है। हर भारतीय को इस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर गर्व होना चाहिए जिसे दुनिया स्वीकार करती है।

बिहार सरकार के लिए यह एक सरल निर्णय लेने का समय है। आप एक सर्वदलीय बैठक बुला सकते हैं और उनके विचार सुन सकते हैं। आप उन्हें इस आंदोलन का इतिहास और पुरातात्विक खोजों के बारे में बता सकते हैं। लंबे समय से  हिन्दू समुदाय के  नेतृत्व का दावा करने वाले मुसलमानों से हिंदू भावनाओं का 'सम्मान' करने के लिए कहता रहा है। बौद्ध भी हिंदुओं से यही मांग कर रहे हैं। क्या भाजपा, कांग्रेस और समाजवादी अपने अतीत से कुछ सबक सीखेंगे और इसे सही करेंगे क्योंकि उनके सभी शीर्ष नेतृत्व ने महाबोधि विहार, गया पर बौद्धों के दावे को स्वीकार किया और उसका समर्थन किया। भारत में अंबेडकरवादी बिरादरी पहले से ही एक जनतांत्रिक और कानूनी संघर्ष के माध्यम से एक शांतिपूर्ण समाधान के लिए लड़ रही है। सभी राजनीतिक दल और संगठन जो अंबेडकरवादी विचारों और लोगों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं, वे बोधगया महाबोधि विहार आंदोलन के साथ पूरी एकजुटता में खड़े हैं। क्या बिहार सरकार जागेगी और इन आवाजों को सुनकर इस तीर्थस्थल को बौद्धों को सौंपने के लिए कोई निर्णय ले पाएगी। नीतीश कुमार जेपी आंदोलन से निकले हैं और लालू प्रसाद यादव भी उसे आंदोलन की उपज है।  बिहार के भूमिहीन लोग ऐतिहासिक बोधगया भूमि आंदोलन के बहुत आभारी हैं, जिसने अंततः मठ द्वारा अवैध रूप से कब्जाए गए हजारों एकड़ भूमि को भूमिहीन लोगों में पुनर्वितरित करने का मार्ग प्रशस्त किया। अब आवश्यकता है बोध गया आगे की कार्यवाही की।

बौद्धों के साथ अन्याय हुआ है। बुद्ध और बौद्ध अतीत भारत की गौरवशाली विरासत है जिस पर हमें गर्व है। आज भारत में बौद्ध इस लड़ाई को अंत तक लड़ने के लिए तैयार हैं। बुद्ध शांति और अहिंसा के व्यक्ति थे और आज भी ये आंदोलन पूरी तरह से संवैधानिक सीमाओ मे ही लड़ा जा रहा है। लेकिन यदि सरकार इस पर निर्णय नहीं लेगी तो यह संघर्ष जितना लंबा चलेगा जिसके फलस्वरूप हिंदुओं और बौद्धों के बीच संबंधों के कटु होने की संभावना है। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस तरह की कटुता को व्यापक रूप से फैलने न दिया जाए और यह तभी संभव होगा जब गया महाबोधि विहार का प्रबंधन भारत के बौद्धों को सौंप दिया जाए।

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