लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता फ्रैंक हुजूर के अचानक और असामयिक निधन से उन्हें जानने वाले सभी लोग स्तब्ध हैं। मार्च 5 की रात को हृदय गति रुकने से दिल्ली के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। हालांकि, उनकी मृत्यु के पूरे कारणों की पूरी जानकारी नहीं है और शायद यही कारण था कि उनके पिता ने पोस्ट मॉर्टम के बाद ही उनके शव को स्वीकार किया. हालांकि सभी लोग कह रहे हैं कि उनका स्वास्थ्य दो दिनों से ठीक नहीं था और मित्रों ने उनको अस्पताल में भर्ती होने की सलाह भी दी थी लेकिन वह इसे टालते रहे। 4 मार्च को उन्होंने संजीक न्याय मोर्चा के साथियों के साथ मिलकर राहुल गांधी से मुलाकात की थी और उसका एक फोटो मुझे भी व्हाट्सप्प पर भेजा था। अभी जनवरी के महीने में ही उन्होंने बहुत से साथियों के साथ आधिकारिक तौर पर काँग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की थी। फ्रैंक के करियर का एक बहुत बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी के साथ गुजरा जिनके लिए वह सोशलिस्ट फैक्टर नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन करते थे।
फ्रैंक मूलतः अंग्रेजी के लेखक थे और इमरान खान पर लिखी उनकी जीवनी ‘इमरान बनाम इमरान अन अनटोल्ड स्टोरी’ को आलोचकों द्वारा बहुत सराहा गया था, लेकिन वे अंतर्राष्ट्रीयता की उस परंपरा को जारी नहीं रख सके क्योंकि इस पुस्तक के बाद वह बहुत कुछ करना चाहते थे और कुछ समय तक लंदन में भी रहे लेकिन परिस्थितियां उन्हें भारत खींच लायीं और उन्होंने लखनऊ में रहने का फैसला किया।
फ्रैक का जन्म बिहार के बक्सर जिले में हुआ था और उनका मूल नाम मनोज कुमार यादव था। उन्होंने अपनी शिक्षा सेंट जेवियर्स, रांची और उसके बाद हिंदू कॉलेज, दिल्ली से प्राप्त की और कम उम्र में ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों, विशेषकर रंगमंच में भाग लेना शुरू कर दिया। वह अपने आप को जातिगत पहचान के दायरे से दूर रखना चाहते इसलिए पहले मनोज कुमार नाम से ही काम करने लगे। ये वो समय था जब देश में मण्डल और कमंडल की राजनीति बढ़ रही थी इसलिए मनोज कुमार ने जातीय पहचान को समाप्त कर एक गंगाजमुनी पहचान बनाने का प्रयास किया और फिर मनोज खान बन गए। वह स्वयं बताते हैं कि उनका पहला नाटक, 'हिटलर इन लव विद मेडोना' वास्तव में उनके शीर्षक मनोज खान के नाम से आया था।
राजनीतिक विवाद के कारण यह नाटक नहीं खेला जा सका के बाद उन्होंने अपनी इस पहचान को समाप्त कर नए सिरे से नहीं पहचान के साथ काम करना शुरू किया है। ये पहचान थी फ्रैंक हुजर नाम से। फिर उनका पहला बड़ा प्रोडक्ट आया ‘इमरान वर्सेस इमरान: अन अनटोल्ड स्टोरी’। इस पुस्तक से उनके बहुत से सपने जुड़े थे। वह लेखन की दुनिया में अन्तराष्ट्रिय स्तर जाना चाहते थे और शुरू में कुछ समय तक लंदन में रहे, लेकिन फिर उन्होंने भारत लौटकर लखनऊ में बसने का निर्णय ले लिया। पता नहीं यह सही निर्णय था या गलत, लेकिन उनकी रचनात्मक दुनिया उत्तर प्रदेश में समाजवादियों की राजनीति की दुनिया में खो सी गई। यह उनके लिए एक कठिन निर्णय रहा होगा, लेकिन कोई नहीं जानता कि उन्हें ऐसा करने के लिए किसने प्रेरित किया, लेकिन अपना शत-प्रतिशत देने के बावजूद वे इससे असंतुष्ट रहे।
हमारी मुलाकात 2004 के आसपास हुई और हम तुरंत दोस्त बन गये। वह हमारे मानववादी विचारधारा से बहुत प्रभावित थे और इसका हिस्सा बनना चाहते थे। उन्होंने न केवल भारत में जाति संबंधी मुद्दों पर मेरे विचारों और समझ का सम्मान किया, बल्कि महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर मेरी समझ की भी प्रशंसा की। रूस यूक्रेन और अमेरिका रूस के सवाल पर हम दोनों की राय में एक खूबसूरत साम्य था। उनमें भाषा की अच्छी समझ थी और वे 'शब्दों के साथ खेलना' अच्छी तरह जानते थे, लेकिन मुझे लगता है कि किसी तरह उनकी प्रतिभा का उपयोग नहीं हो सका।
कुछ वर्षों बाद वह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गये और मासिक पत्रिका 'सोशलिस्ट फैक्टर' शुरू की। पत्रिका का गेटअप बेहद प्रभावशाली था या ये भी कह सकते हैं कि चमकदार था किसी कॉर्पोरेट पत्रिका की तरह। ऐसा लगा कि समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओ तक समाजवादी संदेश पहुचाने के बजाय मुलायम और अखिलेश की एक ‘अन्तराष्ट्रीय’ ब्रांडिंग की जा रही है। शायद अखिलेश यादव ने सोचा होगा कि यह पत्रिका अंग्रेजी बोलने वाले लोगों के बीच उनका ब्रांड बनाने में मदद करेगी। फ्रैंक ने समाजवादी पार्टी के प्रचार के साथ-साथ मुलायम और अखिलेश की ब्रांडिंग के लिए भी हरसंभव प्रयास किया और पत्रिका का मुख्य आलेख या इंटर्व्यूज़ आदि सभी कुछ मुलायम अखिलेश के इर्द गिर्द ही केंद्रित रहता था लेकिन यह भी तथ्य है कि यह पत्रिका केवल समाजवादी पार्टी को समर्पित नहीं थी। फ्रैंक ने पत्रिका के लिए लिखने के लिए दुनिया भर के रचनात्मक लोगों के बीच अपने संबंधों का उपयोग किया।
उन्होंने इस पत्रिका में लिखने के लिए न केवल मुझे आमंत्रित किया अपितु समय समय पर विशेष लेख लिखने के लिए भी कहा हालांकि वह यह जानते थे कि मैं समाजवादी पार्टी या मुलायम सिंह यादव की कार्यशैली और विचारों का बहुत बड़ा समर्थक नहीं रहा। लेकिन क्योंकि मैं अम्बेडकरी आंदोलन के साथ शुरू से ही जुड़ा रहा और मेरी आलोचनाएं कुल मिलकर सभी वंचित वर्गों को साथ लाने के संदर्भ में ही थी इसलिए वह समझते थे कि यह कितना जरूरी है। वह मुझसे लगातार बातचीत कर इन जातीय समीकरणों और उसकी राजनीति को समझने की कोशिश करते क्योंकि उन्हे पता था किस तरह से मैंने अपने जीवन के 25 महत्वपूर्ण वर्ष देश के विभिन्न हिस्सों विशेषकर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार आदि के अति वंचित समुदायों के मध्य गुजारे हैं।
अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी सरकार के दौरान फ्रैंक हुजूर को लखनऊ में एक बंगला आवंटित किया गया था। यह सोशलिस्ट फैक्टर का कार्यालय बन गया जहा हमें उनकी क्रियाशील रचनात्मकता दिखाई दी जो उनकी घर की दीवारों से लेकर उनके लान तक दिखाई देती है। वह फोटोग्राफी के शौकीन थे और अपनी पत्नी फेमिना मुक्ता सिंह और बेटे मार्कोस से बेहद प्यार करते थे। उनकी प्रेम कहानी ने सभी को आकर्षित किया और शादी के वर्षों बाद तक वह एक दोस्त और प्रेमी की तरह ही दिखाई दिए। उनका घर उन सभी युवा-वृद्ध समाजवादियों का केन्द्र बन गया जो अपने काम से लखनऊ आते और वहीं रहते थे। वह एक अच्छे मेजबान थे.
लेकिन राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बनने के लिए आपको यही कीमत चुकानी पड़ती है, क्योंकि आपके यहां आने वाले लोग जरूरी नहीं कि आपकी ‘बौद्धिकता’ का सम्मान करें अधिकांश लोग आपके राजनीतिक संबंधों का सम्मान करते हैं। उनके घर आने वाली भीड़ और लोग राजनीतिक कार्यकर्ता थे, जिन्हें लगता था कि समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के साथ फ्रैंक के संबंधों से उन्हें मदद मिलेगी। राजनीति में कननेक्शन बहुत मायने रखते हैं और किसी भी ग्रामीण कार्यकर्ता के लिए तो लखनऊ जैसे शहर में एक ऐसा घर मिलना बहुत मुश्किल है जो आपका न नेता है और न ही आपका रिश्तेदार लेकिन फिर भी आपका स्वागत करे और नेटवर्किंग का अवसर दे। हालांकि ऐसी भीड़ उनको दूसरे किस्म के तनाव दे रही थी।
आगंतुकों को चाय नाश्ता और खाना यदि रोज का हिस्सा बन जाए तो उसका असर भी व्यक्तिगत रिश्तों पर पड़ता है यदि संसाधन सीमित हो। लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर फ्रैंक और मुक्ता ने इस संदर्भ ने पूरी ईमानदारी के साथ लोगों का स्वागत किया। हालांकि फेमिना मुक्ता सिंह भी एक रचनात्मक व्यक्ति हैं और की धारावाहिकों में काम कर चुकी हैं लेकिन मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि उन्हें इस तरह की 'राजनीतिक सक्रियता' की कीमत चुकानी पड़ी जिससे वे वास्तव में अनभिज्ञ थे। सोशलिस्ट फैक्टर को दिए गए संसाधन शायद इतने अधिक नहीं थे कि फ्रैंक लेखकों और संपादकों सहित कई कर्मचारियों के साथ एक स्वतंत्र स्वायत्त कार्यालय चला सकें। पत्रिका का प्रसार अच्छा नहीं रहा और विज्ञापन से भी उसे कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि समाजवादी पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं के लिए यह एक 'ट्रॉफी' होने के अलावा यह उनके लिए और किसी काम की नहीं थी क्योंकि इसकी टारगेट मध्यवर्गीय अंग्रेजीदा लोग थे।
इसके बाद फ्रैंक ने हिंदी में भी सोशलिस्ट फैक्टर शुरू किया, जिससे उत्तर प्रदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भर गया। उन्होंने पूरे राज्य में समाजवादी पार्टी की रैलियों और बैठकों में भाग लेना शुरू कर दिया, ताकि न केवल रिपोर्टिंग की जा सके, बल्कि ऐसे लोगों को भी ढूंढा जा सके जो नियमित रूप से लिख सकें, हालांकि यह एक कठिन काम है, क्योंकि जमीनी स्तर पर अधिकांश राजनीतिक कार्यकर्ताओं से नारे लगाने से अधिक कुछ नहीं कर पाते। इसलिए जमीनी स्तर पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं से बीच से 'लेखकों' को पहचानना कठिन है। यही कारण है कि हम 'बौद्धिकता' को एक 'ड्राइंग रूम तक सीमित रखते हैं जिसका बहुत नुकसान हुआ है।
राजनीतिक दल वास्तव में नारे लगाने वालों और पर्चा छपने वालो की अधिक चाहत रखते हैं। वे चाहते हैं कि आप उनके 'महिमामंडन' करे चाहे यह नकली ही क्यों न लगे। कुछ लोग चाहते हैं कि आप उनके लिए ‘घोस्ट राइटिंग’ करें क्योंकि आज के नेता अपनी पब्लिक इमेज के प्रति बहुत सतर्क हैं वे न केवल अपनी जातियों के नेता दिखना चाहते हैं लेकिन अंदाखाते अपनी ही जाति के साहित्यकारों, लेखकों को दूर कर देते हैं ताकि ‘लिबरल’ दिखे। सभी अब अखबारों में छपना चाहते हैं और न केवल एक कवि साहित्यकार दिखना चाहते हैं अपितु ‘विद्वान’ भी दिखना चाहते हैं। ऐसे मे घोस्ट राइटर और कॉननेक्शन वाले लोगो की अधिक मांग होती है। लेकिन कोई भी नहीं चाहता कि आप उनकी विचारधारा के स्वतंत्र प्रचारक बनें।
हकीकत यह है हिन्दी पट्टी में बहुजन आंदोलन के दलों को बुद्धिजीवियों से सख्त परहेज था क्योंकि यदि आप उनके अजेंडे को बिगाड़ दे तो नुकसान ज्यादा होगा। किसी आंदोलन के मजबूती में बौद्धिकता, रचनात्मकता, साहित्या और संस्कृति का कितना बड़ा योगदान होता है ये द्रविड़ पार्टियों से ज्यादा इसे कोई नहीं समझ सकता। उन्होंने राजनीतिक विमर्श को समृद्ध किया तथा युवाओं और रचनात्मक लोगों को प्रोत्साहित किया। उत्तर भारत में वह भावना गायब है।
अखिलेश यादव के सत्ता से बाहर होने के बाद फ्रैंक हुजूर निशाने पर आ गए और एक दिन उन्हें जबरन उनके घर से निकाल दिया गया। हालांकि ये एक शासनात्मक प्रक्रिया भी है लेकिन इसे संवेदनशील बनाया जा सकता है। इस पूरे प्रोसेस में उन्होंने अपनी कई प्यारी बिल्लियाँ खो दीं। ये उनके लिए कठिनाइयो के क्षण थे क्योंकि सोशलिस्ट फैक्टर के बाद उनका घर युवा समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए एक स्थान बन गया था जो वहां आकर रुकते थे। फ्रैंक अपनी सामाजिक पहुँच बनाना चाह रहे थे लेकिन तथ्य यह है कि लोग केवल इसलिए उनके पास आ रहे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि अखिलेश यादव के साथ उनके शक्तिशाली संबंध हैं। शायद, इसका परिणाम आंतरिक चुगली के रूप में सामने आया और जल्द ही वह अखिलेश यादव के सर्कल से बाहर हो गए, हालांकि अखिलेश यादव ने उन्हें रहने के लिए वह जगह दी जहां मुलायम सिंह यादव के सुरक्षा कर्मी रहा करते थे, लेकिन फिर भी ये अपेक्षाकृत बड़ा घर था।
समाजवादी पार्टी नेतृत्व और उसके कार्यकर्ताओ के साथ लगभग डेढ़ दो दशक गुजरने के बाद फ्रैंक धीरे धीरे अलग थलग पड़ गए। इसके क्या कारण थे ये हम सब नहीं जानते लेकिन ऐसा कुछ अवश्य हुआ कि अखिलेश यादव और अन्य नेताओ को ऐसे लगा कि अब उनकी जरूरत नहीं है। फ्रैंक बहुत समय तक इसे सहन करते रहे। उन्होंने पार्टी और उसके नेताओ के विरुद्ध मुंह तक नहीं खोला लेकिन वो अन्य स्थानों पर तलाश में लगे थे। क्योंकि अब वह राजनीति के दलदल में फंस चुके थे और शायद इसलिए अपने अन्तराष्ट्रीय साहित्यिक मित्रों से शायद दूर हो चुके थे और वापस लौटना मुश्किल था इसलिए धीरे धीरे काँग्रेस के सामाजिक न्याय के मित्रों के साथ जुड़ गए।
बाद में शायद उन्हे कहा गया होगा कि पार्टी जॉइन करनी है तो उन्होंने आधिकारिक तौर पर पार्टी जॉइन की और राहुल गांधी के संविधान बचाओ सम्मेलनों में वह प्रमुखता से भूमिका निभा रहे थे लेकिन ये भी हकीकत है के जो वह चाह रहे थे उतनी गति से बाते से बन नहीं रही थी और शायद ये ही चिंता का कारण होती हैं।
दरअसल, एक रचनात्मक व्यक्ति के लिए किसी राजनीतिक दल में सहज रहना कठिन होता है, खासकर तब जब नेता आपको अपना प्रचार साधन बनाना चाहते हों लेकिन आपको अपनी रचनात्मक और साहित्यिक साधना के विषय में कोई बात या मदद नहीं करना चाहते। हकीकत यह है कि फ्रैंक एक अच्छे कॉपी राइटर थे और अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ भी बहुत अच्छी थी लेकिन अब वह सोशलिस्ट फैक्टर हिन्दी के लिए भी लिख रहे थे। ऐसा नहीं था कि वह हिन्दी नहीं लिख सकते थे। आखिर थे तो हिन्दी भाषी क्षेत्र से ही लेकिन उन्होंने अपने आपको अंग्रेजी भाषा में ढाला और सफल भी रहे। दुर्भाग्यवश, समाजवादी पार्टी उनकी क्षमताओ का ठीक प्रकार से उपयोग नहीं कर पायी।
सोशल मीडिया के जमाने में कई बार पार्टियों को लगता है कि गंभीर विषयों के लिए किसी प्लेटफॉर्म की आवश्यकता नहीं है हालांकि ये झूठ है। सभी बड़ी पार्टियों के यहा आज भी अखबार, लाइब्रेरी और गंभीर पब्लिकेशन्स भी हैं। शायद समाजवादी पार्टी को ऐसे किसी अखबार या पत्रिका की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। सोशल मीडिया सेल में उनके लिए कोई जगह नहीं थी हालांकि वह यहा पर भी बेहतर तरीके से पार्टी की मदद कर सकते थे। स्पष्टतः पार्टी 'पेशेवरों' की तलाश में थी जो उसकी सोशल मीडिया रीच बढ़ाए और शायद इसमें उसने बहुत अधिक निवेश भी किया होगा। ये एक विचित्र सवाल है कि बहुजन पार्टियां ज्यादातर ब्राह्मणवादी 'बौद्धिकता' या तथाकथित 'उदारवादियों' को ही समर्थन क्यों देती हैं और बहुजन आंदोलन से जुड़े लोगों की उपेक्षा क्यों करती हैं। संभवतः उन्हें ऐसे लोगों की जरूरत है जो उन्हें मीडिया में 'स्पेस' दिला सकें।
अपना स्वयं का मीडिया बनाने के बजाय, वे उस मीडिया का हिस्सा बनना चाहते हैं जो उनके प्रति हमेशा से ही शत्रुतापूर्ण रहा है। समाजवादी पार्टी का ऐसी ताकतों को प्रोत्साहित करने और समर्थन देने का रिकॉर्ड रहा है जो बाद में हिंदुत्ववादी ताकतों का हिस्सा बन गईं। सच कहें तो ऐसे लोगों को समाजवाद या सामाजिक न्याय से कोई सहानुभूति नहीं होती और वो आपके पास केवल सत्ता का हिस्सा बनने और अपने लाभ की खातिर ही आते हैं। अब सारा मामला बिजनस डीलिंग का हो गया है। फ्रैंक जैसे लोग शायद इस प्रकार की डीलिंग नहीं कर पते इसलिए पार्टियों में अलग थलग हो जाते हैं और अंदर ही अंदर घुटते हैं जिसका नतीजा फिर जानलेवा हो जाता है।
लखनऊ में फ्रैंक की अन्त्येष्टि भी हो गई लेकिन हमें समाजवादी पार्टी की ओर से आधिकारिक तौर पर कुछ भी नहीं मिला है। न ही अखिलेश यादव ने उनके बारे में कुछ कहा । यह अत्यंत चौंकाने वाला और दुःखद है। फ्रैंक हुजूर लंबे समय से समाजवादी पार्टी से जुड़े हैं और पार्टी के लिए लगन से काम करते हैं। वह शुरू से ही अखिलेश यादव के प्रति बेहद वफादार थे और उन्होंने मुलायम सिंह यादव को देश के 'सबसे महान' 'समाजवादी' नेता के रूप में पेश करने के लिए हर संभव प्रयास किया जिससे मै हमेशा से ही असहमत रहा। काँग्रेस के साथ में तो उनका सहयोग शुरू ही हुआ था इसलिए उनसे उतनी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए हालांकि राहुल गांधी का एक बेहद मार्मिक पत्र फ्रैंक की पत्नी फेमिना मुक्ता सिंह के नाम आ चुका है। राजनीति में राहुल गांधी औरों के मुकाबले अधिक संवेदनशील नजर आ रहे हैं।
फ्रैंक हुजूर वास्तव में राजनीति की भीड़ में एक 'एलियन' थे। वह एक रचनात्मक व्यक्ति थे जो अपनी मेज पर बैठकर या लोगों का साक्षात्कार लेकर भी बेहतरीन 'प्रोफाइल' और दिलचस्प कहानियाँ लिख सकते थे। दुर्भाग्यवश उन्हें वे काम करने के लिए मजबूर होना पड़ा जो उनकी 'वैचारिकी' के विरुद्ध थे। वह एक उदार मानववादी थे जो अपने मित्रों और परिवार के साथ शाम का बिताना पसंद करते थे। धीरे ढेरे राजनीतिक सक्रियता ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। वह एक रचनात्मक व्यक्ति थे लेकिन राजनीतिक सक्रियता की अनियंत्रित दौड़ में उनके पास अपनी रचनात्मकता के लिए बहुत कम समय था। राजनीतिक सक्रियता वास्तव में रचनात्मक, बौद्धिक लोगों के लिए नहीं है क्योंकि आपको या तो उसे छोड़ना होगा और अपनी-अपनी पार्टियों के शोर मचाने वाले दस्ते का पूरा हिस्सा बनना होगा और अपनी ' जातियों ' को प्रभावित करना होगा, जिसमें वह वास्तव में सहज नहीं थे।
लेखकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों के लिए भारत में आप स्वायत्त होकर जीना बहुत मुश्किल है विशेषकर जब आप किसी संगठित समूह का हिस्सा नहीं है क्योंकि यदि आपने प्रमुख नेताओ या पार्टियों पर सवाल उठाया दिए तो उनकी भक्त मंडली आपको जीने नहीं देगी, कोई भी आपको 'लेखक' नहीं मानेगा। आज जिन्हे हम लेखक कह रहे हैं वे सब अपनी अपनी जातियों के प्रवक्ताओ से अधिक आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं क्योंकि तभी आपकी ‘रीच’ बढ़ती है, और साथ ही साथ एक ‘लेखक’, ‘बुद्धिजीवी’ या ‘पत्रकार’ के रूप में ‘स्वीकार्यता’ बढ़ जाती है।
असल में यह राजनीतिक नारेबाजी और पर्चेबाजी के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। वास्तविकता यह है कि आज के लेखक तेजी से उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। और जो लोग वास्तव में स्वतंत्र हैं या बहुमत की हाँ में हाँ नहीं मिला सकते वे अलग थलग पड़ जाते हैं. हर जगह भारी 'प्रतिस्पर्धा' है और ऐसे भी लोग हैं जो 'झुकने के लिए कहे जाने पर रेंगने' के लिए तैयार हैं (आपातकाल के समय लालकृष्ण आडवाणी का प्रसिद्ध कथन, लेकिन आज हमारी स्थिति उससे भी बदतर है ) जिसके परिणामस्वरूप वे लोग हासिए पर पहुँच रहे हैं जो आज हमारे सामने आने वाली समस्याओं पर एक वैचारिक या सैद्धांतिक रुख रखते हैं। जैसा कि मैंने कहा, फ्रैंक जो कर रहे थे वह उनका स्वाभाविक स्वभाव नहीं था। हकीकत यह ही कि उनकी राजनीतिक सक्रियता वास्तव में उन्हें वह सब कुछ नहीं दे रही थी जिसके वे हकदार थे। सत्ता की नजदीकी आपसे 'पूर्ण निष्ठा' मांगती है भले ही इसके लिए आपको अपनी रचनात्मकता से दूर रहना पड़े या पाखंडी दिखना पड़े।
आज पार्टियों को विचार नहीं प्रचार तंत्र चाहिए इसलिए यदि आपके विचार उनके प्रचार के अनुसार नहीं है तो आप उस पार्टी और नेता के लिए पूरी तरह से अनुपयोगी हैं। नतीजा यह होता है कि मजबूरी में हमारा शरीर ऐसे काम करता है जिनका हमारा दिल और दिमाग वास्तव में विरोध करता है और परिणाम होता है अवसाद और घुटन। हम पूंजीवाद, कट्टरतावाद और धार्मिक कट्टरता की आलोचना करते हैं और आज हमें एहसास होता है कि बाजार में केवल यही चीजें बिक रही हैं। जो लोग समझौता नहीं कर सकते हैं, वे घुटन और अवांछित महसूस करते हैं, चापलूसी और पूर्ण समर्पण के अभाव में आपको अस्वीकृति और अलगाव के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होता। संकट बड़ा है जिसके लिए हमें गंभीर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।
फ्रैंक हुजूर की रचनात्मक क्षमता अधूरी और अप्रयुक्त रह गयी। उनकी प्रतिभा उस पार्टी और नेतृत्व के लिए उपयोगी होती जिसके लिए उन्होंने बीस वर्षों तक अपना जीवन समर्पित किया। दुःख की बात है कि न तो समाजवादी पार्टी और न ही उसके नेतृत्व ने आज तक उनकी पत्नी मुक्ता सिंह और बेटे मार्कोस के प्रति संवेदना या सहानुभूति के कुछ शब्द व्यक्त करना उचित समझा। आज के सोशल मीडिया युग में यह दुखद लगता है। यह हमारी राजनीतिक प्रणाली की क्रूरता को ही दर्शाता है, जहां नेतृत्व तेजी से अपने ही लोगों के प्रति अत्यधिक असंवेदनशील होता जा रहा है और जैसा कि मैंने कहा, आपका मूल्य सोशल मीडिया पर आपकी 'पहुंच' तक ही सीमित है। एक बुद्धिजीवी के लिए मीडिया के 'पेशेवरों' के साथ प्रतिस्पर्धा करना कठिन होने के साथ-साथ अवांछित भी है। सच तो यह है कि आज हमारे नेताओं को केवल कुमार विश्वास या सतगुरु से लेकर आर्ट ऑफ लिविंग और बागेश्वर तक के बाबाओं की जरूरत है , किसी रचनात्मक व्यक्ति की नहीं।
फ्रैंक हुजूर की असामयिक मृत्यु उन सभी लोगों के लिए एक चेतावनी है जो आज के दौर में राजनीतिक दलों और नेताओ से बहुत उम्मीद पाले बैठे हैं । यदि आप सोशल मीडिया पर खुद को अक्षम पाते हैं तो राजनीतिक वर्ग से कोई भी उम्मीद नहीं करे। बाजार संचालित या नियंत्रित राजनीति में, यदि आपकी 'पहुंच' नहीं है तो आपकी क्षमता और बुद्धि शून्य मानी जाती है। दुख की बात है कि फ्रैंक हुजूर ऐसे ही जाल का शिकार हो गए हैं, जहां उन्होंने अपना जीवन इस उम्मीद में समर्पित कर दिया कि उनकी रचनात्मकता निखरेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जो उनके लिए बहुत निराशाजनक रहा होगा और इससे उनके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ा होगा। ये कहना गलत नहीं होगा कि राजनीतिक सक्रियता के चलते उनके साहित्यिक और आर्थिक प्रश्न हसिए पर चले गए। आज ये ही सवाल महत्वपूर्ण है कि क्या राजनीति में संवेदनशील और बौद्धिक लोगों की आवश्यकता है भी या नहीं? यदि है तो उनको साथ रखने के लिए इन दलों के पास कोई विचार या योजना है भी या नहीं। सोशल मीडिया पर करोड़ों खर्च करने वालों के पास अपने समाज के साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों के लिए कोई जगह है या नहीं ? फ्रैंक के जाने से ये सवाल आज और अधिक वाजिब और महत्वपूर्ण हो गए हैं।
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