महापंडित राहुल सांकृत्यायन अपने लेख में, जिसे बहुजन कल्याण प्रकाशन लखनऊ ने “बौद्ध धर्म का उदय अस्त, पुनरोदय” नामक पुस्तिका में प्रकाशित किया है, लिखते हैं कि, “बौद्ध धर्म भारत में उत्पन्न हुआ। इसके संस्थापक गौतम बुद्ध ने कोसी-कुरूक्षेत्र और हिमालय-विंध्याचल के भीतर ही विचरते हुए 45 वर्ष तक प्रचार किया। इस धर्म के अनुयायी चिरकाल तक महान सम्राटों से लेकर साधारण जन तक, सारे भारत में बहुत अधिकता से फैले हुए थे। इसके भिक्षुओं के मठों और विहारों से देश का शायद ही कोई भाग रिक्त रहा हो। इसके विचारक और दार्शनिक हजारों वर्षों तक अपने विचारों से भारत के विचार को प्रभावित करते रहे। इसके कला विशारदों ने भारतीय कला पर अमिट छाप लगाई। इसके वास्तु-शास्त्री और प्रस्तर शिल्पी हजारों वर्षों तक सजीव पर्वत-वृक्षों को मोम की तरह काटकर अजंता, एलोरा, कार्लें, नासिक - जैसे गुहा विहारों को बनाते रहे। इसके गम्भीर मंतव्यों को अपनाने के लिए यवन और चीन जैसी समुन्नत जातियां लालायित रही। इसके दार्शनिक और सदाचार के नियमों को आरम्भ से आज तक सभी विद्वान बड़े आदर की दृष्टि से देखते रहे। इसके अनुयायियों की संख्या के बराबर आज भी किसी दूसरे धर्म की संख्या नहीं है।”
बौद्ध धर्म की महत्ता को स्वीकार करते हुए हिंदु धर्म के बड़े अनुयायी और समर्थक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृणन ने कहा हैः
“बौद्ध धर्म भारत की संस्कृति पर अपना स्थायी चिन्ह छोड़ गया है। सब ओर इसका प्रभाव दृष्टिगोचर है। हिंदु धर्म ने इसके नीतिशास्त्र के सर्वोत्तम अंश को अपने आप में समाविष्ट कर लिया है। जीवन के प्रति एक नया आदर, पशुओं के प्रति दया, उत्तरदायित्व का भाव और उच्चतर जीवन के प्रति उद्योग – ये सब बातें नये वेग के साथ भारतीय मस्तिष्क को अवगत कराई गई हैं। बौद्ध प्रभावों को ही यह श्रेय प्राप्त है। उसके कारण ब्राह्मण परम्परा की धर्म साधनाओं ने अपने उन अंशों को छोड़ दिया है जो मानवता और बुद्धिवाद के अनुकूल नहीं थे।”
(इंडियन फिलोसॉफी वोल्यूम 1, पृष्ठ 608)
विश्व धर्म सम्मेलन में बोलते हुए स्वामी विवेकानंद ने भी बौद्ध धर्म के बारे मे बहुत कुछ कहा था। ब्राह्मणी पुरोहितों की धार्मिक गतिविधियों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं:
“बुद्ध ने इस तरह की सभी अपराकृतिक अपवृद्धियों (Excrescences) को उखाड़ फेंका। उन्होंने बहुत ही आश्चर्यजनक सत्यों का प्रचार किया। उन्होंने वेदों के दर्शन का सार बिना किसी भेदभाव के सभी को बताया, उन्होंने इसे सारे विश्व को विस्तार से सिखाया कि उनके महान संदेशों में समानता का संदेश भी था। सभी मनुष्य समान हैं। किसी के लिए कोई रियायत नहीं। बुद्ध समानता के महान उपदेशक थे। प्रत्येक स्त्री व पुरुष को अपनी भावनाए व्यक्त करने का समान अधिकार है – यही उनकी शिक्षा थी।“
“पुरोहितों व अन्य जातियों के मध्य जो विभेद हैं, उन्हें समाप्त करना है। यहां तक कि निम्नतम ब्यक्ति भी उच्चतम प्राप्तियों का हकदार है। उसने निर्वाण के दरवाजे सभी के लिए खोल दिये।। उनकी यह शिक्षा भारत के लिए भी साहसिक थी। उनकी छोटी सी छोटी सीख भी भारत की आत्मा को कभी भी हिला सकती है। परंतु बुद्ध के सिद्धांतों को गले से नीचे उतारना भी कठिन था। आपके लिए यह कितना कठिन हो सकता है। उनका यह सिद्धांत था – हमारे जीवन में दुख क्यों हैं- क्योंकि हम स्वार्थी हैं। हम सभी चीजों को अपने लिए चाहते हैं – यही कारण है कि यहां दुख हैं। इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है – स्वार्थ का त्याग कर देना। स्वार्थ कहीं ठहरता नहीं है। गोचर जगत वही सब कुछ जिसे हम देखते, समझते हैं, ही अस्तित्व में रहता है। जीवन व मृत्यु का आधार कही जाने वाली जैसी कहीं कुछ नहीं है। यहां तो विचारों का एक स्रोत है, एक विचार के बाद दूसरा विचार उसके उत्तराधिकार स्वरूप आ जाता है, प्रत्येक विचार अस्तित्व में आने के बाद उसी क्षण अपना अस्तित्व खो देता है, यही सब कुछ है, विचारों का कोई विचार नहीं है, कोई आत्मा नहीं है। हर समय परिवर्तनशील है, सो ही दिमाग और चेतना भी। आत्मा इसीलिए भ्रम है। सभी स्वार्थ सभी कुछ को आत्मा पर केंद्रित करने से आते हैं, इस मायावी/भ्रमित करने वाली आत्मा पर। यदि हम इस सत्य को जान लें कि कहीं कोई आत्मा नहीं है, तब हम प्रसन्न होंगे और दूसरों को भी प्रसन्न कर देंगे।“
विवेकानंद आगे कहते हैं – “यही था जो बुद्ध ने सिखाया। और उन्होंने केवल बताया ही नहीं, बातें ही नहीं की, वे समस्त विश्व के सामने अपना जीवन त्यागने को भी तैयार थे।" उन्होंने कहा कि यदि किसी पशु का बलिदान अच्छा है तो मानव का बलिदान उससे अच्छा है, और उन्होंने अपने आप को बलिदान के लिए प्रस्तुत कर दिया। उन्होंने कहा कि यह पशुबलि एक और अंधविश्वास है। ईश्वर और आत्मा दो बड़े अंधविश्वास हैं। ईश्वर केवल एक अंधविश्वास है जो पुरोहितों ने खोजा है। यदि ईश्वर है, जैसा कि ब्राह्मण लोग उपदेश देते हैं, तो दुनिया में इतने दुख क्यों हैं? वह तो मात्र हमारी तरह है, कार्य-कारण नियम का दास मात्र है। यदि वह कार्य-कारण नियम से बंधा हुआ नही है तो फिर वह रचना क्यों करता है? इस प्रकार का ईश्वर कैसे भी हो, संतोषप्रद नही है। स्वर्ग में एक शासक है जो अपनी इच्छा के अनुसार सृष्टि पर शासन करता है और हमको यहां दुखों में मरने के लिए छोड़ देता है, उसमें इतनी भी नेकनियति नहीं है कि एक छण भी हमारी ओर देख ले। हमारी पूरी जिंदगी लगातार दुख पाती रहती है, परंतु यह भी पर्याप्त सजा नहीं है – मृत्यु के बाद हमे ऐसी जगहों पर जाना है जहां बाकी की सजा भुगतनी है। इसके बावजूद भी हम संसार के इस रचनाकार को खुश करने के लिए लगातार पूजा अर्चनाएं करते रहते हैं।
बुद्ध ने कहा, ये सभी पूजा अर्चनाएं गलत हैं। संसार में केवल एक ही आदर्श है – सभी भ्रमों/धोखों को खत्म कर दो, जो सच है, वही बाकी ररहेगा। जैसे ही बादल छंट जाएंगे, सूर्य चमकने लगेगा। अहम् को कैसे मारा जाए, पूर्ण रूप से निस्वार्थी बन जाओ, एक चींटी के लिए भी अपने आप को त्यागने को तत्पर हो जाओ। किसी अंधविश्वास के लिए कार्य नहीं करो, किसी भगवान को खुश नहीं करो, कोई प्रतिफल, पुरस्कार मत लो क्योंकि तुम अपने अहम को मार कर अपने बंधनों से मुक्त हो रहे हो। पूजा व अर्चना, ये सभी कुछ बकबास है। तुम सभी कहते हो – मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूं- लेकिन वह कहां रहता है, तुम नहीं जानते और तुम सभी उसके लिए पागल हुए जा रहे हो।”
इतना अच्छा धर्म, जिसे दुनिया ने अपनाया, सराहा। भारत में ही राजाओं ने शिरोधार्य ही नहीं किया, इसको फैलाने में जुट गये। क्रूर माने जाने वाले सम्राट अशोक ने तो हद ही कर दी, तलवार फेंक दी और पूरे भारत में 84000 बौद्ध सतूप तक बना डाले। इतना ही नहीं, अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध संघ की सेवा में समर्पित कर दिया और भेज दिया सिरी लंका, बौद्ध धर्म का प्रचार करने। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय स्थापित हो गये और दौड़े चले आय़े विदेशों से विद्यार्थी, बौद्ध धर्म की शिक्षा लेने। इतिहास गवाह है कि ईसामशीह भी भारत आए थे, सीधे पुरी पहुंचे थे जो उस समय बहुत बड़ा बौद्ध विहार रहा था। पर पुष्यमित्र शुंग के दुराचारण का असर वहां हो गया था और ब्राह्मणों ने उस पर कब्जा कर लिया था। वहां से लौटकर वे तिब्बत गये और वहां से बौद्ध धर्म की शिक्षा लेकर संतुष्ट हो कर वापिस लौटे थे। इसलिए बौद्ध धर्म को कैथोलिक चर्च की जननी भी माना गया है। एक विदेशी लेखक सर आर्लाल्ड ने तो लाइट ऑफ एशिया (एशिया की ज्योति) नामक पुस्तक ही लिख डाली।
सारे ढकोसलों, अंधविश्वासों को परे रखते हुए वैज्ञानिक तरीके से स्पष्ट कर किया कि इस सृष्टि का कोई निर्माता नहीं है वल्कि करोड़ों, अरबों वर्षों में शनैः शनैः हुए विकास का परिणाम है जिसे आज विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है। इस विकासवाद का आधार है प्रतित्यसमुत्पाद, अर्थात एक दूसरे सहारे से विकसित होना और अस्तित्व में आना। भगवान् बुद्ध ने चार भौतिक तत्वों, पृथवी, जल, वायु और अग्नि को सृष्टि का मूल माना है। उनका मानना है कि सृष्टि इन्हीं चार भौतिक तत्वों से बनी है और किसी वस्तु का विकास तभी सम्भव है जब इन चारों भौतिक तत्वों का एक निश्चित मात्रा में संयोग होता है। एक पेड़ को पानी की पूर्ति बंद कर दीजिये, उसका अस्तित्व खत्म हो जाएगा। जहां बर्फ गिरती है वहां कोई बनस्पति उग नहीं पाती है क्योंकि उसे अग्नि तत्व नहीं मिल पाता है। यही हाल किसी प्राणी का होता है। कुछ मनीषियों ने आकाश को भी एक तत्व माना है, पर यह सृष्टि का मूल तत्व नही है। यह एक जगह है, स्पेस है जहां किसी जीव या बनस्पति को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए चाहिए, जैसे कि किसी हाथी, ऊंट, जिराफ आदि को बड़ी जगह चाहिए जिंदा रहने के लिए, जबकि एक चींटी को कम से कम जगह चाहिए होती है। पर यह आकाश तत्व सभी पर लागू नहीं होता है जबकि चार भौतिक तत्व सभी पर लागू होते हैं, सारी सृष्टि पर लागू होते हैं।
और बुद्ध ने क्या सिखाया? बुद्ध ने चार आर्य सत्यों का निरूपण किया- 1. संसार दुखमय है, 2. दुखों का कारण है, 3. तृष्णा ही दुख का कारण है और, 4. तृष्णा पर नियंत्रण रख कर दुखों में कमी की जा सकती है। इसके लिए उन्होंने प्रज्ञा, शील और समाधि आधारित अष्टांगिक मार्ग प्रतिपादित किया जो प्राणी मात्र के कल्याण के लिए है और यह कल्याण शील आचरण से ही संभव है। प्रज्ञा, शील, समाधि पर आधारित अष्टांगिक मार्ग पर चल कर प्रत्येक मानव सुखपूर्वक जीवन जी सकता है और इसी जन्म में निर्वाण को भी प्राप्त कर सकता है। प्राणी मात्र का कल्याण ही बौद्ध धर्म का केंद्र बिदु है और यह कल्याण शील आचरण से ही संभव है।
अब यह समझने व गहन चिंतन करने की बात है कि ऐसा मानवतावादी व वैज्ञानिक धर्म भारत से तो विलुप्त हुआ, पर क्यों? जबकि यह विदेशों में खूब फला फूला और जहां भी बौद्ध धर्म का पालन हो रहा है, वे देश सर्वांगीण विकास के मार्ग पर अग्रसर हैं।
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