नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक अहम सुनवाई के दौरान मुस्लिम पुरुषों द्वारा वकील के जरिए अपनी पत्नी को तलाक का नोटिस भेजने की प्रथा की वैधता पर कड़े सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि तलाक के नोटिस (तलाकनामा) पर पति के हस्ताक्षर नहीं हैं, तो उसे विवाह विच्छेद का वैध दस्तावेज नहीं माना जा सकता। यह मामला 'तलाक-ए-हसन' प्रक्रिया से जुड़ा है, जिसमें एक-एक महीने के अंतराल पर तीन बार तलाक का नोटिस भेजा जाता है।
क्या है पूरा मामला?
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह मामला एक टीवी पत्रकार द्वारा लाया गया था, जिन्होंने 'तलाक-ए-हसन' के तहत मुस्लिम पुरुषों को मिलने वाले एकतरफा तलाक के अधिकार को चुनौती दी है। याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता रिजवान अहमद ने अदालत को बताया कि महिला के पति, जो पेशे से खुद एक वकील हैं, ने अपने वकील के माध्यम से तलाक का नोटिस भिजवाया। इसके बाद तलाक को अंतिम रूप देकर दूसरी शादी भी कर ली।
इस मामले की सुनवाई सीजेआई-नामित (CJI-designate) जस्टिस सूर्य कांत, जस्टिस यू भुयान और जस्टिस एन के सिंह की पीठ कर रही थी।
बिना दस्तखत का दस्तावेज खतरनाक
अधिवक्ता रिजवान अहमद ने दलील दी, "जब तलाकनामे पर पति के हस्ताक्षर ही नहीं हैं, तो यह एक वैध दस्तावेज कैसे हो सकता है? अगर इस दस्तावेज के आधार पर महिला दूसरी शादी कर लेती है, तो बाद में पति उस पर बहुविवाह (एक से अधिक पति रखने) का आरोप लगा सकता है और दावा कर सकता है कि उसने महिला को वैध रूप से तलाक दिया ही नहीं था। इसके अलावा, अगर महिला भविष्य में शादी करना चाहे, तो दूसरा व्यक्ति तलाक के दस्तावेजों की वैधता पर सवाल उठाकर शादी से इनकार कर सकता है।"
कोर्ट ने पूछा- तीसरे पक्ष को तलाक का अधिकार किसने दिया?
सुनवाई के दौरान जब पति के वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता एम आर शमशाद ने इसे मुसलमानों में प्रचलित एक 'रिवाज' बताकर सही ठहराने की कोशिश की, तो जस्टिस सूर्य कांत की अगुवाई वाली पीठ ने कड़ी आपत्ति जताई।
पीठ ने पूछा, "यह एक वैध प्रथा कैसे हो सकती है? तलाक के नोटिस और तलाकनामे पर पति के हस्ताक्षर होना अनिवार्य है। कोई तीसरा पक्ष (वकील) पति की ओर से पत्नी को नोटिस कैसे दे सकता है? क्या यह कानूनी है? तलाक देने के लिए इस तरह के नए तरीके (Innovations) कैसे बनाए जा रहे हैं और समुदाय ऐसी प्रथाओं को बढ़ावा क्यों दे रहा है?"
कोर्ट ने सख्त लहजे में कहा, "हम ऐसी प्रक्रियाओं को मुस्लिम महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुंचाने की अनुमति नहीं देंगे। कोई भी व्यक्ति अपनी ओर से पत्नी को तलाक का नोटिस देने के लिए किसी वकील या अन्य व्यक्ति को अधिकृत नहीं कर सकता। अगर कल को पति कह दे कि उसने वकील को ऐसा करने का अधिकार नहीं दिया था, तो उस महिला का क्या होगा? हमने कई मामलों में देखा है जहां मुवक्किल ने वकील की कार्रवाई को अपनाने से ही इनकार कर दिया।"
पति को शरिया कानून का पालन करने का निर्देश
पीठ ने वकील-पति के कार्यों की निंदा करते हुए उन्हें शरिया कानून की प्रक्रियाओं का पालन करने और महिला को वैध तलाक देने का निर्देश दिया। याचिकाकर्ता बेनजीर हिना कोर्ट में मौजूद थीं। उन्होंने अपनी आपबीती सुनाते हुए बताया कि कैसे कुल 17,000 रुपये के गुजारा भत्ते (Alimony) का भुगतान करने के बाद उनके पति ने उन्हें लगभग बेसहारा छोड़ दिया, जिसके बाद उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं।
सुप्रीम कोर्ट ने महिला को अपने और बच्चे के कल्याण व शिक्षा के लिए उचित निर्देशों की मांग करते हुए एक आवेदन दायर करने को कहा। कोर्ट ने भरोसा दिलाया, "हम जो भी जरूरी होगा, वह करेंगे।"
लाखों ग्रामीण महिलाओं की चिंता
अधिवक्ता शमशाद की ओर मुड़ते हुए, जस्टिस सूर्य कांत ने कहा, "तलाक-ए-हसन की एकतरफा प्रक्रिया को चुनौती देने के लिए कोर्ट आने के महिला के साहस को हम सलाम करते हैं। उन लाखों मुस्लिम महिलाओं की स्थिति के बारे में सोचिए जो निरक्षर हैं और ग्रामीण इलाकों में रहती हैं। उनकी क्या दुर्दशा होती होगी? राहत केवल उन महिलाओं तक सीमित नहीं रह सकती जिनके पास सुप्रीम कोर्ट आने के साधन हैं।"
कोर्ट ने कहा कि वह विस्तृत सुनवाई के बाद 'तलाक-ए-हसन' की वैधता पर फैसला करेगा।
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