ओडिशा: विदेशों में बढ़ी ‘अमृत भंडा’ की मांग, आदिवासी महिलाएं बनीं आत्मनिर्भर

रासायनिक उर्वरकों के बिना पूरी तरह से जैविक तरीके से उगाए गए ग्रीन पपीते की खासियत इसकी लंबी शेल्फ लाइफ और बेहतरीन स्वाद है। यही वजह है कि यह विदेशी बाजारों में अपनी जगह बना रहा है।
रासायनिक उर्वरकों के बिना पूरी तरह से जैविक तरीके से उगाए गए ग्रीन पपीते.
रासायनिक उर्वरकों के बिना पूरी तरह से जैविक तरीके से उगाए गए ग्रीन पपीते.
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ढेंकनाल (ओडिशा)। ओडिशा के ढेंकनाल का स्वदेशी ‘अमृत भंडा’ (ग्रीन पपीता) अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी पहचान बना रहा है। लंदन और आयरलैंड जैसे विदेशी बाजारों में इसकी मांग तेजी से बढ़ रही है। खास बात यह है कि इस सफलता की कहानी के पीछे सप्तसज्जा पंचायत के मझीसाहि गांव की आदिवासी महिलाएं हैं, जो ‘मेक इन ओडिशा’ पहल के तहत आत्मनिर्भरता की मिसाल बन चुकी हैं। इनके प्रयासों को मुख्यमंत्री कार्यालय समेत कई संस्थानों ने सराहा है।

रासायनिक उर्वरकों के बिना पूरी तरह से जैविक तरीके से उगाए गए ग्रीन पपीते की खासियत इसकी लंबी शेल्फ लाइफ और बेहतरीन स्वाद है। यही वजह है कि यह विदेशी बाजारों में अपनी जगह बना रहा है। यह पपीता सप्तसज्जा मझीसाहि, संसैलो और भैरनाली जैसे इलाकों से एकत्र किया जाता है।

इसका निर्यात मदन मोहन एग्रो प्रोड्यूसर और सप्तसज्जा एग्रो जैसी कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। एपीडा (कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण) और भारत सरकार के सहयोग से अब तक 700 क्विंटल ग्रीन पपीता आयरलैंड और 1 टन लंदन भेजा जा चुका है।

ढेंकनाल हॉर्टीकल्चर की डिप्टी डायरेक्टर गीताश्री पाधी ने बताया कि यह हम सभी के लिए बहुत अच्छी खबर है कि हमारे यहां से ग्रीन पपीते की सप्लाई दूसरे देशों में हो रही है। हमारे यहां की जनजाति महिलाओं ने ग्रीन पपीते की खेती में काफी अच्छा काम किया है। उन्होंने अपने हिसाब से पपीते की खेती की। जहां तक हमें पता है, लंदन, आयरलैंड और दूसरे देशों के लोग स्वास्थ्य के लिए काफी जागरूक हैं। इस लिहाज से ग्रीन पपीते की मांग काफी ज्यादा है। हमें काफी खुशी है कि हमारे यहां की महिलाएं ग्रीन पपीते को उपजा रही हैं, जिसे विदेश भेजा रहा है।

इस सफल पहल ने दुमुनी टुड्डु, लक्ष्मी हेम्ब्रम और बिनोदिनी नायक जैसी आदिवासी महिलाओं के जीवन में बड़ा बदलाव लाया है। वे अब अपनी छोटी खेती से आत्मनिर्भर हो रही हैं। एक ग्रीन पपीते के पेड़ से 40-50 किलोग्राम तक फल प्राप्त होते हैं, जिसे 17 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेचा जाता है। यह इन आदिवासी महिलाओं की आजीविका को मजबूती देने में मदद कर रहा है।

हालांकि, इस इलाके की महिलाओं ने ‘मेक इन ओडिशा’ अभियान के तहत आत्मनिर्भरता की नई मिसाल कायम की है, लेकिन खेती के लिए जलसंकट अभी भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। अगर इस समस्या का समाधान किया जाए तो खेती के उत्पादन और आदिवासी समुदायों की आर्थिक स्थिति में और सुधार आ सकता है।

(With inputs from IANS)

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