नई दिल्ली- सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों को मजबूत करने वाले एक 177 पेज के लम्बे और ऐतिहासिक फैसले में ट्रांसजेंडर याचिकाकर्ता जेन कौशिक को दो निजी स्कूलों द्वारा भेदभावपूर्ण बर्खास्तगी के मामले में न्याय प्रदान किया है। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की बेंच ने यूपी और गुजरात राज्यों को कौशिक को 50-50 हजार रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया, बल्कि जामनगर के स्कूल को भी ट्रांसजेंडर टीचर को 50,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश जारी किया।
कोर्ट ने ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट, 2019 की कमियों पर गहरी चिंता जताते हुए एक सलाहकार समिति गठित करने और समावेशी रोजगार-शिक्षा नीति बनाने का आदेश दिया है। इस फैसले को ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए एक मील का पत्थर साबित होने की आशा की जा रही है, जो लंबे समय से सामाजिक बहिष्कार और संस्थागत भेदभाव का शिकार रहा है।
याचिका (सिविल) नंबर 1405/2023 में जेन कौशिक ने दो अलग-अलग राज्यों के निजी स्कूलों में नौकरी से बर्खास्तगी का आरोप लगाया था। 2016 में राजस्थान से स्नातक करने वाली जेन ने 2017 में हरियाणा से नर्सरी टीचर ट्रेनिंग और 2018 में गुजरात से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। 2019 में उन्होंने जेंडर अफर्मेटिव सर्जरी कराई और 2020 में उत्तर प्रदेश के एक विश्वविद्यालय से बीएड की पढ़ाई पूरी की। नवंबर 2022 में उत्तर प्रदेश के पहले स्कूल (रिस्पॉन्डेंट नंबर 5) में इंग्लिश और सोशल साइंस टीचर के रूप में चयनित हुईं, लेकिन केवल आठ दिनों बाद ही सहकर्मियों और छात्रों द्वारा नाम-कॉलिंग, उत्पीड़न और बॉडी शेमिंग का शिकार हुईं। स्कूल प्रिंसिपल को शिकायत करने पर आश्वासन तो मिला, लेकिन 3 दिसंबर 2022 को उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया गया। स्कूल ने इस्तीफे को स्वीकार करते हुए खराब प्रदर्शन का हवाला दिया, लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स में ट्रांसजेंडर पहचान का खुलासा होने के बाद 1 करोड़ का मानहानि नोटिस भी भेजा।
दूसरे स्कूल (रिस्पॉन्डेंट नंबर 4) गुजरात के जामनगर में 24 जुलाई 2023 को इंग्लिश टीचर के लिए ऑफर लेटर मिला, लेकिन यात्रा के दौरान पहचान दस्तावेज साझा करने पर उन्हें प्रवेश ही नहीं दिया गया। स्कूल ने दावा किया कि यह प्रशासनिक निर्णय था और अन्य उम्मीदवारों की तुलना के बाद लिया गया, लेकिन कोर्ट ने इसे ट्रांसजेंडर पहचान पर आधारित भेदभाव माना। बेंच ने कहा कि सेक्शन 9 स्पष्ट रूप से भर्ती में भेदभाव निषेध करता है। याचिकाकर्ता ने राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू), राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) और राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर परिषद (एनसीटीपी) जैसे मंचों पर शिकायत की, लेकिन कहीं न्याय नहीं मिला। कोर्ट ने इसे 2019 एक्ट के तहत शिकायत निवारण तंत्र की विफलता का प्रमाण माना।
फैसले में बेंच ने ट्रांसजेंडर समुदाय की दयनीय स्थिति पर गहरा शोक व्यक्त किया। कोर्ट ने कहा, "यह अधिक से अधिक आधा दशक हो गया है जब ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट, 2019 लागू हुआ... लेकिन वास्तविकता यह है कि ये अधिकार केवल खोखली औपचारिकता बने हुए हैं।" बेंच ने नालसा (2014) फैसले का हवाला देते हुए जोर दिया कि ट्रांसजेंडर को 'थर्ड जेंडर' मानते हुए समानता और गरिमा का अधिकार दिया गया था, लेकिन राज्य और निजी संस्थाओं की सुस्ती ने इसे बेअसर कर दिया। कोर्ट ने रीजनेबल एकॉमोडेशन को सब्स्टेंटिव इक्वालिटी का हिस्सा बताते हुए कहा कि यह नकारात्मक प्रतिबंध से आगे बढ़कर सकारात्मक दायित्व है, जो ट्रांसजेंडर को मुख्यधारा में लाने के लिए आवश्यक है।
बेंच ने भेदभाव कानून में 'ओमिशन' (चूक) को भी भेदभाव का रूप माना। संड्रा फ्रेडमैन के चार-आयामी दृष्टिकोण का सहारा लेते हुए कोर्ट ने कहा कि समानता का मतलब नुकसान की भरपाई, कलंक-रूढ़ियों का सामना, आवाज और भागीदारी बढ़ाना तथा संरचनात्मक बदलाव लाना है। कोर्ट ने टिप्पणी की, "ट्रांसजेंडर समुदाय सामाजिक बहिष्कार से लेकर भेदभाव, शिक्षा की कमी, बेरोजगारी और चिकित्सा सुविधाओं की कमी का सामना कर रहा है।" 2019 एक्ट की आलोचना करते हुए बेंच ने कहा कि यह आत्म-निर्धारण के अधिकार को कमजोर करता है और चिकित्सकीय हस्तक्षेप पर निर्भर बनाता है। कोर्ट ने कनाडा, अमेरिका और यूरोपीय संघ के उदाहरणों से रीजनेबल एकॉमोडेशन को मजबूत किया।
फैसले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा 2019 एक्ट की कमियों पर केंद्रित है। बेंच ने कहा कि एक्ट में शिकायत निवारण तंत्र की कमी ने ट्रांसजेंडर को असहाय बना दिया है। कोर्ट ने नोट किया कि केवल 11 राज्यों में ट्रांसजेंडर प्रोटेक्शन सेल बने हैं और अधिकांश राज्यों ने नियम नहीं बनाए। रोजगार में भेदभाव के मामलों का जिक्र करते हुए बेंच ने कहा, "ट्रांसजेंडर को कार्यस्थलों पर पूर्वाग्रहपूर्ण सामाजिक मानदंडों के कारण बाधाओं का सामना करना पड़ता है।" कोर्ट ने अप्रत्यक्ष क्षैतिज अनुप्रयोग के माध्यम से निजी संस्थाओं पर मौलिक अधिकारों को लागू करने का समर्थन किया।
ट्रांसजेंडर समुदाय की दैनिक चुनौतियों पर कोर्ट ने गहरी चिंता जताई। निगरानी, हाइपर-विजिलेंस, रोजगार में प्रवेश बाधाएं, पहचान दस्तावेजों में बदलाव की कठिनाई, शैक्षणिक बहिष्कार और सामाजिक-राजनीतिक बहिष्कार का जिक्र किया। विभिन्न हाईकोर्ट फैसलों का हवाला देते हुए बेंच ने कहा कि ट्रांसजेंडर को पुलिस उत्पीड़न, चिकित्सा जांचों में अपमान और पेंशन लाभों से वंचित होने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कोर्ट ने सुझाव दिए कि सार्वजनिक स्थानों पर जेंडर-न्यूट्रल वॉशरूम, जागरूकता अभियान और चिकित्सा पाठ्यक्रम में सुधार आवश्यक हैं।
फैसले में कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत कई निर्देश जारी किए। सभी राज्यों में अपीलीय प्राधिकारी, वेलफेयर बोर्ड और प्रोटेक्शन सेल गठित करने का आदेश दिया। हर संस्थान में शिकायत अधिकारी नियुक्ति अनिवार्य की। राज्य मानवाधिकार आयोग को अपील फोरम बनाया। राष्ट्रव्यापी टोल-फ्री हेल्पलाइन स्थापित करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने कहा, "ये निर्देश अनिवार्य हैं और तीन महीने में पालन सुनिश्चित किया जाए।"
ट्रांसजेंडर मुद्दों पर गहन अध्ययन के लिए एक सलाहकार समिति गठित की, जिसमें जस्टिस आशा मेनन (रिटायर्ड) को चेयरपर्सन बनाया। समिति में एक्टिविस्ट अक्काई पद्माशाली, ग्रेस बानू, व्यजयंती वसंत मोगली जैसे सदस्य हैं। एक्स-ऑफिशियो सदस्यों में सामाजिक न्याय मंत्रालय के सचिव शामिल। समिति को छह महीने में समान अवसर नीति का ड्राफ्ट तैयार करने का कार्य सौंपा। कोर्ट ने कहा, "यह समिति ट्रांसजेंडर अधिकारों को मजबूत करने के लिए नीतिगत सिफारिशें देगी।" समिति की सिफारिशें मिलने के तीन महीने के भीतर केंद्र सरकार से अपनी अंतिम नीति बनाने की उम्मीद है। अदालत ने शुरुआती कार्यों के लिए समिति को 10 लाख रुपये स्वीकृत किए हैं।
यह फैसला न केवल जेन कौशिक को न्याय देता है, बल्कि पूरे ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए एक नई उम्मीद जगाता है। कोर्ट ने चेतावनी दी कि राज्य की सुस्ती से अधिकार खोखले हो जाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला ट्रांसजेंडर समावेशन को तेज करेगा और 2019 एक्ट को मजबूत बनाएगा। यूनियन को तीन महीने में अपनी नीति लाने का आदेश है, जबकि मामला कंटीन्यूइंग मेंडामस के तहत चलेगा। यह फैसला भारतीय संविधान की समानता की भावना को मजबूत करता है, जहां ट्रांसजेंडर भी मुख्यधारा का हिस्सा बनें।
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अनुपालन के लिए तीन महीने की समयसीमा देते हुए बाध्यकारी निर्देशों की एक श्रृंखला जारी की। इसमें जिला मजिस्ट्रेट के अधीन प्रत्येक जिले में और राज्य स्तर पर पुलिस महानिदेशक के अधीन एक ट्रांसजेंडर संरक्षण सेल की स्थापना शामिल है। हर "प्रतिष्ठान", जिसमें निजी कंपनियाँ, स्कूल और अस्पताल शामिल हैं, को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की शिकायतों को दूर करने के लिए एक शिकायत अधिकारी नामित करना होगा। इसके अलावा, सभी राज्यों को ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए एक कल्याण बोर्ड का गठन करना होगा और अधिनियम के उल्लंघन की रिपोर्ट करने के लिए एक समर्पित देशव्यापी टोल-फ्री हेल्पलाइन स्थापित करनी होगी।
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