नई दिल्ली: हाल ही में, एक मलयालम रियलिटी शो के मंच पर कुछ ऐसा हुआ जिसने देश भर में एक पुरानी और गंभीर बहस को फिर से हवा दे दी है। शो के दौरान, सुपरस्टार मोहनलाल ने प्रतियोगी लक्ष्मी को उस वक्त कड़ी फटकार लगाई, जब उन्होंने शो में मेहमान के तौर पर आईं एक समलैंगिक जोड़ी, अधिला नसरीन और फातिमा नूरा, का अपने घर में स्वागत करने से इनकार कर दिया। मोहनलाल ने दो टूक कहा, "आपको यह तय करने का क्या अधिकार है कि किसके घर में कौन आएगा? अगर आप उन्हें सहन नहीं कर सकतीं, तो यह घर और यह शो छोड़कर चली जाइए।"
मोहनलाल की इस टिप्पणी की जहाँ एक ओर जमकर सराहना हुई, वहीं इसने भारत की रक्तदान नीतियों से जुड़े असहज सवालों को भी जन्म दे दिया। आलोचकों ने पूछा, "अगर समाज को LGBTQIA+ समुदाय के लोगों को स्वीकार करना और सम्मान देना चाहिए, तो फिर उनके द्वारा दिए गए रक्त पर प्रतिबंध क्यों लगा है?"
यह सवाल सीधे तौर पर भारत की मौजूदा रक्त-आधान नीतियों की ओर इशारा करता है। राष्ट्रीय रक्त संचरण परिषद (NBTC) और राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO) द्वारा 2017 में जारी दिशा-निर्देशों के तहत, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों, पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाने वाले पुरुषों (MSM), और महिला यौनकर्मियों पर रक्तदान करने से स्थायी रूप से रोक लगी हुई है।
इन नियमों में इन समूहों को एचआईवी (HIV) और अन्य रक्त-संचारित संक्रमणों (TTIs) के लिए "उच्च-जोखिम" वाली श्रेणी में रखा गया है। दिशा-निर्देशों के क्लॉज 12 और 51 इन समुदायों के लोगों को उनके व्यक्तिगत स्वास्थ्य या व्यवहार की परवाह किए बिना, हमेशा के लिए रक्तदान से बाहर कर देते हैं।
हालांकि, कार्यकर्ता और स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस नीति को पुरानी धारणाओं पर आधारित और भेदभावपूर्ण मानते हैं। उनका तर्क है कि यह प्रतिबंध किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत जोखिम का आकलन करने के बजाय उसकी पहचान के आधार पर उसे बाहर करता है। यह भारतीय संविधान द्वारा दिए गए समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14), भेदभाव के खिलाफ अधिकार (अनुच्छेद 15), और गरिमा के साथ जीने के अधिकार (अनुच्छेद 21) का उल्लंघन है।
इस प्रतिबंध के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं भी दायर की गई हैं। इसी साल मई में, अदालत ने केंद्र सरकार को चिकित्सा विशेषज्ञों से सलाह लेकर इन दिशा-निर्देशों पर फिर से विचार करने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि क्या व्यक्तिगत व्यवहार का विश्लेषण किए बिना पूरे समुदाय को "जोखिम भरा" करार देना समाज में पूर्वाग्रह और बहिष्कार को बढ़ावा नहीं देता?
याचिकाकर्ताओं में शांता खुरई, शरीफ रंगनेकर और हरीश अय्यर जैसे प्रमुख नाम शामिल हैं, जिनका मानना है कि यह प्रतिबंध पूरी तरह से असंवैधानिक और अवैज्ञानिक है। मणिपुर की एक ट्रांस-अधिकार कार्यकर्ता, शांता खुरई, जिन्होंने 2021 में सबसे पहले यह याचिका दायर की थी, कहती हैं, "इस प्रतिबंध का ट्रांसजेंडर व्यक्तियों, यौनकर्मियों और एमएसएम समुदाय के वास्तविक एचआईवी जोखिमों से कोई लेना-देना नहीं है।"
खुरई 2013 की एक दर्दनाक घटना को याद करती हैं जब मणिपुर में 'नुपी मानबी' के नाम से जानी जाने वाली तीन ट्रांस-महिलाएं एक रिश्तेदार के लिए खून देने इंफाल के एक अस्पताल गईं। वहां उनका स्वागत करने के बजाय, उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया और लौटा दिया गया। आठ साल बाद, मणिपुर के लैंगोल में एक और अस्पताल में दो अन्य ट्रांस-महिलाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ। खुरई कहती हैं, "यह प्रतिबंध हमें समाज से मिटाने का एक ज़रिया है।"
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) भी यह सिफारिश करता है कि रक्तदान से किसी को बाहर करने का आधार उसकी लैंगिक पहचान या यौन रुझान नहीं, बल्कि उसका व्यक्तिगत स्वास्थ्य और जोखिम भरा व्यवहार होना चाहिए। आज भारत में रक्त की जांच के लिए एलिसा (ELISA) के अलावा न्यूक्लिक एसिड टेस्टिंग (NAT) जैसी उन्नत तकनीकें मौजूद हैं, जो संक्रमण का बहुत जल्दी पता लगा लेती हैं।
TOI की रिपोर्ट के अनुसार, कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में प्रयोगशाला चिकित्सा की प्रमुख डॉ. वर्षा वडेरा के अनुसार, "हमारे पास हर रक्त यूनिट को सुरक्षित रूप से जांचने की तकनीक है, चाहे वह किसी से भी आई हो।" हालांकि, NAT जैसी महंगी तकनीकें देश के हर ब्लड बैंक, खासकर ग्रामीण इलाकों में उपलब्ध नहीं हैं, और इसी ढांचागत कमी को अक्सर ऐसे प्रतिबंधों को जारी रखने के बहाने के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
इस साल अगस्त 2025 में, केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस नीति का बचाव करते हुए कहा कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों, MSM और महिला यौनकर्मियों में एचआईवी के आंकड़े अधिक हैं, और उन्हें रक्तदान की अनुमति देने से "प्रणालीगत जोखिम बढ़ सकता है।"
याचिकाकर्ताओं के लिए, यह लड़ाई सिर्फ खून देने के अधिकार की नहीं है, बल्कि यह सम्मान और गरिमा की लड़ाई है। यह मामला विज्ञान, सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जो भारत के स्वास्थ्य ढांचे और सामाजिक दृष्टिकोण, दोनों को चुनौती दे रहा है।
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