लखनऊ: इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने उत्तर प्रदेश के चार मेडिकल कॉलेजों में दाखिले को लेकर लागू की गई विशेष आरक्षण व्यवस्था को रद्द करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। यह फैसला राज्य के कन्नौज, अंबेडकर नगर, जालौन और सहारनपुर में स्थित मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश प्रक्रिया को सीधे तौर पर प्रभावित करेगा। अदालत ने इस व्यवस्था को लागू करने वाले शासनादेश को खारिज कर दिया है, जिससे इन संस्थानों में सीटों का आवंटन अब नए सिरे से किया जाएगा।
यह पूरा मामला तब सामने आया जब एक याचिकाकर्ता साबरा अहमद ने इस आरक्षण नीति को अदालत में चुनौती दी। जस्टिस पंकज भाटिया की एकल पीठ ने साबरा अहमद की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश पारित किया। याचिकाकर्ता ने NEET-2025 की परीक्षा में 523 अंक हासिल किए थे और उनकी ऑल इंडिया रैंक 29061 थी।
याचिका में यह दलील दी गई थी कि उत्तर प्रदेश के चार सरकारी मेडिकल कॉलेजों - अंबेडकर नगर, कन्नौज, जालौन और सहारनपुर - में प्रवेश के लिए आरक्षण की सीमा को अनुचित रूप से बढ़ाया गया था। याचिका के अनुसार, इन कॉलेजों में विशेष अनुदान कॉम्पोनेंट के तहत 79% से अधिक आरक्षण दिया जा रहा था, जो कि आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% की सीमा का स्पष्ट उल्लंघन है।
याचिका में आगे कहा गया कि, इन चारों कॉलेजों की कुल 340 सीटों में से अनुसूचित जाति (SC) के लिए 248, अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए 20 और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए 44 सीटें आरक्षित की गई थीं। वहीं, सामान्य वर्ग के लिए महज 28 सीटें ही बची थीं। इसका मतलब है कि प्रत्येक कॉलेज की 85 सीटों में से 62 सीटें एससी, 5 एसटी, 11 ओबीसी और 7 सीटें सामान्य वर्ग के लिए थीं।
याचिकाकर्ता के वकील मोती लाल यादव ने अदालत में तर्क दिया कि केंद्र सरकार से विशेष अनुदान प्राप्त करने के लिए इन कॉलेजों में आरक्षण के नियमों को ताक पर रखा गया। ये मेडिकल कॉलेज 2010 (कन्नौज), 2011 (अंबेडकर नगर), 2013 (जालौन) और 2015 (सहारनपुर) में स्थापित किए गए थे।
लंबी सुनवाई के बाद, हाईकोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि यूपी सरकार द्वारा आरक्षण तय करने वाला यह सरकारी आदेश 'उत्तर प्रदेश शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण अधिनियम, 2006' के प्रावधानों के खिलाफ है। अदालत ने माना कि यह फैसला केंद्र सरकार द्वारा जारी दिशा-निर्देशों की गलत व्याख्या पर आधारित था।
अदालत ने कहा, "यह आरक्षण स्पष्ट रूप से 50% से अधिक की स्थापित सीमा का उल्लंघन करता है, और वह भी बिना किसी कानूनी अधिकार के, इसलिए इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।"
कोर्ट ने न केवल विशेष आरक्षण प्रणाली को रद्द किया, बल्कि राज्य सरकार को इन चार जिलों के कॉलेजों में 'आरक्षण अधिनियम, 2006' के तहत निर्धारित आरक्षण और केंद्र व राज्य सरकार की सीटों के आरक्षण के आधार पर नए सिरे से सीटें भरने का निर्देश दिया है। चूंकि सीटें पहले ही भरी जा चुकी हैं, इसलिए अब पूरी प्रक्रिया फिर से शुरू करनी होगी।
इस फैसले पर राजनीतिक प्रतिक्रिया भी तेज हो गई है। आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के अध्यक्ष और नगीना से सांसद चंद्रशेखर आज़ाद ने इस निर्णय को शोषित वर्ग के साथ अन्याय बताया है। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'X' पर लिखा कि हाईकोर्ट की डबल बेंच ने भी सिंगल बेंच के फैसले को बरकरार रखा है, जो उन शर्तों के साथ विश्वासघात है जिनके आधार पर इन संस्थानों की स्थापना हुई थी।
आज़ाद ने योगी आदित्यनाथ सरकार पर दोहरा चरित्र अपनाने का आरोप लगाते हुए कहा, "मेरे संज्ञान में आया है कि सरकार की तरफ से पक्ष रखने वालों ने भी हाईकोर्ट में इस फैसले पर सहमति जताई।" उन्होंने याद दिलाया कि इन मेडिकल कॉलेजों का निर्माण समाज कल्याण विभाग की विशेष घटक योजना के 70% बजट से हुआ था और यह तय था कि निर्माण में लगी राशि के अनुपात में ही अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग को विशेष आरक्षण मिलेगा।
चंद्रशेखर आज़ाद ने घोषणा की है कि उनकी पार्टी इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी। साथ ही उन्होंने योगी सरकार से अपील की है कि यदि वह वास्तव में दलित हितैषी है, तो विधानसभा में कानून बनाकर इन चारों मेडिकल कॉलेजों में विशेष आरक्षण को बहाल करे। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, "अगर सरकार और कोर्ट से इंसाफ नहीं मिला तो उत्तर प्रदेश सरकार का असली चेहरा समाज के सामने लाने के लिए दिल्ली से लखनऊ तक पैदल मार्च करूंगा।"
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