TM Exclusive दलित-आदिवासी और महिलाओं के हक़ पर सरकार ख़ामोश! साढ़े तीन साल से आयोगों में खाली कुर्सियाँ, लाखों शिकायतें लटकीं

फिलहाल शिकायतों की सुनवाई केवल प्रशासनिक अधिकारियों के भरोसे है, जो पर्याप्त नहीं है। पीड़ित पक्ष महीनों से न्याय की आस में आयोगों के चक्कर काट रहा है, लेकिन सुनवाई का दरवाजा बंद है।
साढ़े तीन साल से आयोगों में खाली कुर्सियाँ, लाखों शिकायतें लटकीं
साढ़े तीन साल से आयोगों में खाली कुर्सियाँ, लाखों शिकायतें लटकीं
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भोपाल। मध्य प्रदेश में सरकार की उदासीनता एक बार फिर संवैधानिक संस्थाओं की साख पर सवाल खड़े कर रही है। राज्य अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और राज्य महिला आयोग में अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति न होने से करीब एक लाख शिकायतें महीनों से लंबित पड़ी हैं। मार्च 2023 से यह पद खाली हैं, लेकिन शिवराज सरकार के बाद सत्ता में आई डॉ. मोहन यादव की सरकार भी अब तक नियुक्तियाँ नहीं कर सकी है। नतीजा यह है कि संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने वाले ये आयोग सिर्फ नाम मात्र के रह गए हैं और शिकायतकर्ताओं को न्याय के लिए महीनों, सालों इंतजार करना पड़ रहा है।

यह स्थिति न केवल प्रशासनिक विफलता को उजागर करती है बल्कि सरकार की संवैधानिक संस्थाओं के प्रति बेरुखी पर भी गंभीर सवाल खड़े करती है। शिवराज सरकार के बाद बनी डॉ. मोहन यादव की सरकार से उम्मीद थी कि यह मामला प्राथमिकता में रहेगा, लेकिन दो साल का समय पूरा होने को है, इसके बाद भी कोई ठोस कदम न उठाए जाने से पीड़ित पक्ष न्याय के लिए दर-दर भटकने को मजबूर है।

लंबित मामलों का अंबार, पीड़ितों की बेबसी

राज्य महिला आयोग के एक कर्मचारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि आयोग को हर महीने औसतन 300 से अधिक शिकायतें मिलती हैं। सालभर में यह आंकड़ा तीन हजार तक पहुँच जाता है। इनमें से कुछ शिकायतें जो सीधे महिला आयोग से संबंधित नहीं होतीं, उन्हें निरस्त कर दिया जाता है, लेकिन बाकी मामलों की सुनवाई और निपटारा अध्यक्ष या सदस्य की मौजूदगी पर निर्भर होता है। पिछले साढ़े तीन साल से पद खाली होने के कारण हजारों शिकायतें फ़ाइलों में दबकर रह गई हैं।

अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की स्थिति भी अलग नहीं है। इन आयोगों को बड़ी संख्या में जातीय भेदभाव, उत्पीड़न, आरक्षण से संबंधित विवादों और अन्य गंभीर मामलों की शिकायतें मिलती हैं। लेकिन अध्यक्ष और सदस्यों के अभाव में ये संवैधानिक संस्थाएँ केवल औपचारिक कागजी कार्यवाही तक सीमित रह गई हैं।

संविधान के अधिकारों का हनन

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रत्येक नागरिक को समानता का अधिकार दिया गया है। वहीं अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित करता है। इसके साथ ही अनुच्छेद 32 यह प्रावधान करता है कि नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के हनन पर सीधे अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं। परंतु जब संवैधानिक आयोग ही निष्क्रिय पड़े हों, तो न्याय पाने की यह प्रक्रिया महज़ एक औपचारिकता बनकर रह जाती है।

द मूकनायक से बातचीत करते हुए आदिवासी एक्टविस्ट और सुनील आदिवासी का कहना है कि आयोगों का काम केवल सिफ़ारिशें भेजना ही नहीं, बल्कि पीड़ितों को सुनवाई का अवसर देना और सरकारी तंत्र पर जवाबदेही तय करना भी है। लेकिन वर्तमान हालात में संवैधानिक संस्थाओं की निष्क्रियता नागरिकों के मौलिक अधिकारों के हनन की जीती-जागती मिसाल बन चुकी है।

सिविल न्यायालय जैसी शक्तियाँ भी निष्प्रभावी

राज्य अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग और महिला आयोग जैसी संस्थाओं के पास सिविल न्यायालय जैसी शक्तियाँ होती हैं। ये आयोग विभागीय जाँच की समीक्षा कर सकते हैं, अधिकारियों को नोटिस जारी कर सकते हैं, यहाँ तक कि प्रतिवेदन मंगाकर शासन को अनुशंसा भेज सकते हैं। परंतु अध्यक्ष या सदस्य की अनुपस्थिति में ये सारी संवैधानिक शक्तियाँ कागज़ों तक सीमित हो जाती हैं।

पूर्व सदस्य प्रदीप अहिरवार ने द मूकनायक से बातचीत में कहा, “मेरे कार्यकाल के दौरान कई महत्वपूर्ण मामलों में सुनवाई हुई और हमने शासन को ठोस अनुशंसाएँ भेजीं। लेकिन मार्च 2023 में कार्यकाल समाप्त होने के बाद से आयोग लगभग ठप है। नियुक्तियाँ न होने का सीधा नुकसान जनता को हो रहा है।”

लंबित मामलों की तस्वीर

महिला आयोग की स्थिति सबसे गंभीर है। पूर्व सदस्य संगीता शर्मा ने बताया कि जब उन्होंने 2020 में कार्यभार संभाला था, तब करीब 10 हजार मामले पहले से लंबित थे। अब यह संख्या 50 हजार के पार पहुँच चुकी होगी। अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग में करीब 60 हजार मामले लंबित हैं। कुल मिलाकर एक लाख से अधिक शिकायतें आज भी निर्णय का इंतजार कर रही हैं। यह आँकड़ा बताता है कि संवैधानिक संस्थाओं की निष्क्रियता पीड़ितों के लिए किस हद तक दर्दनाक साबित हो रही है।

न्यायिक विवाद और सरकार की देरी

नियुक्तियों में देरी की जड़ वर्ष 2020 का विवाद है। कमलनाथ सरकार ने जिन सदस्यों की नियुक्ति की थी, उन्हें शिवराज सरकार ने निरस्त कर दिया। इसके खिलाफ नियुक्त सदस्य हाईकोर्ट पहुँचे और जबलपुर हाईकोर्ट ने सरकार के फैसले पर रोक लगा दी। तब से लेकर अब तक न तो पुराने सदस्यों को बहाल किया गया और न ही नए चेहरों की नियुक्ति हुई।

कानूनी जानकार मानते हैं कि सरकार अगर चाहती, तो इस विवाद का समाधान निकाल सकती थी। लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने आयोगों को लगभग निष्क्रिय बना दिया है।

परसीमन आयोग पर फोकस, पर SC-ST और महिला आयोग उपेक्षित

मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने परसीमन आयोग का गठन किया है। पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन भी हो चुका है, लेकिन SC-ST और महिला आयोग की नियुक्तियों पर सरकार खामोश है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नए आयोग का गठन दिखावटी राजनीति है, जबकि पहले से स्थापित और संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने वाले आयोगों की अनदेखी जनता के साथ अन्याय है।

द मूकनायक से बातचीत में आदिवासी विकास परिषद छात्र प्रभाग के प्रदेश अध्यक्ष एडवोकेट नीरज बारीवा ने सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि भाजपा सरकार आदिवासी और दलित समुदायों के न्याय के प्रति पूरी तरह असंवेदनशील है।

नीरज बारीवा ने कहा कि यह विडंबना है कि भारतीय जनता पार्टी चुनाव आते ही वंचित समुदायों के वोट मांगने के लिए बड़े-बड़े वादे करती है, लेकिन जब संवैधानिक अधिकारों और न्याय दिलाने की बात आती है, तो सरकार पूरी तरह चुप्पी साध लेती है। उन्होंने कहा, “साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद भी अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और राज्य महिला आयोग में नियुक्तियाँ नहीं हो पाई हैं। यह केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि वंचित समाज के प्रति संवेदनहीनता का प्रतीक है।”

उन्होंने आगे कहा, "इन आयोगों का गठन ही इसलिए किया गया था ताकि समाज के कमजोर तबकों को न्याय मिल सके और उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा हो सके। लेकिन भाजपा सरकार ने इतने लंबे समय तक नियुक्तियाँ न करके यह साबित कर दिया है कि उसे केवल चुनावी राजनीति में वंचितों का उपयोग करना आता है, उनके अधिकारों की रक्षा करना नहीं।"

फिलहाल शिकायतों की सुनवाई केवल प्रशासनिक अधिकारियों के भरोसे है, जो पर्याप्त नहीं है। पीड़ित पक्ष महीनों से न्याय की आस में आयोगों के चक्कर काट रहा है, लेकिन सुनवाई का दरवाजा बंद है। सवाल यह है कि सरकार कब जागेगी और संवैधानिक संस्थाओं की साख बहाल करेगी?

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