भोपाल। अनुसूचित जाति वर्ग के एक रिटायर कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर द मूकनायक से अपनी पीड़ा का साझा करते हए कहा, "मैंने पूरे जीवन ईमानदारी से नौकरी की। पिछले दस साल से पदोन्नति का इंतजार कर रहा था, लेकिन प्रमोशन मिलने से पहले ही इस साल रिटायर हो गया। दुख इस बात का है कि जिस पद पर भर्ती हुआ था, उसी पद पर सेवानिवृत्त होना पड़ा। न पद बदला, न नाम के आगे नई पहचान जुड़ी। सरकार ने क्रमोन्नति और समयमान वेतनमान देकर वेतन में थोड़ा फायदा तो दिया, पर असली सम्मान तो प्रमोशन से मिलता है। वह हमसे छिन गया।"
दरअसल, मध्यप्रदेश में पदोन्नति नियम को लेकर खिंच रही रस्साकशी नौ साल बाद भी थमने का नाम नहीं ले रही है। 2016 से अब तक कर्मचारियों की पदोन्नतियां ठप हैं और सरकार की ओर से नियम बनाने की कवायद कानूनी पेच में फंस चुकी है। जून 2025 में राज्य सरकार ने नई पदोन्नति नीति लागू की, जिसमें आरक्षण का प्रावधान शामिल किया गया, लेकिन इसे भी उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है।
तीन अलग-अलग याचिकाओं में यह तर्क दिया गया है कि प्रमोशन में आरक्षण देना संविधान की मूल भावना के विपरीत है, क्योंकि इससे एक वर्ग को लगातार लाभ मिलता है जबकि दूसरा वर्ग पिछड़ता जाता है। इस बीच, मंत्रालय सेवा अधिकारी-कर्मचारी संघ और विपक्षी कांग्रेस नेताओं ने भी सरकार और नौकरशाही की भूमिका पर सवाल खड़े किए हैं।
राज्य में 2002 में बने पदोन्नति नियमों के आधार पर कुछ वर्ष ही पदोन्नतियां हो सकी औऱ फिर विवाद बढ़ता चला गया। मामला अदालत पहुंचा और 30 अप्रैल 2016 को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने लोक सेवा (पदोन्नति) नियम, 2002 को निरस्त कर दिया। इसके बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां से यथास्थिति बनाए रखने का आदेश मिला।
नतीजा यह हुआ कि 2016 से अब तक पदोन्नति की प्रक्रिया ठप है। इस दौरान एक लाख से अधिक कर्मचारी बिना प्रमोशन रिटायर हो गए। सरकार ने क्रमोन्नति और समयमान वेतनमान देकर कुछ राहत देने की कोशिश की, मगर वास्तविक प्रमोशन न मिलने से कर्मचारी अपने पुराने पद पर ही काम कर रहे हैं।
जून 2025 में राज्य सरकार ने नई पदोन्नति नीति लागू कर दी, लेकिन इस पर सपाक्स संघ ने आपत्ति जताई और कोर्ट में चुनौती दी। संघ का कहना है कि यह नीति “समान अवसर” के सिद्धांत का उल्लंघन करती है और एक ही वर्ग को बार-बार लाभ दिलाती है।
वहीं, मंत्रालय सेवा अधिकारी-कर्मचारी संघ के अध्यक्ष सुधीर नायक का कहना है कि सरकार ने नियम बनाते समय सरल रास्ता अपनाने की बजाय चीजों को जटिल बना दिया। नायक ने कहा,- “यदि नए नियमों में यह प्रविधान कर दिया जाता कि 2016 से पदोन्नतियां शुरू होंगी और जिन संवर्गों में 36% से अधिक आरक्षण हो चुका है, वहां आरक्षण का अनुपात सामान्य होने तक पदोन्नति रोकी जाए, तो विवाद खत्म हो जाता। अधिकारियों ने अपने लिए अलग और कर्मचारियों के लिए अलग नियम रखकर समस्या को उलझाया है।”
राज्य अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व सदस्य और कांग्रेस नेता प्रदीप अहिरवार का आरोप है कि सरकार ने जानबूझकर गोरकेला समिति द्वारा तैयार किए गए विधिसम्मत ड्राफ्ट को लागू नहीं किया।
अहिरवार ने द मूकनायक से बातचीत में कहा, “2017 में तैयार किया गया गोरकेला ड्राफ्ट सभी पक्षों के हितों को संतुलित करता था। उस पर किसी भी तरह की कानूनी आपत्ति नहीं थी। मैंने पहले ही चेताया था कि यदि यह ड्राफ्ट लागू नहीं हुआ तो नया ड्राफ्ट अदालत में फंस जाएगा, और वही हुआ।”
उन्होंने मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों पर भी गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि मुख्यमंत्री तक सही जानकारी नहीं पहुंचाई जा रही है। उन्होंने कहा, “चौथी और पांचवीं मंज़िल पर बैठे अधिकारी मुख्यमंत्री को वास्तविक स्थिति से अवगत नहीं करा रहे। उन्होंने मनमाने ढंग से नया ड्राफ्ट तैयार कर लागू कराया, जो अब कानूनी उलझनों में फंसा है।”
अहिरवार ने यह भी कहा कि कुछ अधिकारी मनुवादी सोच से प्रेरित होकर सामाजिक न्याय से जुड़े हर प्रयास को रोकते हैं।
कर्मचारी संगठनों और विशेषज्ञों का मानना है कि इस पूरे विवाद का सबसे आसान हल वही था, जो राज्य प्रशासनिक सेवा में पहले से लागू है, यानी समयमान वेतनमान के साथ उच्च पदनाम देना। इससे कर्मचारियों को न केवल वेतन लाभ मिलता बल्कि उनके पद की गरिमा भी बनी रहती। कई संवर्गों में यह व्यवस्था पहले से लागू है, लेकिन पदोन्नति नीति बनाने में इसे नजरअंदाज कर दिया गया।
पदोन्नति नियम का मामला आज भी वहीं खड़ा है, जहां नौ साल पहले था। 2016 से रुकी पदोन्नतियों का असर न केवल कर्मचारियों के मनोबल पर पड़ा है, बल्कि प्रशासनिक ढांचे पर भी गहरा असर हुआ है।
पूर्व की विशेषज्ञों की चेतावनियों में साफ कहा गया था कि यदि गोरकेला समिति का ड्राफ्ट लागू नहीं किया गया, तो नया ड्राफ्ट कानून की भंवर में फंस सकता है। आज यह आशंका सच साबित हो चुकी है।
अब सवाल यह है कि क्या सरकार और नौकरशाही वास्तव में किसी सर्वमान्य समाधान की ओर कदम बढ़ाएंगे, या यह विवाद आने वाले वर्षों तक अदालतों और फाइलों में उलझा रहेगा?
2002: मध्यप्रदेश सरकार ने लोक सेवा (पदोन्नति) नियम 2002 लागू किए। इसके तहत आरक्षण के आधार पर पदोन्नतियां दी जाने लगीं।
2002–2016: नियमों के आधार पर कुछ विभागों में पदोन्नतियां होती रहीं।
30 अप्रैल 2016: मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने पदोन्नति नियम 2002 को निरस्त कर दिया। अदालत ने कहा कि यह नियम संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।
2016 (मई–जून): राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया। इसके बाद से प्रमोशन प्रक्रिया पूरी तरह रुक गई।
2017: गोरकेला समिति ने नया ड्राफ्ट तैयार किया। विशेषज्ञों का मानना था कि यह ड्राफ्ट विधिसम्मत और विवाद-रहित था। बावजूद इसके, इसे लागू नहीं किया गया।
2016–2025: करीब 1 लाख से अधिक कर्मचारी बिना पदोन्नति के ही सेवानिवृत्त हो गए। सरकार ने क्रमोन्नति और समयमान वेतनमान देकर वेतन लाभ देने की कोशिश की, मगर वास्तविक प्रमोशन रुका रहा।
जून 2025: राज्य सरकार ने नई पदोन्नति नीति लागू की, जिसमें आरक्षण का प्रावधान जोड़ा गया।
जुलाई–अगस्त 2025: सपाक्स संघ ने नई नीति को चुनौती दी। इसके खिलाफ तीन अलग-अलग याचिकाएं हाईकोर्ट में दायर हुईं।
सितंबर 2025 (वर्तमान स्थिति): नई नीति कानूनी विवाद में उलझी हुई है। विशेषज्ञ और कर्मचारी संगठन आरोप लगा रहे हैं कि यदि गोरकेला ड्राफ्ट लागू किया गया होता तो आज यह विवाद खड़ा ही नहीं होता।
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