सार्वजनिक परेड पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त मनाही के बावजूद उदयपुर में फायरिंग-तलवारबाजी के 5 आरोपियों को महिलाओं के वेश में सरे बाज़ार घुमाया!

सुप्रीम कोर्ट की गिरफ्तारी गाइडलाइंस का खुला उल्लंघन: सबसे महत्वपूर्ण गाइडलाइन यह है कि गिरफ्तार व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में सार्वजनिक प्रदर्शन या परेड के अधीन नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि ऐसा करना संवैधानिक गरिमा, विशेष रूप से अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
आरोपियों को महिलाओं के कपड़े पहनाए गए और गले में तख्तियां लटकाकर घटनास्थल से पैदल जुलूस निकाला गया। तख्तियों पर  "मैं समाज पर बोझ हूं, " मैं अपराधी हूँ " आदि अलग अलग स्लोगन लिखे थे।
आरोपियों को महिलाओं के कपड़े पहनाए गए और गले में तख्तियां लटकाकर घटनास्थल से पैदल जुलूस निकाला गया। तख्तियों पर "मैं समाज पर बोझ हूं, " मैं अपराधी हूँ " आदि अलग अलग स्लोगन लिखे थे।सोशल मीडिया
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उदयपुर- राजस्थान के उदयपुर में हाथीपोल थाना पुलिस की एक कार्रवाई ने एक नई बहस छेड़ दी है । आपसी रंजिश में तलवारबाजी और अवैध फायरिंग के पांच कुख्यात आरोपियों को गिरफ्तार कर शनिवार को शहर में महिलाओं के कपड़े पहनाकर और अपमानजनक तख्तियां लटकाकर बाजार में जुलूस निकाला गया। पुलिस का यह कृत्य भले ही अपराधियों में खौफ पैदा करने का तरीका होना बताया जाता है लेकिन कानूनी विशेषज्ञ और मानवाधिकार संगठन ने इस प्रकार की परेडिंग को सुप्रीम कोर्ट की डी.के. बसु गाइडलाइंस का स्पष्ट उल्लंघन करार देते हैं। यह घटना 1 नवंबर को घटी, जब जुलूस की वायरल वीडियो ने सोशल मीडिया पर बहस छेड़ दी।

घटना की जड़ें 2 अक्टूबर की रात में हैं, जब महावत वाड़ी निवासी मोहम्मद नाजिब अपने दोस्त मलिक हुसैन के साथ राजदर्शन होटल के बाहर दूध लेने गया था। अचानक बाइक पर सवार शोएब और उसके साथियों ने उनकी बाइक रोकी और गाली-गलौज शुरू कर दी। आरोप है कि शोएब ने नाजिब पर तलवार से हमला किया, जबकि एक अन्य आरोपी ने अवैध पिस्टल से हवाई फायरिंग की। तलवार की धार कम होने से नाजिब को गंभीर आंतरिक चोटें आईं। पीड़ित ने पुलिस को बताया कि यह हमला उसके दोस्त मलिक हुसैन और आरोपी शाहिल व शोएब की पुरानी रंजिश का नतीजा था। अगले दिन 3 अक्टूबर को नाजिब ने हाथीपोल थाने में मामला दर्ज कराया, जिसके बाद पुलिस ने छापेमारी शुरू की।

उदयपुर जैसे मामलों में इनका उल्लंघन होने पर तत्काल शिकायत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या उच्च न्यायालय में की जा सकती है, जहां मुआवजा और विभागीय जांच का प्रावधान है।
उदयपुर जैसे मामलों में इनका उल्लंघन होने पर तत्काल शिकायत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या उच्च न्यायालय में की जा सकती है, जहां मुआवजा और विभागीय जांच का प्रावधान है।

पुलिस को गुप्त सूचना मिली कि आरोपी मोहम्मद राहिल, दानिश उर्फ आतंक सिलावट, मोहम्मद नदीम उर्फ निंदोडिया, माजिद मच्छी (हिस्ट्रीशीटर) और शाकिर टैया शहर छोड़ने की फिराक में हैं। पुलिस का दावा है कि खोजबीन के दौरान वे महिलाओं के वेश में फरार होने की योजना बना रहे थे। लगातार दबिश देकर पांचों को दबोच लिया गया। अदालत में पेशी के बाद रिमांड पर लेकर पुलिस ने विवादास्पद कदम उठाया। आरोपियों को महिलाओं के कपड़े पहनाए गए और गले में तख्तियां लटकाकर घटनास्थल से पैदल जुलूस निकाला गया। तख्तियों पर "मैं समाज पर बोझ हूं, " मैं अपराधी हूँ " आदि अलग अलग स्लोगन लिखे थे, स्थानीय लोग इस दृश्य को देखकर आश्चर्यचकित रह गए, जबकि वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो गया।

पुलिस का दावा है कि ये आरोपी महिलाओं के भेष में भागने की साजिश रच रहे थे। इन्हें उसी वेश में घुमाकर अपराधियों में खौफ पैदा किया, ताकि समाज को संदेश जाए कि अपराध का अंजाम कड़वा होता है। पुलिस का मानना है कि इससे अपराध दर में कमी आएगी। हालांकि, यह दावा कानूनी रूप से विवादित है।

इस घटना ने राजस्थान में पुलिस की 'परेड संस्कृति' पर फिर सवाल खड़े कर दिए हैं। पिछले एक वर्ष में राज्य में कई ऐसी घटनाएं दर्ज हुई हैं, लेकिन कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई। आरोपियों को महिलाओं के वेश में घुमाने की मानसिकता को फेमिनिस्ट विचारक पितृसत्तात्मक सोच का प्रतीक बताते हुए निंदा करते हैं। एडवोकेट अनीता वर्मा के अनुसार इस गाइडलाइंस का उल्लंघन होने पर आरोपी को मुआवजा और पुलिस अधिकारियों पर विभागीय जांच का प्रावधान है। एनएचआरसी ने पहले भी ऐसी परेडों पर नोटिस जारी किए हैं।

नाम न जाहिर करने की शर्त पर एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं, "हार्डकोर और आदतन अपराधी समाज के लिए नासूर की तरह होते हैं। इन्हें कितनी भी कठोर सजा क्यों न मिल जाए, जेल से बाहर आते ही ये फिर वही आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं और आमजन का जीना हराम कर देते हैं। इनकी बेधड़क हरकतें देखकर अन्य अपराधी भी हौसले बुलंद कर लेते हैं, जिससे अपराध का चक्र तेजी से फैलता है। ऐसे में, समाज को एक मजबूत संदेश देने के उद्देश्य से ही इन्हें सार्वजनिक रूप से घुमाया जाता है। इसका मकसद यह है कि ये खुद शर्मिंदगी महसूस करें, आम नागरिकों में पुलिस और कानून के प्रति विश्वास बढ़े, तथा अपराधियों के दिल में खौफ पैदा हो। राजस्थान पुलिस का ध्येय वाक्य 'अपराधियों में भय, आम आदमी में विश्वास' इसी भावना की पालना करता है।"

सुप्रीम कोर्ट की 1997 की डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के ऐतिहासिक फैसले में 11 अनिवार्य गाइडलाइंस जारी की गईं, जिनमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "गिरफ्तार व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में सार्वजनिक प्रदर्शन या परेड के अधीन नहीं किया जा सकता।" यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा के लिए है। कोर्ट ने जोर दिया कि पुलिस सजा नहीं दे सकती, केवल अदालत कर सकती है।

डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के ऐतिहासिक फैसले में 11 अनिवार्य गाइडलाइंस

सुप्रीम कोर्ट की डी.के. बसु गाइडलाइंस, जो 1997 में डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले में जारी की गईं, गिरफ्तारी और हिरासत के दौरान पुलिस की मनमानी को रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम हैं। इन गाइडलाइंस को सभी राज्यों की पुलिस के लिए अनिवार्य बनाया गया है, ताकि गिरफ्तार व्यक्ति की गरिमा और अधिकारों की रक्षा हो सके। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा है कि गिरफ्तारी के समय पुलिस को एक लिखित मेमो तैयार करना चाहिए, जिसमें गिरफ्तारी का समय, स्थान और कारण दर्ज हों। इस मेमो पर स्थानीय गवाहों और आरोपी के परिवार के किसी सदस्य के हस्ताक्षर अनिवार्य हैं, जिससे पारदर्शिता सुनिश्चित होती है।

इन दिशानिर्देशों के अनुसार, गिरफ्तारी के 12 घंटे के भीतर आरोपी के परिवार या किसी मित्र को लिखित रूप से सूचना दी जानी चाहिए, ताकि वे आरोपी की स्थिति जान सकें। आरोपी को वकील से मिलने का पूर्ण अधिकार है, और पुलिस इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं डाल सकती। मेडिकल जांच का प्रावधान भी महत्वपूर्ण है, जहां हर 12 घंटे में एक मजिस्ट्रेट द्वारा मान्यता प्राप्त डॉक्टर से जांच कराई जानी चाहिए, खासकर अगर कोई शिकायत हो। गिरफ्तारी की सूचना तुरंत जिला कंट्रोल रूम में दर्ज करानी होती है, और गिरफ्तार करने वाले पुलिसकर्मी को अपना नाम और रैंक का बैज दिखाना अनिवार्य है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया है कि गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के अंदर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाए, जैसा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 57 में वर्णित है। गिरफ्तारी मेमो और मेडिकल रिपोर्ट की प्रतियां आरोपी के परिवार को मुफ्त में उपलब्ध कराई जानी चाहिए। सभी दस्तावेज पुलिस स्टेशन की डायरी में दर्ज होने चाहिए, और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा सेशन जज को नियमित रिपोर्ट भेजी जानी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण गाइडलाइन यह है कि गिरफ्तार व्यक्ति को किसी भी परिस्थिति में सार्वजनिक प्रदर्शन या परेड के अधीन नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि ऐसा करना संवैधानिक गरिमा, विशेष रूप से अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।

ये गाइडलाइंस बाद के फैसलों में भी मजबूती से दोहराई गई हैं। उदाहरण के लिए, 2012 के सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में अपमानजनक व्यवहार को मानसिक यातना माना गया, जबकि 2021 के पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के मामले में पुलिस परेड पर जुर्माना लगाया गया। 2023 के परमवीर सिंह सैनी मामले में बॉडी कैमरा के उपयोग को अनिवार्य कर दिया गया और परेड को अनुशासनहीनता करार दिया। इन दिशानिर्देशों का उद्देश्य पुलिस को सुधारक बनाने के बजाय कानून का पालनकर्ता बनाना है, क्योंकि सजा केवल अदालत ही दे सकती है, पुलिस नहीं। उदयपुर जैसे मामलों में इनका उल्लंघन होने पर तत्काल शिकायत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या उच्च न्यायालय में की जा सकती है, जहां मुआवजा और विभागीय जांच का प्रावधान है। यह सुनिश्चित करता है कि न्याय व्यवस्था में अपराधी भी मानवीय गरिमा के हकदार हैं।

आरोपियों को महिलाओं के कपड़े पहनाए गए और गले में तख्तियां लटकाकर घटनास्थल से पैदल जुलूस निकाला गया। तख्तियों पर  "मैं समाज पर बोझ हूं, " मैं अपराधी हूँ " आदि अलग अलग स्लोगन लिखे थे।
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आरोपियों को महिलाओं के कपड़े पहनाए गए और गले में तख्तियां लटकाकर घटनास्थल से पैदल जुलूस निकाला गया। तख्तियों पर  "मैं समाज पर बोझ हूं, " मैं अपराधी हूँ " आदि अलग अलग स्लोगन लिखे थे।
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