दलितों की तुलना पशुओं से, 'हैंडीकैप' और 'बैसाखी' जैसे शब्दों का इस्तेमाल: सुप्रीम कोर्ट की नई रिपोर्ट में उजागर हुए 75 सालों में 'जाति' पर न्यायिक नजरिए के चौंकाने वाले बदलाव!

जाति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग की हालिया रिपोर्ट में जानिये क्या है खास
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग (सीआरपी) ने 'ज्यूडिशियल कंसेप्शंस ऑफ कास्ट' शीर्षक से एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जारी की है, जो भारत के न्यायिक विमर्श में जाति व्यवस्था, उत्पीड़ित जातियों और जातिगत अन्याय के समाधान पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है।
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग (सीआरपी) ने 'ज्यूडिशियल कंसेप्शंस ऑफ कास्ट' शीर्षक से एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जारी की है, जो भारत के न्यायिक विमर्श में जाति व्यवस्था, उत्पीड़ित जातियों और जातिगत अन्याय के समाधान पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है।
Published on

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की शोध शाखा सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग (सीआरपी) ने जाति व्यवस्था, दलितों और पिछड़े वर्गों के प्रति न्यायपालिका की भाषा और सोच पर एक ऐतिहासिक और विस्तृत रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के उन महत्वपूर्ण फैसलों का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है जो पांच या अधिक न्यायाधीशों वाली संविधान पीठों द्वारा दिए गए थे। 'जुडिशियल कंसेप्शन्स ऑफ कास्ट' शीर्षक वाली यह रिपोर्ट तीन दिन पहले जारी हुई है और इसका मुख्य उद्देश्य न्यायाधीशों, कानूनी शोधार्थियों, नीति निर्माताओं और आम जनता को जाति के मुद्दे पर संवेदनशील बनाना तथा समावेशी एवं गरिमामय भाषा के इस्तेमाल को बढ़ावा देना है।

नवंबर 2025 में प्रकाशित यह रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के फैसलों पर केंद्रित है, जिसमें सकारात्मक कार्रवाई, व्यक्तिगत कानून और अत्याचार संबंधी मामलों को शामिल किया गया है। रिपोर्ट के लेखक डॉ. अनुराग भास्कर (सीआरपी के निदेशक), डॉ. फराह अहमद (मेलबर्न लॉ स्कूल की प्रोफेसर), भीमराज मुथु (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के डॉक्टरल रिसर्चर) और शुभम कुमार (सीआरपी के कंसल्टेंट) हैं। यह रिपोर्ट न्यायपालिका, कानूनी विद्वानों, नीति निर्माताओं और नागरिक समाज को जाति संबंधी न्यायिक भाषा के प्रति संवेदनशील बनाने का उद्देश्य रखती है, ताकि संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप समावेशी विमर्श को बढ़ावा मिले।

रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि पुराने फैसलों में दलित समुदाय के लिए 'हैंडीकैप' (विकलांगता) और 'बैसाखी' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया और उनकी तुलना जानवरों से भी की गई। 1964 के टी. देवदासन मामले में आरक्षण की व्याख्या करने के लिए 'रेस हॉर्स' और 'ऑर्डिनरी हॉर्स' के रूपक का इस्तेमाल किया गया। वहीं 1992 के इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण को 'करियर भर के लिए बैसाखी' कहा गया। ये शब्द संवैधानिक गरिमा के अनुरूप नहीं माने गए हैं। हालांकि, रिपोर्ट यह भी बताती है कि समय के साथ न्यायपालिका की भाषा में सुधार आया है। नए फैसलों में ऐतिहासिक भेदभाव को स्वीकार करते हुए दलितों के अधिकारों और गरिमा पर जोर दिया गया है।

तीन प्रमुख खंडों में विभाजित है रिपोर्ट

यह रिपोर्ट तीन प्रमुख खंडों में बंटी हुई है। पहला खंड Judicial Discourse on the Caste System 'जुडिशियल डिस्कोर्स ऑन द कास्ट सिस्टम' यानी जाति व्यवस्था पर न्यायिक विमर्श पर केंद्रित है। इसके अंतर्गत वर्ण व्यवस्था, जाति और व्यवसाय के बीच संबंध, पवित्र-अपवित्र की अवधारणाएं, जाति व्यवस्था के कथित रूप से 'शुभ' मूल, जाति को एक संघ के रूप में देखना और विभिन्न धर्मों में जाति की मौजूदगी जैसे उप-विषय शामिल हैं। रिपोर्ट में पाया गया है कि अदालत की जाति को लेकर समझ में एक स्पष्ट असमंजस देखने को मिलता है।

कुछ फैसलों ने जाति को एक कठोर, वंशानुगत पदानुक्रम के रूप में स्वीकार किया है जो पवित्रता और प्रदूषण की धारणाओं पर आधारित है। वहीं दूसरी ओर, कुछ फैसलों ने इसे मूल रूप से एक सौम्य व्यावसायिक व्यवस्था या एक स्वायत्त समूह के रूप में चित्रित किया है। ये भिन्न (divergent) दृष्टिकोण समाजशास्त्रीय वास्तविकताओं और धार्मिक ग्रंथों में वर्णित जाति के बीच एक अनसुलझे तनाव को उजागर करते हैं।

रिपोर्ट में जस्टिस ओ. चिन्नप्पा रेड्डी के उस बयान का भी उल्लेख है जहां उन्होंने कहा था कि दलितों और पिछड़ों को "सहायता की आवश्यकता है, सुविधा की आवश्यकता है, लॉन्चिंग की आवश्यकता है... उनकी जरूरतें उनकी मांगें हैं। मांगें अधिकार की हैं, दान की नहीं।"

गैर-हिंदू धर्मों में जाति पर मिलते-जुलते विचार

रिपोर्ट के अनुसार, न्यायपालिका की जाति को लेकर समझ में एक मौलिक तनाव देखने को मिलता है: कुछ इसे हिंदू धर्म तक सीमित एक धार्मिक रचना मानते हैं, जबकि अन्य इसे एक सामाजिक संस्था के रूप में पहचानते हैं जो धार्मिक सीमाओं से परे है। जस्टिस कुलदीप सिंह के इंदिरा साहनी मामले में दिए गए अल्पमत के फैसले ने जाति की उत्पत्ति हिंदू धर्म में ही मानी, इसे हिंदू रूढ़िवाद के लिए 'सुई जेनेरिस' बताया और ऋग्वेद तथा मनुस्मृति को इसके आधारभूत ग्रंथ बताए।

इसके विपरीत, जस्टिस चिन्नप्पा रेड्डी, जस्टिस रत्नवेल पांडियन और मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालकृष्णन ने एक अलग दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने माना कि हालांकि जाति की उत्पत्ति हिंदू धार्मिक विचारधारा में हुई होगी, लेकिन यह लंबे समय से अपने धार्मिक मूल से आगे बढ़कर गैर-हिंदू धर्मों में भी एक व्यापक सामाजिक-आर्थिक संगठन का तरीका बन गई है। उन्होंने दस्तावेजीकरण किया कि कैसे मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों के बीच जाति जैसी पदानुक्रम व्यवस्थाएं मौजूद हैं, जो व्यावसायिक और क्षेत्रीय समूहों के माध्यम से प्रकट होती हैं।

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग (सीआरपी) ने 'ज्यूडिशियल कंसेप्शंस ऑफ कास्ट' शीर्षक से एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जारी की है, जो भारत के न्यायिक विमर्श में जाति व्यवस्था, उत्पीड़ित जातियों और जातिगत अन्याय के समाधान पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है।
16% दलित आबादी लेकिन जीरो नेटवर्थ! बाबा साहब के SC-बौद्ध बैंक से अब स्वावलंबन का सपना होगा साकार

दलित समुदाय के प्रति न्यायिक भाषा में बदलाव

रिपोर्ट का दूसरा बड़ा खंड Judicial Discourse on Oppressed Class People 'जुडिशियल डिस्कोर्स ऑन ओप्रेस्ड कास्ट पीपल' यानी दलित और शोषित जातियों के लोगों के बारे में न्यायिक भाषा पर केंद्रित है। इस खंड में बताया गया है कि कैसे न्यायिक भाषा दलित समुदायों की गरिमा की पुष्टि करने और उन्हें कलंकित करने वाले रूपकों और विवरणों के बीच झूलती रही है। पुराने फैसलों में दलितों के लिए 'हैंडीकैप' (विकलांगता) या 'बैसाखी' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया और उनकी तुलना जानवरों से भी की गई।

उदाहरण के लिए, टी. देवदासन मामले (1964) में जस्टिस के. सुब्बा राव ने आरक्षण की व्याख्या करने के लिए 'रेस हॉर्स' और 'ऑर्डिनरी हॉर्स' के रूपक का इस्तेमाल किया। इंदिरा साहनी मामले (1992) में जस्टिस बी.पी. जीवन रेड्डी ने आरक्षण को 'करियर भर के लिए बैसाखी' कहा। रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसी भाषा संवैधानिक गरिमा के अनुरूप नहीं है और यह संरचनात्मक असमानता के बजाय व्यक्तिगत कमी के नजरिए को दर्शाती है।

हालांकि रिपोर्ट यह भी स्वीकार करती है कि समय के साथ अदालत ने ऐसी भाषा से दूरी बनाई है और ऐतिहासिक भेदभाव, योग्यता की सामाजिक रूप से निर्मित प्रकृति और जातिगत पूर्वाग्रह को खत्म करने की संवैधानिक मांग को पहचानने वाली बातें कही हैं। रिपोर्ट में जस्टिस ओ. चिन्नप्पा रेड्डी के उस बयान का भी उल्लेख है जहां उन्होंने कहा था कि दलितों और पिछड़ों को "सहायता की आवश्यकता है, सुविधा की आवश्यकता है, लॉन्चिंग की आवश्यकता है... उनकी जरूरतें उनकी मांगें हैं। मांगें अधिकार की हैं, दान की नहीं।"

राज्य मद्रास बनाम चंपकम दोराईराजन (1951) और टी. देवदासन (1964) जैसे शुरुआती फैसलों में आरक्षण को 'योग्य' उम्मीदवारों के खिलाफ भेदभाव और दक्षता के लिए खतरा बताया गया। हालांकि, बाद के फैसलों, जैसे एन.एम. थॉमस (1976) और इंदिरा साहनी (1992) में अदालत ने आरक्षण को संवैधानिक मरम्मत के एक जरिए और सत्ता में भागीदारी बढ़ाने के साधन के रूप में देखा।

योग्यता और दक्षता पर सवाल

रिपोर्ट के अनुसार, न्यायिक फैसलों में दलितों की 'योग्यता' और 'दक्षता' पर सवाल उठाए गए और आरक्षण को प्रशासनिक कुशलता के लिए खतरा बताया गया। एम.आर. बालाजी मामले (1963) में अदालत ने कहा कि आरक्षण से "मानकों में कुछ कमी आना अनिवार्य है"।

एन.एम. थॉमस मामले (1976) में जस्टिस एच.आर. खन्ना ने चेतावनी दी कि आरक्षण "योग्यता की सर्वोच्चता और सेवाओ की दक्षता के आदर्शों के लिए स्पष्ट रूप से हानिकारक होगा।" इसी मामले में मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे ने कहा कि "प्रशासन की दक्षता इतनी सर्वोपरि है कि दक्षता की कीमत पर कोई आरक्षण करना अविवेकपूर्ण और अनुमति योग्य नहीं होगा।"

रिपोर्ट इन तर्कों को खारिज करती है और कहती है कि इस तरह की भाषा ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को सक्षम मानने के बजाय उन्हें कमजोर दर्शाती है। हालांकि बाद के फैसलों में अदालत ने इस नजरिए को बदला। इंदिरा साहनी मामले में जस्टिस बी.पी. जीवन रेड्डी ने माना कि "यह नकारा नहीं जा सकता कि प्रकृति ने पिछड़े वर्गों के सदस्यों को भी अन्य वर्गों के सदस्यों के समान ही योग्यता प्रदान की है; जरूरत केवल इसे साबित करने के अवसर की है।"

जातिगत अन्याय के समाधान पर न्यायिक विमर्श

रिपोर्ट का तीसरा बड़ा खंड Judicial Discourse on Remedying Caste-Based Injustice 'जुडिशियल डिस्कोर्स ऑन रेमेडिंग कास्ट-बेस्ड इनजस्टिस' यानी जातिगत अन्याय के समाधान पर न्यायिक विमर्श को समर्पित है। इसमें शिक्षा, आरक्षण, गरीबी और सामाजिक-आर्थिक विकास जैसे समाधानों पर अदालत की राय शामिल है। रिपोर्ट बताती है कि कुछ फैसलों में कहा गया कि शिक्षा से जाति का उन्मोचन संभव है। अशोक कुमार ठाकुर मामले (2008) में जस्टिस दलवीर भंडारी ने कहा, "पहली जगह जहां जाति का उन्मूलन किया जा सकता है वह कक्षा है... दूसरे शब्दों में, यदि आप निचली जाति से हैं लेकिन अच्छी योग्यता रखते हैं, तो शायद ही कोई आपकी जाति की परवाह करेगा।" लेकिन रिपोर्ट इस दृष्टिकोण को आदर्शवादी लेकिन अपर्याप्त बताती है, क्योंकि यह शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक सेवाओं के भीतर जातिगत पूर्वाग्रहों की निरंतर मौजूदगी के सबूतों को नजरअंदाज करता है।

आरक्षण को लेकर न्यायपालिका का रुख समय-समय पर बदला है। राज्य मद्रास बनाम चंपकम दोराईराजन (1951) और टी. देवदासन (1964) जैसे शुरुआती फैसलों में आरक्षण को 'योग्य' उम्मीदवारों के खिलाफ भेदभाव और दक्षता के लिए खतरा बताया गया। हालांकि, बाद के फैसलों, जैसे एन.एम. थॉमस (1976) और इंदिरा साहनी (1992) में अदालत ने आरक्षण को संवैधानिक मरम्मत के एक जरिए और सत्ता में भागीदारी बढ़ाने के साधन के रूप में देखा।

रिपोर्ट में एक महत्वपूर्ण बात यह भी उजागर हुई है कि कुछ फैसलों में पिछड़ेपन का मुख्य कारण जाति नहीं बल्कि गरीबी को बताया गया। एम.आर. बालाजी (1963) में अदालत ने कहा कि "सामाजिक पिछड़ापन अंतिम विश्लेषण में बहुत हद तक गरीबी का परिणाम है।" के.सी. वासंती कुमार (1985) में जस्टिस डी.ए. देसाई ने कहा कि "एक समय आ गया है जब जाति के लेबल को नजरअंदाज करते हुए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए एकमात्र मानदंड आर्थिक पिछड़ापन है।" रिपोर्ट इन दावों को समाजशास्त्रीय तथ्यों से मेल नहीं खाने वाला बताती है और कहती है कि आर्थिक स्थिति सुधरने के बाद भी जातिगत भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार बना रहता है।

अपने निष्कर्ष में यह रिपोर्ट दर्शाती है कि न्यायपालिका का जाति संबंधी विमर्श एकसमान या स्थिर नहीं रहा है, बल्कि इसमें कई बदलाव आए हैं और विभिन्न दृष्टिकोण शामिल रहे हैं। रिपोर्ट का सुझाव है कि भविष्य के न्यायिक फैसलों में जाति के मुद्दे पर और अधिक संवेदनशील, ऐतिहासिक रूप से सूचित और संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप भाषा का इस्तेमाल होना चाहिए। एक सोचपरक और चिंतनशील दृष्टिकोण न्यायपालिका को जाति की अधिक सूक्ष्म समझ विकसित करने, कमी आधारित विवरणों का सहारा लिए बिना संरचनात्मक नुकसान को पहचानने और शोषित समुदायों की एजेंसी और गरिमा की पुष्टि करने में सक्षम बनाएगा।

गरिमा की पुष्टि करने वाली, संरचनात्मक अन्याय को पहचानने वाली और समावेशी विकास का समर्थन करने वाली भाषा को अपनाकर अदालत संविधान की परिवर्तनकारी परियोजना को और मजबूत कर सकती है तथा एक अधिक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज में योगदान दे सकती है। रिपोर्ट के आभार खंड में पूर्व मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और सचिव जनरल शेखर सी. मुंगटे के साथ मेलबर्न यूनिवर्सिटी के सहयोग का उल्लेख है।

Summary

रिपोर्ट में 1950 से 2025 तक के संविधान पीठ फैसलों का अध्ययन किया गया, जो सकारात्मक कार्रवाई, जातिगत अत्याचारों के कानूनों और व्यक्तिगत कानूनों में जाति की व्याख्या से जुड़े हैं। रिपोर्ट का उद्देश्य किसी न्यायाधीश की आलोचना नहीं, बल्कि विमर्श का संवैधानिक-सामाजिक संदर्भ में विश्लेषण है।

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग (सीआरपी) ने 'ज्यूडिशियल कंसेप्शंस ऑफ कास्ट' शीर्षक से एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जारी की है, जो भारत के न्यायिक विमर्श में जाति व्यवस्था, उत्पीड़ित जातियों और जातिगत अन्याय के समाधान पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है।
मालवणी में 'वोटों के ध्रुवीकरण' के लिए तोड़े गए हिंदुओं और दलितों के घर? मुंबई कांग्रेस ने भाजपा पर लगाए गंभीर आरोप
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग (सीआरपी) ने 'ज्यूडिशियल कंसेप्शंस ऑफ कास्ट' शीर्षक से एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जारी की है, जो भारत के न्यायिक विमर्श में जाति व्यवस्था, उत्पीड़ित जातियों और जातिगत अन्याय के समाधान पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है।
लखनऊ: बीबीएयू में दलित शोध छात्र बसंत कन्नौजिया का धरना जारी, विवि प्रशासन अब समर्थक छात्रों को भी दे रहा चेतावनी!

द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.

The Mooknayak - आवाज़ आपकी
www.themooknayak.com