
— ✍️ इप्सा शताक्षी
मानवाधिकार की अवधारणा का विकास एक लंबी प्रक्रिया है, जिसकी शुरुआत 1215 के मैग्ना कार्टा से मानी जाती है,लेकिन इसकी आधुनिक स्थापना 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को अपनाने से हुई थी। मानवाधिकार दिवस हर साल 10 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय रूप में मनाया जाता है। यह उस दिन की याद में मनाया जाता है जब 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को अपनाया था।
मानवाधिकार दिवस की औपचारिक शुरुआत 1950 में हुई, जब महासभा ने प्रस्ताव 423 (V) पारित कर सभी राज्यों और इच्छुक संगठनों को प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस के रूप में अपनाने के लिए आमंत्रित किया। जब महासभा ने घोषणा को अपनाया, तो इसे "सभी लोगों और सभी राष्ट्रों के लिए उपलब्धि का एक सामान्य मानक" घोषित किया गया,जिसके लिए व्यक्तियों और समाजों को "राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रगतिशील उपायों के माध्यम से प्रयास करना चाहिए, ताकि उनकी सार्वभौमिक और प्रभावी मान्यता और पालन सुनिश्चित हो सके"।
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणापत्र उन मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं की एक विस्तृत श्रृंखला निर्धारित करता है जिनके हकदार हर मनुष्य हैं। यह राष्ट्रीयता, निवास स्थान, लिंग, राष्ट्रीय या जातीय मूल, धर्म, भाषा, या किसी अन्य स्थिति के आधार पर भेदभाव किए बिना, हर व्यक्ति के अधिकारों की गारंटी देता है।
भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) का गठन मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के तहत किया गया था। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) की स्थापना 12 अक्टूबर 1993 को मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के तहत हुई थी। यह एक स्वतंत्र वैधानिक निकाय है जिसका उद्देश्य मानवाधिकारों की रक्षा और संवर्धन करना है।
मानवाधिकार दिवस की हर वर्ष की एक थीम होती है और इस वर्ष की थीम है - हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरतें अर्थात रोज का खाना-पीना सहित अन्य जरूरतें ।
पर आए दिन हम फिलिस्तीन की तस्वीरों में वहां के लोगो यहां तक कि छोटे- छोटे बच्चों को भोजन,पानी,घर सहित तमाम दैनिक जरूरतों से महरूम होते देख रहें हैं। कारण है इजराइल का हमला। विश्व भर में या तो युद्ध या फिर आर्थिक परेशानी के कारण ऐसे दृश्य देखने को मिल जाएगें।
अगर हम इसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखे तो ऐसी कई जगहें मिलेगी जहां इन जरूरतों में कटौती होते या हनन होते देखने को मिलेगा।
पर कुछ स्थान ऐसा भी है जहां न तो युद्ध चल रहा है न ही आर्थिक कमी, बस भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे और अपनी नैतिकता खो चुके होने के कारण भी मानवाधिकार का हनन देखने को मिल जाएगा। इसमें अव्वल स्थान पर हम जेल को देख सकतें हैं जहां मानवाधिकार का खुला उल्लंघन होता है।
जेल में बंद कुछ राजनीतिक बंदी व सामान्य बंदी से हुई बातचीत के जरिए हम इसे समझ सकते हैं-
पिछले साढ़े तीन साल से झारखंड बिहार के विभिन्न जेलों में रखे जा चुके और वर्तमान में पटना, बिहार के आदर्श केन्द्रीय कारा में बतौर विचाराधीन बंदी कैद मानवाधिकार व जनपक्षीय रिपोर्टिंग के लिए जाने जाने वाले पत्रकार रूपेश कुमार सिंह बताते हैं, "आदर्श केन्द्रीय कारा में मानवाधिकार का खुला उल्लंघन होता है। यहां न तो बंदियों को जेल मैन्युअल के अनुसार भोजन मिलता है न ही साबुन, दातुन या टूथपेस्ट सहित अन्य रोजमर्रा के सामान ही।" वह आगे बताते हैं कि वह गोलघर (हाई सिक्यूरिटी सेल) में रखे गए हैं, जहाँ की छोटी-छोटी डिग्रियों (कमरे) में तीन-तीन लोग एक साथ रखे गए थे और खाना जो मिल रहा था वो बिल्कुल खाने लायक न था पर, पिछले 17 नवंबर को जब माओवादी बंदी के रूप में बंद 73 वर्षीय प्रमोद मिश्रा ने जेल प्रशासन को भोजन-स्वास्थ्य संबंधित 12 मांगों के साथ आवेदन दिया, और इस शर्त के साथ दिया कि सुधार न होने पर आमरण अनशन पर जाएंगे। साथ ही रूपेश कुमार सिंह सहित अन्य बंदियों ने भी मांग का समर्थन किया।
तब से खाने में थोड़ा-बहुत सुधार है। और बंदियों को अलग-अलग डिग्रियों में रखा गया। उन्होंनें यह भी बताया कि यहां स्वास्थ्य संबंधित समुचित प्रबंध भी जेल प्रशासन नहीं करवा रहा है। इसके साथ-साथ वहां 100 बंदियों पर नहाने के लिए एक ही नल की व्यवस्था है। और ऐसे में ज्यादातर बंदी लैट्रिन की शीट पर ही बैठकर लैट्रिन के लिए लगे नल से नहाने को मजबूर हैं। उन्होंने आगे बताया कि गोलघर में रोशनदान शुरू से ही है पर, वर्तमान में सारे रोशनदान को प्लास्टर करके बंद किया जा रहा है। ज्ञात हो कि इन कमरों में कोई खिड़की नही है बस सामने ही एक गेट है। यह सोचनीय है कि इस दमघोटू स्थान पर हवा के आवागमन के लिए गेट के अतिरिक्त एक छोटा रोशनदान था, और उसे बंद कर दिए जाने से लैट्रिन की बदबू व अन्य प्रकार की गैसों के नहीं निकल पाने से स्वास्थ्य संबंधित तकलीफ बढ़ेगी। क्या यह मानवाधिकार से खिलवाड़ नहीं है?
और इस जेल प्रशासन की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये कोर्ट आर्डर को भी मानने को तैयार नहीं होते जब तक कि कोर्ट से इन्हें सोकाॅज न किया जाए। चाहे वह
फिजीकल पेशी से संबंधित आदेश हो या बंदियों के स्वास्थ्य संबंधित आदेश।
जेल में परिजन से बात करने के लिए लगभग 5000 बंदियों पर बस तीन ही एसटीडी बूथ हैं, जिसमें से एक खराब ही है। इन मुद्दों के साथ इनमें सुधार के लिए आदर्श केन्द्रीय कारा, बेऊर के हाई सेक्यूरिटी सेल के कुल 6 बंदी इस साल 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस के मौके पर एक दिवसीय भूख हड़ताल पर रहेंगे। जिनमें प्रमोद मिश्रा, रूपेश कुमार सिंह, सुधीर भगत,अभ्यास भुइंया,अनिल यादव,राजेश गुप्ता शामिल हैं। इस बाबत 08 दिसंबर को जेल प्रशासन को बंदी आवेदन पत्र में लिखित आवेदन दे दिया गया।
इसके साथ ही यह भी बताते चले कि अगर कोई बंदी इन अनियमितताओं के खिलाफ आवाज उठाता है तो उसपर जेल की विधि व्यवस्था को बिगाड़ने का आरोप लगाकर दूसरे जेल स्थानांतरित कर दिया जाता है जहां शोषण का नया रूप सामने आता है।
ज्ञात हो कि बिहार के कई जेलों में प्रशासनिक बंदी (जेल स्थानांतरित हुए बंदी) के साथ मारपीट की जाती है। शायद ही कोई बंदी हो जो इससे बच पाता है।
माओवादी बंदी के रूप में बंद लगभग 65 वर्ष के विजय आर्या जिन्हें लोग उनके सरल, सहज स्वभाव के व्यक्ति के रूप में जानते हैं, उन्हें जब आदर्श केन्द्रीय कारा, बेऊर से केन्द्रीय कारा,बक्सर स्थानांतरित किया गया था तब वहां पहुंचते ही उनपर तबतक लाठियां बरसाई गई थीं, जब तक कि वह बिल्कुल बेहाल न हो गए थे। उनके ही शब्दों में --- “30 अगस्त 2024 को सुबह करीब 7 बजे मैं केंद्रीय कारा, बक्सर में प्रवेश किया। वहाँ मुझे जेल के प्रवेश शाखा कार्यालय में सहायक जेलर शिवसागर के समक्ष पेश किया गया। मुझे देखते ही उन्होंने माँ-बहन की गंदी गालियाँ देना शुरू कर दिया। मैं हतप्रभ रह गया कि आखिर जेलर ऐसा बुरा व्यवहार क्यों कर रहे हैं। उन्होंने जेल सिपाही से कहा कि बाहर से दो बीएमपी सिपाहियों को डंडा लेकर बुलाओ। जब वे अंदर आए, तो उन्होंने मुझसे पूछा कि तुमने बेऊर जेल में क्या किया है? मैंने कहा कि मैंने वहाँ कोई गलत काम नहीं किया। हाँ, हमने जेल मैनुअल के अनुसार भोजन न मिलने के कारण अनशन की घोषणा की थी। इस पर वे आग-बबूला हो गए और बीएमपी सिपाही से बोले, ‘इसकी अच्छी तरह से सिकाई करो। फिर जेलर के कार्यालय के एक कोने में ले जाकर एक सिपाही ने मुझे दोनों हाथों से पकड़कर आगे झुका दिया, और दूसरा सिपाही मेरे निजी अंगों और जाँघों पर सैकड़ों लाठियाँ बरसाने लगा। जब वह सिपाही थक गया, तब मुझे फिर जेलर के सामने खड़ा किया गया।
"जेलर ने फिर गंदी गालियाँ दीं, मानो मेरी माँ-बहन बिहार सरकार की गैर-मजरुआ जमीन हो। उन्होंने सिपाहियों को गाली देते हुए कहा, ‘तुम लोग इसको कैसे पीटे हो कि इसके आँखों से आँसू भी नहीं निकले? इसे फिर से पीटो।’ फिर से मुझे झुकाकर 100 से अधिक लाठियाँ मारी गईं। मैं चिल्लाता रहा, लेकिन न मारने वालों को दया आई, न पिटवाने वालों को।"
जब सिपाही हाँफने लगा, तब मुझे फिर जेलर के सामने ले जाया गया। जेलर ने लाल आँखों से देखकर सिपाहियों को गाली दी, ‘तुम लोग कैसे पीटे हो कि यह अब भी इतना टाइट खड़ा है? इसे इतना पीटो कि सेल तक लंगड़ाते हुए जाए।’ फिर मुझे उसी कोने में ले जाया गया। इस बार पकड़ने वाला सिपाही लाठी लेकर पीटने लगा, और दूसरा सिपाही मुझे पेट के बल लिटाकर मेरी पीठ पर बैठ गया। मेरे पैरों को ऊपर उठाकर पकड़ा गया, और तलवों पर अनगिनत लाठियाँ मारी गईं। जब वह थक गया, तब मुझे फिर उस जल्लाद जेलर के सामने खड़ा किया गया, जबकि मैं ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था।
शिवसागर जेलर ने गालियाँ देते हुए कहा, ‘कान पकड़कर 20 बार उठक-बैठक करो और कहो कि अब किसी जेल में अधिकारियों के खिलाफ आंदोलन/अनशन नहीं करूँगा।’ जब मैंने इनकार किया, तो उन्होंने सिपाहियों को आदेश दिया कि दोनों तरफ से ताबड़तोड़ लाठियाँ बरसाओ, जब तक यह बेहोश होकर न गिर पड़े। मजबूरन मुझे उठक-बैठक करनी पड़ी, और तब तक करता रहा, जब तक मैं गिर नहीं पड़ा। इसके बाद जेलर ने मुझे अंडा सेल में भेजने का निर्देश दिया।
कार्यालय से निकलकर गेट पर पहुँचा, तो दोबारा तलाशी के बाद अपने बिखरे सामान को समेटने लगा। तभी एक गेट वार्डर ने पीछे से अचानक 15-20 लाठियाँ अंधाधुंध बरसा दीं। वह शायद और मारता, लेकिन उसके साथी सिपाही ने उसकी लाठी पकड़ ली और बोला, ‘छोड़ दो, बूढ़ा आदमी है।’ मेरी उम्र 64 वर्ष है। मैं लंगड़ाते हुए गुमटी और सेल तक पहुँचा।
अंडा सेल में जाने के बाद शाम को मैं डॉक्टर के पास जाना चाहता था और दर्द की दवा लेना चाहता था, लेकिन मुझे अस्पताल नहीं जाने दिया गया। गर्म पानी माँगा, तो वह भी नहीं दिया गया। उल्टे सिपाही ने गाली दी। मैं 24 घंटे तक डर से छटपटाता रहा। रात में न पीठ के बल चित सो सका, न चुपचाप बैठ सका। तीन दिनों तक बैठकर शौच करना कष्टकारी था। दूसरे दिन शाम को जेल अस्पताल में हालिया करवाने के लिए ले जाया गया, लेकिन दवा नहीं मिली। सेल में मुझे एक घड़ा, एक थाली और एक कंबल दिया गया। मैंने एक कटोरा और गिलास माँगा, लेकिन वह नहीं मिला। किसी भी बंदी को वहाँ कटोरा-गिलास नहीं दिया जाता। अगर आप दूसरी जेल से लेकर आए हों, तो उसे गेट या गुमटी पर छीन लिया जाता।"
( 21जून 2025 को जनचौक में प्रकाशित)।
73 वर्ष के प्रमोद मिश्रा पर भी लाठियां बरसाई गईं थी जब उन्हें बेऊर जेल से भागलपुर कैम्प जेल भेजा गया था। इसके विरोध में उन्होंने आमरण अनशन कर दिया था कि जब तक एक भी बंदी के ऊपर लाठी चलाई जाएगी वह अनशन पर रहेंगे। फलस्वरूप वहां उस वक्त किसी भी बंदी की पिटाई पर रोक लगाई गई थी।
रूपेश कुमार सिंह भी जब भागलपुर के शहीद जुब्बा सहनी केंद्रीय कारा में थे तब उनके सहबंदियों के ऊपर भी लाठियाँ चलाई गई थी, जिसमें गरीब-कमजोर लोगो से लेकर ऐसे लोग भी शामिल थे जो पूर्व में फौज में रह चुके और किसी कारणवश जेल में थे। और तब रूपेश ने भी इसपर रोक लगाने की माँग जेल प्रशासन से की थी पर, कोई फायदा न होने पर इन्होंने 07 मई 2024 को भागलपुर जिलाधिकारी को जेल के अंदर होने वाले इन अत्याचार को लेकर एक आवेदन भेजा था। जिसकी प्रतिलिपि बिहार के मुख्यमंत्री,गृह सचिव, जेल आईजी, राज्य मानवाधिकार आयोग, मुख्य न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय सहित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेजा था। जिसके फलस्वरूप जेल प्रशासन पर दवाब बना और उसके बाद इनसब पर रोक लगा। यह खबर लोकल मीडिया पर भी आयी थी।
इसी शहीद जुब्बा सहनी केंद्रीय कारा में बंद रहे संतोष राय जो पूर्व में फौजी रहे थे और वर्तमान में अपना एक यू ट्यूब चैनल चलाते हैं ने जेल की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए बातचीत के दौरान पूछा कि 'आप केवल मूली की सब्जी लगातार कितने दिनों तक खा सकती हैं, हमें बंदी के तौर पर सुबह-शाम सब्जी के रूप में तब तक खाने को दिया जाता था जबतक कि कारा के खेत में उसका उगना बंद न हो जाए।'
वहीं परिवारिक झगड़ों में 6 महीने बेऊर जेल में रहे पटना के एक निवासी बताते हैं कि 'जेल तो हम गरीबों के लिए नर्क है।' जेलों में जातीय भेदभाव भी बड़ा गहरा है, समाज में पिछड़ी जाति की पहचान दी गई समुदाय से आने वाले लोगों से ही जेलों में भी गंदगी साफ कराई जाती है।
जेल में बंद लोग न केवल समाज से अलग-थलग कर दिए जाते हैं वरन् इन्हें परिवार से भी पूरी तरह काट कर रख दिया जाता है। फिर चाहे वो पत्नी हो, मां हो, बच्चे हो या कोई और प्रियजन। बिहार- झारखंड के जेलों में जो खुद मैंने झेला है वह यह है कि जब भी मैं रूपेश से मुलाकात को गई हर वक्त उनके साथ उनके कक्षपाल साथ खड़े रहते थे। एक तो दो-तीन जालियों या शीशे लगे होने के बाद हमारे बीच की दूरी 5-7 फीट हो जाती है, मुलाकात भी मात्र 15 मिनट की, उसपर भी चिल्लाकर बोलने की जरूरत पड़ती है और इनसबके बाद हमारी बातों को सुनने के लिए रूपेश के साथ कोई एक हमेशा खड़ा ही रहा है। मतलब पति- पत्नी के बीच की बातचीत में भी कोई प्राइवेसी नहीं। एक बार बस आपपर कोई आरोप लगाकर जेल भेज दिया जाए फिर आपके सभी मानवाधिकारों को कुचला जा सकता है। यहां तक कि जेल से बंदियों को अपने परिवार, दोस्त, वकील,अन्य जेलों में बंद केस पार्टनर को भी पत्र लिखने की सुविधा नहीं दी जाती है। न ही इसके उलट हर जेल में संभव है। मुझे याद है 14 फरवरी 2023 को जब रूपेश रांची के बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारा में बंद थे, मैंने वैलेंटाइन डे पर रूपेश के लिए कुछ लिखा था, पर काफी कोशिशों के बावजूद मेरी चिठ्ठी जेल प्रशासन ने नहीं ली थी। उनका कहना था जब मुलाकात करने का है ही तो चिठ्ठी पत्री का क्या काम? रूपेश को उनके जन्मदिन पर भी परिवार व दोस्तों के भेजे गए पोस्टकार्ड किसी जेल में नहीं दिए गए।
सिवाय, भागलपुर के शहीद जुब्बा सहनी केंद्रीय कारा के। हालांकि वहां भी शुरुआत के दिनों में काॅपी, किताब, कलम यहां तक कि इग्नू की किताब भी देने के लिए भी मुझे एनएचआरसी को शिकायत पत्र लिखना पड़ा था।
मार्च 2025 में छपी एक खबर के अनुसार शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीश ए के पटनायक ने लोकतांत्रिक अधिकार और धर्मनिरपेक्षता संरक्षण समिति (सीपीडीआरएस) द्वारा आयोजित लोकतांत्रिक अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता पर एक राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करने के दौरान हिरासत में मौत, फर्जी मुठभेड़ और जेलों में यातना के मुद्दों को रेखांकित करते हुए कहा था कि देश में लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार संस्थाएं ही इनका सबसे अधिक उल्लंघन कर रही हैं। उन्होंने कहा, "लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार संस्थाएं ही इनका सबसे अधिक उल्लंघन कर रही हैं। हिरासत में मौतें, फर्जी मुठभेड़ और जेल में यातनाएं बढ़ने की घटनाएं बढ़ी हैं।"
हम जानते है कि 10 दिसंबर को हर जेल में भी मानवाधिकार दिवस मनाया जाएगा मगर हकीकत बिल्कुल उल्ट है। जरूरत है इनपर काम करने की, सभी जगह मानवाधिकार की रक्षा की, हर योग्य व्यक्ति द्वारा इसपर सही पहल की। वरना कागजों पर मानवाधिकार दिवस मनाने का क्या औचित्य?
-लेखिका इप्सा शताक्षी पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की पत्नी हैं, जिन्होंने अपने पति के तीन साल के जेल प्रवास के कष्टपूर्ण अनुभवों के आधार पर यह लेख साझा किया है।
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