दिल्ली: मणिपुर हिंसा पर स्त्रीवादियों का फूटा गुस्सा, जिम्मेदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग

प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रपति से आगे बढ़कर कार्रवाई करने, हिंसा फैलाने के आरोपियों सहित तंत्र में बैठे जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय करने की अपील।
मणिपुर हिंसा पर महिलाओं का फूटा गुस्सा
मणिपुर हिंसा पर महिलाओं का फूटा गुस्सा

नई दिल्ली। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की उपस्थिति में नागपुर में 20 जुलाई 1942 में हुए अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट महिला सम्मेलन की बरसी के उपलक्ष्य में स्त्रीकाल पत्रिका प्रबंधन की ओर से गत रविवार को एक ऑनलाइन बैठक आयोजित की गई। बैठक में प्रस्ताव पारित कर स्त्रीवादियों ने मणिपुर हिंसा को लेकर आक्रोश जाहिर किया। वहीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्म से मामले में त्वरित व प्रभावी कार्रवाई करने की मांग की।

बैठक की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार उर्मिला पवार और सुशीला टाकभौरे ने की। वहीं औपचारिक रूप से प्रस्ताव पारित किया। इस दौरान संजीव चंदन, नूतन मालवी, मनोरमा, अरुण कुमार, बिनय ठाकुर, विवेक सिन्हा, सुधा अरोड़ा, छाया खोब्रागडे, अनिता भारती, नूर जहीर, कल्याणी ठाकुर, कुसुम त्रिपाठी, नीतिशा खलखो, जमुना बिनी, मीना कोटवाल, जितेंद्र बिसारिया, कविता कर्मकार, क्विलिन काकोती, प्रिया राणा, दीप्ति व आफरीन उपस्थित थे।

चर्चा का सार

ऑनलाइन बैठक में मणिपुर हिंसा का मुद्दा चर्चा के केन्द्र में रहा। वक्ताओं ने मणिपुर में दो आदिवासी (कुकी जनजाति) महिलाओं को निर्वस्त्र कर जिस तरह एक भीड़ ने उन्हें घुमाया और उनपर सामूहिक बलात्कार किया। मामले को लेकर दुःख और क्षोभ व्यक्त किया। वहीं बताया कि मणिपुर में तीन महीने से जातीय हिंसा जारी है। मैतेई और कुकी समुदाय के बीच संघर्ष को शांत करने में मणिपुर की भाजपा सरकार और उसके मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह की विफलता तथा केंद्र की भाजपा सरकार की पूरे प्रकरण में दिखी भूमिका ने राज्य को एक बार फिर बहुसंख्यकों के हित का रक्षक ही सिद्ध किया है।

प्रस्ताव के प्रमुख अंश

मणिपुर में तीन महीने से जातीय हिंसा जारी है। मैतेई और कुकी समुदाय के बीच संघर्ष को शांत करने में मणिपुर की भाजपा सरकार और उसके मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह की विफलता तथा केंद्र की भाजपा सरकार की पूरे प्रकरण में दिखी भूमिका ने ‘राज्य’ को एक बार फिर बहुसंख्यकों के हित का रक्षक ही सिद्ध किया है। एक लोकतांत्रिक राज्य की भूमिका अकलियतों, हाशिये के लोगों, वंचितों की संरक्षा की होती है। भारत का संविधान इस मूलभूत सिद्धांत की नीव पर खड़ा है।

मणिपुर के मुख्यमंत्री की भूमिका पर सवाल खड़े हो रहे हैं। मैतेई समुदाय से आने वाले मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह अपने समुदाय के साथ और कुकी जनजाति के खिलाफ, पक्षपाती भूमिका में हैं। भारत के प्रधानमंत्री को पिछले तीन महीने से हो रही जातीय हिंसा के प्रसंग में कोई चिंता नहीं दिखती। केंद्र सरकार का गृहमंत्रालय इस मामले में विफल है। मणिपुर में हिंसा के पैटर्न और राज्य व राज्य की मशीनरी पर काबिज लोगों की भूमिका को देखते हुए मणिपुर-हिंसा को 2002 में गुजरात दंगों की अनुकृति कहा जा सकता है। यह एक दुखद और भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक पुनरावृत्ति है।

भारत के प्रधानमंत्री ने महिलाओं के निर्वस्त्र किये जाने और उनपर सामूहिक बलात्कार की वीभत्स घटना के बड़ा खुद को क्रोधित और पीड़ा से भरा बताया, लेकिन घटना की गम्भीरता और मणिपुर में भाजपा सरकार की विफलता पर पर्दा डालने के लिए एक सामान्यीकृत बयान दिया। उन्होंने सभी राज्यों के मुख्यमंत्री को ऐसी घटनाओं पर प्रभावी कार्रवाई का सुझाव दिया। प्रधानमंत्री ने इस बयान के लिए भी कृपा तब की जब घटना का वीडियो वायरल हुआ। जबकि इस घटना के खिलाफ दो महीने पहले ही एफआईआर दर्ज हो चुकी थी और कोई कार्रवाई बिरेन सिंह सरकार ने नहीं की थी।

इस घटना को लेकर राष्ट्रीय महिला आयोग की भूमिका भी बेहद आक्रोशित करने वाली है। महिला आयोग ऐसे मामलों में प्रायः राजनीतिक रूप से सक्रिय या निष्क्रिय रहता है। उसकी अध्यक्ष अपने नियोक्ता राजनीतिक जमातों के हितों को देखते हुए काम करती हैं। इस मामले में महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा का बयान आयोग के अस्तित्व को ही निरर्थक बनाता है। आयोग को इस घटना की जानकारी एक शिकायत के जरिये 12 जून को ही हो गयी थी और उसपर आयोग ने खानापूर्ति की कार्रवाई करते हुए राज्य सरकार को रस्मी चिट्ठी भर लिखी। 37 दिन वीडियो वायरल होने पर आयोग की अध्यक्ष ने कोई सार्वजनिक बयान दिया।

उच्चतम न्यायालय ने इस मामले का संज्ञान लिया है। इसके बाद ही भारत के प्रधानमंत्री ने बयान जारी कर सरकार के लिए सेफगार्ड का काम किया। उच्चतम न्यायालय की भी अपनी सीमा है। बिना कार्यपालिका के सहयोग के न्यायालय कोई अधिक प्रभावी भूमिका नहीं निभा सकता है।

भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी अब इस घटना से अवगत हो गयी होंगी। उन्हें भी इस मामले में अब तक चुप्पी रखी है। सरकार से कोई सवाल नहीं किया है। वे आदिवासी समुदाय से भी आती हैं। आदिवासी महिलाओं के साथ हुए इस नृशंस काण्ड से वे बेहद दुखी होंगी, होनी चाहिए। भारत में किसी भी महिला के साथ ऐसी घटनाओं पर देश के सर्वोच्च को शर्मिंदा होना ही चाहिए। लेकिन उन्होंने चुप्पी रखी है। हम यह नहीं मानते कि एक आदिवासी और एक महिला होने के कारण इन घटनाओं पर उन्हें अधिक संवेदनशीलता और सक्रियता के साथ सामने आना चाहिए था, या उनकी कोई अतिरिक्त जिम्मेवारी बनती है।

ऐसा मानना जनाक्रोश को उत्पीड़ित समुदाय के किसी व्यक्ति की ओर ही मोड़ देना होता है। लेकिन वे जिस सामाजिक लोकेशन से हैं, एक महिला और एक आदिवासी, वह स्वाभाविक रूप से भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति अधिक सजगता और समर्पण के लिए प्रेरित करता है। बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर के नेतृत्व में देश ने खुद को एक संविधान आत्मार्पित किया, जिसका गुणात्मक असर देश के वंचितों, दलितों, आदिवासियों, पसमांदाओं, महिलाओं और अन्य हाशियाकृत समुदायों पर पड़ा है और वे इससे खुद को ज्यादा जुड़ा हुआ समझते भी हैं। इस कारण से भी उनसे हमारी अपेक्षा अधिक है।

सबसे दुखद है ऐसे मामलों में महिलाओं की संलिप्तता। महिलाओं के खिलाफ हिंसा में महिलाओं की भागीदारी का बढ़ता ट्रेंड बेहद खतरनाक है। मणिपुर में भी ऐसी घटनाओं में महिलाओं के शामिल होने की खबरें आ रही हैं। मणिपुर में ‘मीरा पैबिज’ नाम से सक्रिय रहे महिलाओं के समूह पर भी सवाल उठ रहे हैं। राज्य में महिलाओं पर ऐसी किसी भी बर्बरता के खिलाफ हाथों में मशाल लेकर निकलने वाला यह समूह इस या पिछले तीन महीने में इस जैसी कई घटनाओं पर चुप हैं। इस संगठन में मैतेई महिलाओं का ही नेतृत्व है। उनसे भी मानवाधिकार के पक्ष में अपने जातीय हितों से ऊपर जाकर सक्रियता की उम्मीद स्वाभाविक है।

जमीन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट से उपजी दो समुदायों के बीच हिंसा का यह बीज सत्ता द्वारा प्रायोजित है और इसमें एक खास समुदाय की हानि ही हम देख रहे हैं। एथनिक क्लींजिंग का यह मसला स्पष्ट रूप से दिखता है। सत्ता व पूंजीपतियों को न कुकी से न मैतई से मतलब है, बल्कि वहां संविधान द्वारा प्रदत्त अनुसूचित क्षेत्र को कैसे पूँजीपत्तियों के हवाले किया जाए उनकी यह मंशा दिखती है। कई प्राकृतिक संसाधनों का क्षेत्र होने के कारण यह क्षेत्र जबरन डिस्टर्ब एरिया में परिणित किया गया है।

साथ ही हिन्दू बनाम क्रिस्चियन हिंसा के बतौर भी यह जगजाहिर है। एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य के नागरिक के रूप में हम इसका विरोध करते हैं।

हम भारत के नागरिक के रूप में इस घटना या मणिपुर में हो रही ऐसी और वीभत्स हिंसा की घटनाओं पर बेहद आक्रोशित हैं और खुद को विफल पा रहे हैं। राज्य की निष्क्रियता सबसे अधिक पीड़ादायी है। समाज के रूप में भी ऐसी घटनाएं हमें और भी यथास्थितिवाद को ओर ले जाती हैं। एक लोकतांत्रिक राज्य के नागरिक के रूप में सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक लोकतंत्र के जिम्मेवारी हम सबकी है। प्रथम नागरिक होने के नाते भारत की राष्ट्रपति से हमारे आक्रोश और दुःख को व्यक्त करने की हम मांग करते हैं और न सिर्फ प्रत्यक्ष दोषियों, अपितु इस वीभत्स घटना को अंजाम देने में शामिल तंत्र के दोषियों, पर स्पष्ट कार्रवाई की पहल चाहते हैं। भारत के प्रथम नागरिक, भारत की राष्ट्रपति के जरिए हम सभी नागरिक इस घटना के जिम्मेवार तंत्र पर कार्रवाई कर लोकतंत्र के पक्ष में संदेश देने की मंशा रखते हैं। प्रस्तावक स्त्रीकाल और उसके साथ जेंडर-जस्ट समाज के प्रति समर्पित साथी।

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