
भारत रत्न बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के धर्मांतरण के पूरे दौर को विभिन्न ऐतिहासिक लेखों, खोजों और उनके द्वारा दिए गए भाषणों के प्रमाणित लेखों को एकत्रित करते हुए डॉ. रतन लाल ने उसे खूबसूरती से एक क़िताब का शक्ल दिया गया है। धर्मान्तरण: आंबेडकर की धम्म यात्रा, क़िताब में एक महत्वपूर्ण प्रसंग पढ़ने को मिलता है, जब बाबा साहब देश के इतिहास को बौद्ध धर्म और ब्राह्मण-धर्म के संघर्ष के अलावा और कुछ मानते ही नहीं हैं।
बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खंड 37, पृ. 321-323 को का उल्लेख करते हुए किताब बताती है कि, मद्रास में ठहरने के दौरान डॉ. बी. आर. आंबेडकर को कई संस्थाओं ने भाषण के लिए आमंत्रित किया था। मद्रास रैशनल सोसाइटी भी ऐसी ही एक संस्था थी। उसने 'रैशनलिज्म इन इंडिया' पर डॉ. आंबेडकर का भाषण, रविवार 24 सितम्बर, 1944 को प्रभात टाकीज, ब्रॉडवे, मद्रास में पूर्व मंत्री रामनाथन की अध्यक्षता में आयोजित किया गया। इस मौके पर साऊ एम.एम. मुथु ने डॉ. आंबेडकर का स्वागत किया।'
उस दिन के अपने भाषण में डॉ. आंबेडकर ने कहा-
"भारत में 'रैशनलिज्म' अर्थात् तार्किकता का विषय निःसन्देह भारतीयों के लिए बड़ी रुचि का विषय है और इसका ठोस प्रभाव पड़ा है। लेकिन जहाँ तक हिन्दू समाज और सामाजिक जीवन का सम्बन्ध है, यह विषय पूरी तरह उपेक्षित रहा है। भारतीय इतिहास के बारे में अनेकानेक मिथ्या धारणाएँ हैं, जिन्हें उन लोगों को खरीदने के लिए प्रचारित किया गया है जो साहित्य जगत में बहुत बड़े आधिकारिक विद्वान हैं। भारतीय इतिहास के अत्यन्त पारंगत लेखकों का कहना है कि भारत में कोई राजनीतिज्ञ है ही नहीं और समस्त प्राचीन भारतीय लेखक स्वयं दर्शन, धर्म, अध्यात्म से सरोकार रखते थे और उन्होंने राजनीति की कभी चिन्ता ही नहीं की। यह कहा गया है कि प्राचीन भारत के लोग कभी भी इतिहासवेत्ता या राजनीतिज्ञ वर्ग के नहीं रहे हैं। आज तक भी यही राय कायम है। यह भी कहा गया है कि भारत का कोई इतिहास नहीं रहा है, भारतीय जीवन और समाज एक पुराने कठोर साँचे में आगे बढ़ा है, वह एक बार स्थिर हो गया और उसी तरह चलता रहा। परिणामस्वरूप, भारत के इतिहासकारों को कुछ नहीं करना होता है, बल्कि यही बताना होता है कि वह कठोर साँचा क्या है। यह भी कहा गया है कि कुछ देशों के बारे में यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने पिछली राजनीतिक क्रान्ति की रूपरेखा को बदलने के उद्देश्य से कुछ विशेष और राजनीतिक क्रान्तियाँ की हैं।"
"मैं केवल एक राजनेता रहा हूँ और मैं साहित्य का या इतिहास का या दर्शन का गम्भीर विद्यार्थी होने का दावा नहीं कर सकता। लेकिन मैंने प्राचीन इतिहास के अध्ययन के लिए अपना कुछ समय निकाला है और मैं अनेक विद्वानों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों से प्रतिकूल निष्कर्षों पर पहुँचा हूँ। अपने अध्ययन से मुझे ज्ञात हुआ कि प्राचीन भारतीयों में राजनीतिज्ञों की एक परम्परा थी जो इतिहास में उल्लिखित है। यों प्राचीन अतीत में किसी भी देश में ऐसी क्रान्ति नहीं हुई, जिसने समाज के आचार-नियमों, शासन और दर्शन को प्रभावित किया हो और जिन पर भारतीयों का विशेषाधिकार सिद्ध हो सके। सम्भवतः भारत एक ऐसा देश रहा है जिसने तार्किकता का उपदेश दिया है और वह भी ऐसा, जो विश्व ने पहले कभी नहीं देखा। भारत एक क्रान्ति भूमि भी रही है, और इसकी तुलना में फ्रांस की क्रान्ति केवल 'बागाटैला' कही जाएगी, इसके अधिक कुछ नहीं।"
क़िताब आगे बताती है कि, भारतीय इतिहास के छात्रों को एक बात ध्यान में रखना आवश्यक है और वह बात ऐसी है, जिसे उन इतिहासकारों ने हमेशा उपेक्षित किया है, जिन्होंने भारत के इतिहास पर लिखा है। यह एक मूल बात है और जब तक उसे ध्यान में नहीं रखा जाएगा, तब तक कोई भी भारत के इतिहास को समझ नहीं सकता।
मूल तत्त्व यह है कि प्राचीन भारत में बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म (सनातन धर्म) के बीच बड़ा संघर्ष रहा है। यदि इस बड़े संघर्ष को इसमें से निकाल दिया जाए, तो भारत का इतिहास कुछ नहीं बचेगा। यह एक संघर्ष भी नहीं था जैसा कि दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसरों ने बार-बार कहा है, बल्कि किसी पंथ के बारे में झगड़ा था। यह विचारधारा की क्रान्ति नहीं थी, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक दर्शन की क्रान्ति थी। बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म में झगड़ा एक ही मुद्दे पर था और वह मुद्दा था- 'सत्य क्या है?' या 'किसे सत्य माना जा सकता है'? तार्किकता इसी प्रश्न की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालती है। सत्य क्या है, इसके बारे में बुद्ध ने जो उत्तर दिया था वह उससे मूलतः भिन्न था, जो ब्राह्मणें ने दिया था।
बुद्ध ने कहा था कि सत्य ऐसी चीज है जिसकी साक्षी दस इंद्रियों में से कोई भी इंद्री हो सकती है। सत्य के बारे में ब्राह्मणों की विचारधारा यह थी कि यह ऐसी कोई चीज़ है जिसे वेदों द्वारा घोषित किया गया है। उन्हें कोई ग़लती नहीं करनी चाहिए बल्कि ब्राह्मण धर्म का यही सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। बौद्ध क्रान्तिकारी थे और ब्राह्मण क्रान्ति विरोधी। बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म में यही अन्तर था। प्राचीन काल से ही ब्राह्मण यह आग्रह करते थे कि वेद समस्त सामाजिक और धार्मिक सिद्धान्तों के निर्णायक समादेश माने जाएँ। लेकिन मुझे आश्चर्य है कि प्राचीन समादेश माने जाएँ। यह बात समझना कठिन है। लेकिन मुझे आश्चर्य है कि प्राचीन ब्राह्मणों जैसे चालाक लोगों ने ऐसे ग्रंथों को इतना असीम पावन और प्रमाण बनाने का आग्रह किया है। इन ग्रंथों में मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है।
वेदों के कुछ पहलुओं का विवेचन करते हुए और कुछ दृष्टान्तों का उल्लेख करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा कि उनमें कुछ अंश जालसाजी के हैं और उनका समावेश बाद के काल में किया गया है। उन्होंने ऐसा इसलिए किया है क्योंकि वे अपनी विचारधारा के लिए एक प्रकार की धार्मिक स्वीकृति चाहते थे। उनके विचार में यह एक कारण था कि ब्राह्मणों ने सामाजिक सिद्धान्तों के प्रति इतनी अयथार्थवादी दृष्टि अपनाने का आग्रह किया था। बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म के बीच का संघर्ष सर्वोच्चता के लिए था। जब बौद्ध धर्म लुप्त हुआ तो वह विस्मयकारी ढंग से लुप्त हो गया।
विश्व के इतिहास में, बुद्ध स्वतंत्रता, समता, बन्धुत्व का सन्देश देनेवाले प्रथम व्यक्ति थे। वे लोग इसलिए अदृश्य हो गए, क्योंकि प्रतिक्रान्ति ने उस क्रान्ति को पराभूत कर दिया। वे तार्किकता की भावना भी खो चुके थे, और यही कारण था कि सम्पूर्ण हिन्दू समाज नितान्त अन्धविश्वास, मूर्ति पूजा और सभी प्रकार के कदाचारों से ग्रस्त हो गया था। उनका पालन धर्म के नाम पर किया जाना था। बुद्ध की सत्य के प्रति तार्किक विचारधारा विलुप्त हो गई। आज वे प्रति-क्रान्तिकारियों के चंगुल में हैं। प्रति-क्रान्तिकारियों के धर्मग्रंथ भगवद्गीता और मनुस्मृति हैं।
आज की त्रासदी यह है कि राजनीति में अतार्किक विचारधारा प्रवेश कर गई है। राजनेता हर देश में कसौटी पर हैं। लेकिन भारत में इसका समाधान क्या है?
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