मुंबई – 29 मई को डॉ. सविता अंबेडकर की 22वीं पुण्यतिथि है, उनका निधन 2003 में 94 वर्ष की आयु में हुआ था। माई साहब के नाम से जानी जाने वाली सविता न केवल डॉ. भीमराव अंबेडकर की दूसरी पत्नी थीं, बल्कि उनकी ऐसी सहचरी थीं, जिन्हें बाबा साहब ने अपनी पुस्तक द बुद्धा एंड हिज धम्मा की प्रस्तावना में अपने जीवन को 8-10 वर्ष तक बढ़ाने का श्रेय दिया।
1948 में हुई उनकी शादी उस समय चर्चा का विषय बनी, क्योंकि सविता, जिनका मूल नाम शारदा कबीर था, एक सरस्वत ब्राह्मण परिवार से थीं, जबकि बाबा साहब महार जाति से थे। उस समय सविता 39 वर्ष की थीं और बाबा साहब 57 वर्ष के, यानी 18 वर्ष का आयु अंतर। फिर भी, उनका रिश्ता प्रेम, सम्मान और बौद्धिक साझेदारी पर आधारित था, जिसने सामाजिक बाधाओं को पार किया।
स्वतंत्र शोधकर्ता और प्रैक्टिसिंग डेंटिस्ट डॉ. एसपीवीए साईराम ने अपने लेख एन अनएक्सप्लोर्ड साइड ऑफ डॉ. अंबेडकर: हिज क्वाइट रिलेशनशिप विद सिनेमा, थिएटर, एंड म्यूजिक, जो 14 अप्रैल 2025 को द कल्चर कैफे में प्रकाशित हुआ, में बाबा साहेब के सिनेमा, रंगमंच और संगीत के प्रति कम चर्चित लगाव को उजागर किया है। इस लेख में उन फिल्मों का उल्लेख है जिसे बाबा साहब ने देखा- इनमें से एक 1937 की मराठी फिल्म कुंकू है जो हिंदी में दुनिया ना माने नाम से रिलीज हुई।
डॉ. साईराम के लेख के अनुसार, बाबा साहेब का सिनेमा के प्रति रुझान उनके व्यक्तित्व का एक कम चर्चित पहलू है। उन्होंने अपनी पहली पत्नी रमाबाई के साथ 1927 में अंकल टॉम्स कैबिन जैसी फिल्में देखीं और कुंकू का भी आनंद लिया। वह मराठी रंगमंच के प्रमुख हस्तियों जैसे पी.के. आत्रे और मास्टर कृष्णराव फुलमब्रीकर से भी जुड़े थे।
डॉ. साईराम ने अपने लेख में बाबा साहेब के सिनेमा, रंगमंच और संगीत के प्रति रुझान को रेखांकित किया है। उन्होंने विशेष रूप से सविता को लिखे एक पत्र का जिक्र किया, जिसमें बाबा साहेब ने अपनी शादी के आधार पर गहन विचार व्यक्त किए। पत्र में उन्होंने लिखा:
यदि शब्दों का कोई अर्थ है और शादी का कोई आधार है, तो आपके पत्र में 'मैं आपको स्वीकार करती हूँ' कहने का क्या मतलब है? आपने मुझे किस रूप में स्वीकार किया? एक महान व्यक्ति के रूप में, एक विद्वान के रूप में, या एक आकर्षक पुरुष के रूप में? आपकी प्रेरणा का स्रोत क्या है? जैसा कि एक कवि ने कहा है, 'सौंदर्य पर आधारित प्रेम सौंदर्य के मुरझाने के साथ ही खत्म हो जाता है।' यही बात महानता या विद्वता पर आधारित प्रेम के लिए भी सत्य है। ये चीजें कुछ समय बाद कमजोर पड़ने लगती हैं। ये शादी का आधार नहीं हो सकतीं। शादी केवल उस प्रेम पर टिकी हो सकती है, जिसे केवल एक-दूसरे के साथ होने की तीव्र इच्छा के रूप में वर्णित किया जा सकता है। क्या आप इस भावना से प्रेरित हैं? इसके अलावा कुछ भी न तो पर्याप्त है और न ही स्वीकार्य। मुझे नहीं पता कि आपने कुंकू फिल्म देखी है या हॉल केन का उपन्यास द वुमन थाउ गेवेस्ट मी पढ़ा है। दोनों में शादी केवल एक औपचारिकता थी। वे कितने दुखद और त्रासद थे। इसका कारण था कि उनमें एक-दूसरे के साथ होने की इच्छा का अभाव था।"
यह पत्र बाबा साहेब की उस सोच को दर्शाता है कि शादी का आधार सतही गुणों जैसे सौंदर्य, महानता या विद्वता पर नहीं, बल्कि गहरे भावनात्मक लगाव पर टिकना चाहिए। कुंकू और द वुमन थाउ गेवेस्ट मी का उल्लेख करके उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बिना प्रेम के शादी केवल एक खोखली औपचारिकता बनकर रह जाती है।
कुंकू (हिंदी में दुनिया न माने), वी. शांताराम द्वारा निर्देशित मराठी फिल्म, एक युवा महिला नीरा की कहानी है, जिसकी शादी एक बुजुर्ग विधुर से जबरदस्ती कर दी जाती है। प्रेम और आपसी समझ के अभाव में यह शादी नीरा के लिए दुख और सामाजिक दबाव का कारण बनती है। फिल्म उस समय की रूढ़िवादी प्रथाओं, जैसे बाल विवाह और बेमेल विवाह, की कड़ी आलोचना करती है। बाबा साहेब ने इस फिल्म का उल्लेख सविता को लिखे पत्र में इसलिए किया, क्योंकि यह उनकी उस मान्यता को बल देती है कि प्रेम के बिना विवाह त्रासद होता है। डॉ. सायराम के अनुसार, बाबा साहेब ने कुंकू को सविता के साथ अपने रिश्ते के संदर्भ में देखा, यह सवाल उठाते हुए कि क्या उनका रिश्ता सच्चे प्रेम और एक-दूसरे के साथ होने की इच्छा पर आधारित है।
हॉल केन का उपन्यास द वुमन थाउ गेवेस्ट मी मैरी ओ’नील की कहानी है, जिसकी शादी सामाजिक और आर्थिक कारणों से एक धनी लेकिन नैतिक रूप से कमजोर व्यक्ति से कर दी जाती है। इस शादी में भावनात्मक जुड़ाव का अभाव होता है, जिसके कारण मैरी प्रेम की तलाश में अन्य रास्तों पर जाती है, लेकिन उसे सामाजिक निंदा और व्यक्तिगत दुख का सामना करना पड़ता है। यह उपन्यास उस समय की सामाजिक संरचनाओं और विवाह की औपचारिकता पर तीखा प्रहार करता है। बाबа साहेब ने इस उपन्यास का उल्लेख इसलिए किया, क्योंकि यह उनकी इस धारणा को पुष्ट करता है कि प्रेम और आपसी लगाव के बिना विवाह त्रासदी को जन्म देता है।
डॉ. सविता अंबेडकर, जिनका जन्म 27 जनवरी 1909 को रत्नागिरी जिले के डोरले गांव में एक सरस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था, एक कुशल चिकित्सक थीं। उन्होंने 1937 में मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की और गुजरात में एक अस्पताल में मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में कार्य किया। 1947 में बाबा साहेब से उनकी मुलाकात तब हुई, जब वह मधुमेह, उच्च रक्तचाप और जोड़ों के दर्द जैसी गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए मुंबई आए थे। सविता ने न केवल उनकी चिकित्सा देखभाल की, बल्कि उनके जीवन के अंतिम वर्षों में उनके साथ गहरा भावनात्मक और बौद्धिक रिश्ता साझा किया।
15 अप्रैल 1948 को दिल्ली में उनकी शादी एक सिविल समारोह में हुई। बाबा साहेब के अनुयायियों ने सविता को "माई" (माँ) के रूप में स्वीकार किया, और उन्होंने इस भूमिका को पूरे समर्पण के साथ निभाया। अपनी आत्मकथा बाबासाहेब: माय लाइफ विद डॉ. अंबेडकर में सविता ने बाबा साहब के साथ बीते यादगार पलों को रेखांकित किया, जिसमें भारतीय संविधान के निर्माण, हिंदू कोड बिल के प्रारूपण, और द बुद्धा एंड हिज धम्मा जैसी रचनाओं में उनकी सहायता शामिल थी। 14 अक्टूबर 1956 को, जब बाबा साहेब ने नागपुर के दीक्षाभूमि में लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया, सविता उनके साथ थीं और उन्होंने भी बौद्ध धर्म स्वीकार किया।
बाबा साहब के निधन के बाद, 6 दिसंबर 1956 को, सविता को कुछ अनुयायियों द्वारा गलत तरीके से निशाना बनाया गया। उन पर बाबा साहब की मृत्यु के लिए जिम्मेदार होने का आरोप लगाया गया और उनकी ब्राह्मण पृष्ठभूमि को लेकर विवाद खड़ा किया गया। इसके कारण सविता अंबेडकरवादी आंदोलन से कुछ समय के लिए अलग-थलग हो गईं और दिल्ली के महरौली में एक फार्महाउस में चली गईं। हालांकि, 1970 के दशक में, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता रामदास अठावले और गंगाधर गड़े ने उन्हें फिर से आंदोलन में शामिल किया। सविता ने दलित-बौद्ध आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और पुणे में सिम्बायोसिस सोसाइटी के डॉ. बाबासाहब अंबेडकर म्यूजियम और मेमोरियल की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
डॉ. सविता अंबेडकर की 22वीं पुण्यतिथि के अवसर पर, हम उनके और बाबा साहेब के रिश्ते को एक ऐसी प्रेम कहानी के रूप में याद करते हैं, जो सामाजिक बाधाओं को पार करती थी और प्रेम, सम्मान और बौद्धिक साझेदारी पर आधारित थी। सविता को लिखा उनका पत्र, जिसमें कुंकू और द वुमन थाउ गेवेस्ट मी का उल्लेख है, उनकी इस मान्यता को रेखांकित करता है कि शादी का आधार एक-दूसरे के साथ होने की गहरी इच्छा होनी चाहिए। सविता ने न केवल बाबा साहेब के स्वास्थ्य का ध्यान रखा, बल्कि उनके सामाजिक और बौद्धिक मिशन में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम और समर्पण सामाजिक रूढ़ियों को तोड़कर एक स्थायी विरासत छोड़ सकता है।
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